काग़ज़
सरोजिनी पाण्डेय
जन्म के बाद चलना-बोलना सीखने के बाद, काग़ज़ से मेरा परिचय ‘अख़बार’ के रूप में हुआ, घर के बाहर साइकिल की घंटी बजने और ‘अक़बाssर’ की आवाज़ सुनकर पिता के साथ दौड़ती हुई मैं भी समाचार पत्र उठाने जाती थी (यह कहानी मैंने अपने माता-पिता से कई बार सुनी है)। आज भी, शायद इसी जुड़ाव के कारण, मुझे नए ताज़े अख़बार की गंध और उसके खोले जाने की ध्वनि प्रिय लगती है। थोड़ा और बड़ी होने पर घर में आने वाली पत्रिकाओं से भी मुलाक़ातें होने लगीं, चाहे केवल चित्र देखने के लिए ही हो।
विद्या का आरंभ तो तख़्ती से हुआ और फिर स्लेट पर गणित समझाया गया। हमारे समय में के.जी., नर्सरी नहीं हुआ करते थे, इसलिए काग़ज़ पर पेंसिल से चित्र बनाना, मोम के रंगों का प्रयोग करना हमने बहुत बाद में सीखा। ‘बालपोथी’ से अक्षर और मात्राओं को पढ़ना सीखा और तख़्ती-स्लेट पर लिखना। काग़ज़ पर लिखने का सम्मान मिलते-मिलते आठ वर्ष की आयु हो चली।
पढ़ना सीखते ही तो मानो संसार के कपाट ही मेरे लिए खुल गए! अख़बार पढ़ने का शौक़ पिता के कारण लगा! उन दिनों काग़ज़ पर छपा यह समाचार पत्र ही संसार में झाँकने की खिड़की हुआ करता था। हमारे घर में उन दिनों रेडियो नहीं था, टीवी तो शायद अभी प्रयोगशाला में जन्मा ही रहा होगा। हाँ पाँच-छह वर्ष की आयु होने तक रेडियो ज़रूर घर में आया परन्तु वह अख़बार के आकर्षण को न मिटा सका, आज भी टेलीविज़न, मोबाइल, इंटरनेट के बावजूद हम पुरानी पीढ़ी के लोगों को काग़ज़ पर छपे अख़बार को पढ़े बिना दिन व्यर्थ-सा लगता है। रेडियो में तो समाचार थोड़ी देर के लिए आते थे परन्तु अख़बार हमेशा प्राप्य था, जब चाहो तब दुनिया की सैर को निकल पड़ो।
‘काग़ज़ पेड़ों के अंदर की लुगदी निकालकर बनाया जाता है, इसके लिए पेड़ कटते हैं अतः यह मूल्यवान है। इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए’ यह शिक्षा माता-पिता ने इतनी गंभीरता से हमारे भीतर स्थापित की, कि आज भी काग़ज़ व्यर्थ होता देख कर मर्मान्तक पीड़ा होती है।
यूँ तो ‘बीते कल’ का अख़बार निरर्थक होता है परन्तु हमारे घर में उसे भी बेवजह फाड़ने की अनुमति नहीं थी। पुराने अख़बार तिथि के अनुसार क्रम से ही रखे जाते और पृष्ठ भी सब यथा-स्थान। तब गूगल गुरु जैसा सहायक उपलब्ध न था, इसलिए किसी भी घटना का सत्यापन करने के लिए पुराने समाचार पत्र को टटोलने की आवश्यकता पड़ सकती थी। पिता का काम ऐसा था कि उन्हें हर माह में कम से कम एक सप्ताह बाहर रहना ही होता था। जब वह बाहर दौरे पर जाते, तब प्रथम संतान होने के कारण यह मेरा ही दायित्व होता कि समाचार पत्र क्रम से रक्खे हों और जब पिताजी माँगें तो उनके पास ढेरी को उलट कर रख दिया जाए, जिससे वह घर से अनुपस्थिति के समय के समाचार क्रमवार ही जान सकें। पुराने अख़बारों के लिए माँ भी सचेत रहती थीं। पुराने अख़बार के उपयोग भी तो अनेक थे, बक्से अलमारियों में सामान रखने से पहले नीचे बिछाने के लिए, किताबों पर ज़िल्द चढ़ाने के लिए, घर की छोटी-मोटी सफ़ाई करने के लिए। अधिक घी-तेल लगे, खाना पकाने वाले बर्तनों को मलने से पहले इन्हीं पुराने अख़बारों से पोंछ दिया जाता और फिर वह चिकनाई लगा काग़ज़ भी सँभाल कर रख लिया जाता कि अंगीठी जलाने के काम आएगा और सबसे बढ़कर, कबाड़ी पुराने अख़बारों को अच्छे दामों में ख़रीद ले जाते थे। फिर बहुत लोग इन पुराने अख़बार-पत्रिकाओं के काग़ज़ से लिफ़ाफ़े बनाकर, दुकानदारों को बेच कर दो-चार पैसे भी बना लेते थे। पॉलिथीन की विनाशकारी थैलियाँ अस्तित्व में नहीं थीं इसलिए इन लिफ़फ़ों की माँग रहती थी। इन्हीं लिफ़ाफ़ों में सामान डालकर दुकानदार ग्राहक को दिया करते थे . . .।
पत्रिकाओं में उन दिनों पुराने अख़बारों-पत्रिकाओं के काग़ज़ से कलात्मक और उपयोगी वस्तुएँ बनाने की विधियाँ छपती रहती थीं, जो हम बच्चों को गर्मी की छुट्टियों में व्यस्त रखतीं।
काग़ज़ की अभ्यास पुस्तिका पर पहले किलिच की क़लम से, फिर निब वाले होल्डर से और बाद में फाउंटेन पेन से (सातवीं कक्षा में) लिखना सीखा। परीक्षा समाप्त होने पर अभ्यास पुस्तिकाओं के कोरे बचे पृष्ठों को निकालकर अगले वर्ष उपयोग में आ सकने वाली कॉपियाँ बन जाती थीं। ऐसी ही पुस्तिकाएँ माँ के घर ख़र्च का और धोबी के कपड़ों का हिसाब लिखने के काम भी आती। कोई भी ज़िल्दसाज़ काग़ज़ों की जि़ल्द बाँधकर नई अभ्यास पुस्तिका बना देता था।
अख़बार का काग़ज़, करेंसी नोट छापने का काग़ज़ सब आयात होते थे, इसलिए रुपए के नोटों को तोड़ना, मरोड़ना, भिगोना, थूक लगाकर गिनना सब वर्जित था। यदि कोई ऐसा करता पाया जाता तो पिताजी की डाँट से बच नहीं सकता था।
उन दिनों आज की तरह विज्ञापनों और फ़िल्मी सितारों-राजनेताओं के छोटे से छोटे कृत्य के चित्रों से सजे, प्रायोजित समाचारों से भरे किलो के वज़न के अख़बार नहीं होते थे। कभी-कभी तो अख़बारों में यह सूचना भी होती थी कि ‘आयातित काग़ज़ की कमी के कारण पृष्ठों की संख्या कम की जा रही है’ उसका खेद भी प्रकट किया जाता और मूल्य कम न कर पाने की विवशता भी . . . कभी-कभी स्कूली पुस्तकों और अभ्यास पुस्तिकाओं की कमी भी बाज़ारों में हो जाती थी।
इसी काग़ज़ की कमी के कारण काग़ज़ कितना बहुमूल्य था कि काग़ज़ पर लिखी हुई पारिवारिक चिट्ठियाँ भी हमारे घर में एक तार में माला के फूलों की तरह पिरो कर एक खूँटी पर लटकी रहती थीं। चिट्ठियों से भावनात्मक जुड़ाव तो होना स्वाभाविक है, पर मेरे बाल मन ने इसमें काग़ज़ के मूल्य को भी जोड़ कर अपने मानस में सहेज लिया है।
लेखपाल और पटवारी के ‘काग़ज़ों’ के मूल्य का तो कहना ही क्या! इनकी हेराफेरी से न जाने कितने परिवार दरिद्र होकर भिखारी बन जाते थे और कितने ज़मीदारों की तिजोरियाँ भर जाती थीं।
. . . काग़ज़ पर लिखे प्रेम पत्रों से न जाने कितने प्रेमी हृदय मिले और बिछड़े होंगे!
किसी मनचले ने तो यहाँ तक कह दिया, “काग़ज़ क़लम दवात ला ये दिल तेरे नाम करूँ”!
या फिर अनपढ़ विरहिणी नायिका अपने प्रेमी को संदेश भिजवाने के लिए—“ख़त लिख दे साँवरिया के नाम बाबू, कोरे काग़ज़ पर लिख दे सलाम बाबू!” का निवेदन करती पाई जाती है।
जनमानस में तो काग़ज़ का मूल्य और उसकी महत्ता इतनी अधिक थी कि वृद्धावस्था में मेरी दादी रोज़ अपनी मृत्यु की कामना करती हुई कहती थीं, “शायद भगवान के यहाँ मेरे काग़ज़ खो गए हैं!” मानो धर्मराज के यहाँ मनुष्य के पाप-पुण्य और आयु का लेखा-जोखा भी काग़ज़ पर ही लिखकर रखा गया होगा! यह सभी बातें काग़ज़ की आवश्यकता, उपयोगिता और महत्त्व को ही तो रेखांकित करती हैं। वर्तमान समय में न जाने कितने दस्तावेज़ ऑनलाइन प्राप्त होते हैं परन्तु उन दिनों महँगे सामान की रसीदें, गारंटी के काग़ज़, जन्म प्रमाण पत्र इत्यादि इत्यादि सभी के काग़ज़ बहुत साज़ सँभाल के साथ रखने होते थे।
जब कंप्यूटर के उपयोग का प्रसार होने लगा तब उस के पक्ष में एक तथ्य भी रेखांकित किया जाने लगा कि इससे कार्यालयों में और उस जैसी अनेक संस्थाओं में काग़ज़ का उपयोग घटेगा और वृक्षों के बचाव से पर्यावरण का संरक्षण होगा। परन्तु जहाँ तक मैंने अनुभव किया है कि कार्यालयों में तो चाहे काग़ज़ का उपयोग कम हुआ भी हो परन्तु इसी कालखंड में दैनिक जीवन में काग़ज़ के उत्पादों कीं खपत में भयानक बढ़ोतरी हो गई है। अख़बार किलो के वज़न से छपने लगे हैं, जबकि इनके ग्राहक कम हो गए हैं। शौचालयों में काग़ज़ का उपयोग होने लगा है। शिशुओं की लंगोटियाँ जो पुराने कपड़ों से बन जाया करती थी, काग़ज़ की बनने लगी है जो एक शिशु के बड़े होने में टन के हिसाब से इस्तेमाल हो रही हैं। काग़ज़ के गिलास, काग़ज़ के बरतन खुलकर उपयोग में आते हैं, जो सरासर वृक्षों को नष्ट करने की दिशा में उठाए गए विनाशकारी क़दम हैं। रुमालों का प्रयोग अब पिछड़ापन माना जाता है, हर जगह काग़ज़ के नैपकिन!!
जो दस्तावेज़ ऑनलाइन उपलब्ध हैं, उनकी भी फोटोस्टेट प्रतिलिपि बनवाने की आवश्यकता पड़ती रहती है। इसमें कितना काग़ज़ व्यर्थ होता है उस पर कभी आप ने ध्यान दिया है? एक आधार कार्ड की फोटोस्टेट प्रतिलिपि बनाने में एक फ़ुलस्केप काग़ज़ केवल एक ओर उपयोग में आता है, बाक़ी का व्यर्थ होता है।
. . . काग़ज़ का ऐसा दुरुपयोग होते देख मेरा हृदय ख़ून के आँसू रोता है। मेरे पागलपन का तो आलम यह है कि कहीं एक टुकड़ा भी कोरा काग़़ज़ बर्बाद होते देखती हूँ तो उसे उठाकर चाहे प्रभु का नाम ही लिखूँ, लिख देती हूँँ, काग़ज़ व्यर्थ तो नहीं गया ना!!
कबीर ने हरि के गुणों का बखान करने के लिए पृथ्वी को काग़ज़ बनाने की कल्पना की,
“धरती सम काग़ज़ करूँ, लेखनि सब बन राय।
सात समुद्र की मसि करूँ, हरि गुण लिख्यौ न जाए॥”
और अब हम सब इस युग के मानव उसी धरती पर उगे वृक्षों को काटकर, धरती को क्षत-विक्षत कर, उसकी की साँसें घोंट देने लायक़ कचरा बना कर, इसकी की हत्या ही तो करने पर तुले हैं।
हे हरि हमें सद्बुद्धि दो!!
4 टिप्पणियाँ
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Excellent contribution on use of paper in daily life of individuals with change of time and its impact on environment.
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अत्यन्त रोचक एवं सुन्दर शैली
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अच्छा लेख, बचपन के दिन याद आ गये। रही बात बदलाव की, वह शाश्वत है। मानव स्वभाव है कि नये को हानिकारक और पुराने के गुण गये जाते हैं। परिवर्तन होते रहेंगे, समय का पहिया उल्टा घूमता नहीं, एक चक्र पूरा कर के ही उस स्थान पर पहुँच सकता है। अपनी जिन्दगी समाप्ति की ओर है, आगे की पीढ़ी अपनी जिम्मेदारियों से कैसे निबटती है, उसे देखना होगा।
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विगत को वर्त्तमान के पृष्ठ पर सूंदर आत्मीयता भरी स्मृतियो के साथ पारिवारिक भावनाओं से अवगत कराने के लिए धन्यवाद एवं बधाई। कागज के निर्माण में आवश्यक कागज की खपत विकास योजनाओं में आड़े आने वाले वृक्षों से पूर्ति होती है। यह तो बताया जाता है, लेकिन अच्च आवृत्ति के रेडियो तरंगों के क्षरण से जीवन और जीव के प्रजनन क्षमता, ह्दय की कार्यप्रणाली किस प्रकार कु प्रभावित हो रही है इंटरनेट का विकिरण जनित बीमारियों की जानकारी अभी पूरी तरह से वैज्ञानिकों को हो ही नहीं पायी है जब हो जायेगी तो पुनः प्रिंट मीडिया की वकालत होने लगेगी। दूसरा हमारा राष्ट्र अभी पूर्ण साक्षरता को ही नहीं पा सका । कम्प्यूटर का ज्ञान तो बहुत दूर की बात है। हम कभी कम्प्यूटर और कागज के संधि काल में है, इस मामले में द्वेतवाद या मिश्रित व्यवस्था चल रही है कम्प्यूटर डाटा और प्रिंट आऊट दोनों को चलाया जा रहा है सरकार द्वारा। कोई भी लाईसेंस का आवेदन आनलाइन करके समस्त प्रपत्र अपलोड कर समस्त के प्रिंट आऊट हार्ड कापी सम्बंधित कार्यालय को जाकर जमा करो तब कहीं आवेदन की प्रक्रिया पूरी मानी जाती है। पहले केवल प्रिंट था आब कम्प्यूटर भी है। संभवहो विदेशी कम्पनियों की यहाँ भी कोई चाल हो
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