दो कुबड़े

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: आई ड्यू गोबी; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द टू हंचबैक्स); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, इस अंक की लोक कथा बहुत छोटी सी है। इस स्थिति को ‘नकल भी अक़्ल से होती है’ कह सकते हों या फिर शायद ईर्ष्या का दुष्परिणाम भी! लेकिन कहानी की शिक्षा तो बच्चों के लिए होती है और आप में से शायद ही कोई बच्चा हो! हाँ, यह बात ज़रूर है कि जो दिल से बच्चे होंगे, वे इस कहानी का अधिक आनन्द लेंगे . . . तो शिक्षा और नैतिकता की बात छोड़ें और इस लोक कथा का आनंद लें:


एक बार की बात है, किसी गाँव में दो कुबड़े रहते थे और थे दोनों सगे भाई। एक दिन छोटा कुबड़ा बोला, “मैं कमाई करने दूसरे गाँव जा रहा हूंँ, यहाँ तो हमें कोई काम देता ही नहीं।” और वह धन कमाने का सोच, पैदल ही घर से निकल पड़ा। मीलों चलने के बाद वह एक जंगल में पहुँचा और भटक गया। 

जब रास्ता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते देर होने लगी, अँधेरा घिरने लगा तो वह डर गया, ‘अगर जंगली जानवर मुझे मार डालें तो? अगर लुटेरे मेरे ऊपर हमला कर दें तो? अच्छा होगा कि मैं एक पेड़ पर चढ़कर छुप जाऊँ!’ और वह एक ऊँचे पेड़ पर चढ़कर, पत्तों के बीच छुप कर बैठ गया। जब रात गहरा गई तो उसको कई आवाज़ें सुनाई देने लगीं। कुबड़ा डर गया कि लगता है, डाकू आ गए! लेकिन, यह क्या? पेड़ के नीचे की धरती में बनी एक दरार से एक छोटी सी बूढ़ी स्त्री निकली, फिर एक और, और फिर एक और, और धीरे-धीरे छोटी-छोटी बूढ़ी औरतों की एक क़तार ही बन गई। वे पेड़ के इर्द-गिर्द घूम कर नाचने लगीं। वे नाचते हुए गाती जाती थीं: 

शनिवार इतवार 
शनिवार इतवार . . . 

इसे गीत की तरह दोहरती, वे देर तक नाचती रहीं। पेड़ में छुपा हुआ कुबड़ा उन्हें देख रहा था। अचानक वह उनके सुर में सुर मिला कर बोल उठा:

“शनिवार इतवार
शनिवार इतवार 
और सोमवार”

नाच एक पल को रुक गया! सारी नन्ही, बूढ़ी औरतें सन्नाटे में आ गई। तभी उनमें से एक ज़ोर से बोली:

“यह किस भले मानुष ने हमें ऐसी सुंदर लाइन दी है? हम अपने आप ऐसा सुंदर गीत कभी ना बना पाते!” और उन्होंने फिर से पेड़ के गिर्द नाचना शुरू कर दिया। 

अब वे गा रही थीं:

“शनिवार इतवार
और सोमवार 
शनिवार इतवार 
और सोमवार” 

नाचते-नाचते एक वृद्धा ने अचानक पेड़ में छिपे कुबड़े को देख ही लिया, नज़र मिलते ही कुबड़ा डर गया और काँपता हुआ बोला, “माताओ मुझे माफ़ कर दो, मुझे मारना मत। यह लाइन मेरे मुँह से अचानक ही निकल गई। मैं भगवान की क़सम खाता हूंँ, मैंने आपका बुरा करने की कभी न सोची थी।”

इस पर सबसे सयानी बूढ़ी बोली, “डरो मत बेटा, नीचे आ जाओ। तुम हमसे कुछ माँग लो। हम तुम्हें इस सुंदर गीत के बदले कुछ उपहार देना चाहती हैं।”

कुबड़ा घबरा कर नीचे उतर आया। 

“निडर होकर माँगो, क्या चाहिए?” 

”मैं बहुत ग़रीब हूँ क्या माँगू? अगर मेरी पीठ का कूबड़ ठीक हो जाए तो मैं बहुत ख़ुश हो जाऊँगा। गाँव वाले मेरे कूबड़ पर हँसते हैं। और मुझे कोई काम भी नहीं मिलता!”

“ठीक है, तुम्हारा कूबड़ ठीक हो जाएगा।” उस बूढ़ी स्त्री ने अपनी जेब में से एक छोटा सा चाकू निकाला, और बड़ी नरमी और सफ़ाई से कूबड़ काटकर निकाल दिया। फिर एक जादूई मलहम घाव पर इस तरह लगाई कि वह पल भर में ही भर गया और साफ़, चिकनी खाल दिखाई पड़ने लगी। काट कर निकले कूबड़ को उन औरतों ने उसी पेड़ पर टाँग दिया। 

कुबड़ा हँसता-नाचता अपने गाँव-अपने घर लौट आया। कूबड़ ग़ायब हो जाने के कारण उसे कोई पहचान ही नहीं पा रहा था, यहाँ तक कि उसका बड़ा भाई भी धोखा खा गया। कई पुरानी बातें सुनाने के बाद वह घर में घुसने पाया। 

रात को सोते समय बड़े कुबड़े ने उससे पूछा, “तुमने यह सब किया कैसे?” 

छोटे भाई ने सारी कहानी विस्तार से सुना दी। सब सुनकर बड़ा भाई भी अगली सुबह ही जंगल जाने को तैयार हो गया। वह भी तो अपने कूबड़ से छुटकारा पाना चाहता था! 

बड़ा भाई भी उसी जंगल में गया। उसी पेड़ पर रात बिताने के लिए चढ़ा। रात को उसी समय धरती में से बूढ़ी औरतें निकली और नाच-नाच कर गाने लगीं, 
“शनिवार इतवार
और सोमवार
शनिवार इतवार 
और सोमवार“

पेड़ में छुप कर बैठा कुबड़ा वहीं से ज़ोर से बोला, “और मंगलवार” स्त्रियों ने अब गाना शुरू कर दिया: 
“शनिवार इतवार 
और सोमवार 
और मंगलवार“

लेकिन अब गाने का सुर टूट गया था . . . ताल बेताला हो गई थी . . . 

उन्होंने ग़ुस्से से ऊपर देखा और ज़ोर से बोलीं, “ऊपर कौन बैठा है? हत्यारा! हमारे सुरीले गाने की हत्या कर दी। हाय, हमारा प्यारा गीत!”

फिर सयानी स्त्री ने उसे पेड़ में छुपा हुआ देख लिया और बोली, “जल्दी नीचे उतरो!” 

“मैं नहीं उतरूंगा,” डरा हुआ बड़ा कुबड़ा भाई बोला, “आप लोग मुझे मार देंगीं।”

“नहीं, नहीं, हम तुम्हें मारेंगी नहीं, नीचे आ जाओ।”

कुबड़ा डरते-काँपते पेड़ से नीचे आ गया। 

सयानी, बूढ़ी स्त्री ने पेड़ की डाल पर टँगा हुआ, छोटे कुबड़े का कूबड़ उतारा और उसको बड़े भाई के कूबड़ पर चिपका दिया, “लो, तुम्हारे अपराध का यही दंड है! तुम इसी के लायक़ हो!”

और . . . बेचारा बड़ा कुबड़ा एक के बदले दो कूबड़ लेकर पैर घसीटता, मुँह लटकाए घर वापस आ गया। 

“हो गई कहानी पूरी, सो जाओ मेरे लाल! 
सोते-सोते सोचना, बड़े कुबड़े के दिल का हाल“

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