मेरा क्षितिज खो गया!

01-02-2025

मेरा क्षितिज खो गया!

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

उस दिन मैंने संकष्टी चतुर्थी का त्योहार मनाया, 
शक्ति-सामर्थ्य भर, शुद्ध-पवित्र हो
दिनभर उपवास का मैंने संकल्प उठाया, 
विघ्नहर्ता-विनायक के सम्मुख अपना निवेदन सुनाया, 
“हे गणेश, हे गणपति, जग पर अपनी कृपा करो, 
हर माता की संतति की कष्टों से रक्षा करो!”
 
दिन भर निराहार रह, गणपति का ध्यान कर, 
मैंने तिल गुड़ के पकवान बनाए, 
कई फल, हल्दी-दूर्वा आदि थाली में सजाए। 
 
अब प्रतीक्षा थी मुझे, चंद्रमा के आने की
चन्द्र-दर्शन करके व्रत को पूर्णता दिलाने की, 
गूगल-गुरु ने बताया था
चाँद नौ के बाद आएगा, 
मैंने विचार किया—‘साढ़े-नौ’ तक तो 
उसका ‘दर्शन’ मिल जाएगा!”
 
चन्द्रोदय के समय पर, 
मन में ‘दर्शन’ चाह, हाथों में पूजा की थाली लेकर, 
चढ़ गई मैं तिमंज़िले घर की अटारी पर, 
 
पूरब की दिशा में मैंने सावधानी से नज़रें घुमायीं, 
मुझे तो हर ओर बस बिजली की चमक 
और बहुमंज़िली इमारतें ही नज़रआयीं!, 
 
‘नवोदित’ बाल सूर्य-चंद्र तो क्षितिज में ही होते हैं? 
युवा होने पर ही वे मध्याकाश में चढ़ते हैं! 
उनको देखने से भी भला कहीं ‘दर्शन’ के ‘पुण्य’ मिलते हैं? 
 
यह सब सोच कर मन मेरा उदास हो गया, 
दिन भर का मेरा व्रत अपूर्ण ही रह गया? 
मन में इक फाँस चुभी, 
शहरीकरण की इस अंधी दौड़ में, 
मेरे नयनों में बसा, स्वर्णिम किरणों से भासित ‘शिशुचन्द्र’, 
मेरे क्षितिज के साथ ही कहीं खो गया!

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