विनीता और दैत्य
सरोजिनी पाण्डेय
मूल कहानी: बेलिन्डा ई इल् मॉन्सट्रो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (बेलिन्डा एन्ड द मॉन्सटर); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स;
हिन्दी में अनुवाद: ‘विनीता और दैत्य’, सरोजिनी पाण्डेय
समुद्र के किनारे बसे एक बड़े नगर लखनौर में एक धनी व्यापारी रहता था। उसकी तीन बेटियाँ थी, अस्मिता करिश्मा और विनीता। व्यापारी धनवान था, इसलिए अपनी बेटियों का लालन-पालन बड़े ऐश्वर्य में हो रहा था तीनों बेटियाँ स्वस्थ और सुंदर थी लेकिन सबसे छोटी स्वस्थ, सुंदर होने के साथ बहुत विनम्र सुशील और मृदुभाषी भी थी, इसीलिए उसका नाम माता-पिता ने रखा विनीता, जबकि दोनों बड़ी बहनें अत्यधिक ऐश्वर्य के कारण घमंडी, ज़िद्दी और ईर्ष्यालु थीं।
जब बेटियाँ बड़ी हुईं तो शहर के धनी व्यापारी परिवारों से उनके लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे। अस्मिता और करिश्मा हर रिश्ते को ठुकरा देतीं और कहतीं, “हम तो किसी व्यापारी के घर में शादी नहीं करेंगे।” विनीता के पास जब भी कोई विवाह का प्रस्ताव आता वह बड़ी विनम्रता से कह देती, “मैं अभी विवाह के लिए तैयार नहीं हूँ क्योंकि मैं अभी बहुत छोटी हूँ। थोड़ा और बड़ी हो जाऊँ तब सोचूँगी” जैसा कि अक्सर कहा और। सुना जाता है कि ज़िन्दगी बड़ी अनबूझ है, कब क्या हो जाए कोई जान नहीं सकता। इस धनी व्यापारी का एक बड़ा जहाज़ माल के साथ समुद्र में डूब गया, पलक झपकते ही बेचारा बर्बाद हो गया। अब उसके पास गाँव में बना एक मकान और थोड़ा सी खेती की ज़मीन ही। बच रही थी। गाँव में रहकर खेती करने के सिवा उसके पास और कोई चारा न रह गया था।
इस समय दोनों बड़ी बेटियों पर क्या गुज़र रही थी, यह तो बस भगवान ही जानते होंगे! “पिताजी हम गाँव हरगिज़ नहीं जाएँगे, यहीं शहर में रहेंगे। हमारे लिए तो कई घरों से रिश्ते के पैग़ाम भी आ चुके हैं न!”
लेकिन कहाँ का रिश्ता? कहाँ का पैग़ाम? व्यापारी की दीन दशा में भला उसकी बेटियों का ब्याह हो सकता था। जहाँ से भी पैग़ाम आए थे वह सब चुप्पी साध गए। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कह दिया कि ऐसी घमंडी नकचढ़ी लड़कियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए था। एक और जहाँ अस्मिता और करिश्मा के लिए ऐसी बातें होती थीं वही विनीता के साथ कई युवक अभी भी विवाह करने की आस लगाए बैठे थे। उधर विनीता ऐसे कठिन समय में ब्याह की बात सोच भी नहीं सकती थी।
सभी गाँव में जाकर रहने लगे। वहाँ विनीता ने सारे परिवार की सेवा की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। तड़के उठकर गृहस्थी के। काम करना, खाना बनाना आदि वही करती। दोनों बड़ी बहनें दिन चढ़े तक सोतीं और दिन में भी तिनका तक न तोड़ती थीं, उल्टे विनीता को गाँव की ‘गंवारन’ कहकर ताने भी सुनाती थीं क्योंकि उसने ख़ुशी-ख़ुशी यह ज़िन्दगी अपना ली थी।
एक दिन अचानक व्यापारी को एक चिट्ठी मिली, उसका डूबा मान लिया गया जहाज़ मिल गया है और लखनौर के तट पर पहुँच भी गया है। उस पर कुछ माल भी बचा है। व्यापारी पूरी बात जानने-समझने के लिए लखनौर जाने के लिए तैयार हो गया। दोनों बड़ी बेटियाँ तो जैसे इस समय ख़ुशी से पागल ही हो गईं, अब वे फिर से शहर में अमीरी में रहेंगी। शहर जाते हुए पिता ने बेटियों से पूछा, “मैं लखनौर जा रहा हूँ, जो बचा है वह सँभालने। शहर से तुम्हारे लिए क्या लाऊँ?”
अस्मिता चहक कर बोली, “मुझे हवा जैसे हल्के रंग की पोशाक ला दीजिएगा।” करिश्मा बोली, “मेरे लिए गुलाबी कपड़े लेते आइएगा!”
विनीता शांत रही उसने अपने लिए कुछ नहीं माँगा। जब पिता ने कई बार पूछा तो बोली, “अभी इतना ख़र्च करने का समय नहीं है पिताजी, अगर आप मेरे लिए कुछ लाना ही चाहते हैं तो एक गुलाब का फूल भी लेते आएँगे तो मैं ख़ुश हो जाऊँगी!”उसकी बात सुनकर दोनों बड़ी बहनों ने उसे तिरछी निगाहों से देखा और मुँह बिचका दिया, जिसे विनीता ने अनदेखा ही कर दिया।
पिताजी चले गए।
जब वह अपना माल लेने पहुँचे तो वहाँ उनके लेनदार वहाँ पहले से ही मौजूद थे, उन्होंने जहाज़ पर बचा माल व्यापारी को दिए गए उधर के बदले ले लिया था। बेचारा व्यापारी कुछ ना पा सका। बेटियों को वह निराश नहीं करना चाहता था इसलिए जितने बचे-खुचे पैसे थे, उससे अस्मिता के लिए हवा के जैसे हल्के रंग और करिश्मा के लिए गुलाबी रंग के कपड़े ख़रीद लिए, उसका हाथ ख़ाली हो गया। उसने सोचा विनीता ने तो इतनी मामूली चीज़ माँगी है कि नहीं भी ले जाऊँगा तो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। वह गाँव की ओर लौट चला। चलते-चलते रात हो गई। जब वह जंगल में पहुँचा तो रास्ता भटक गया, मुसीबत और तब बढ़ गई जब वर्षा और आँधी भी आ गई। वह एक पेड़ के नीचे रुक गया और सोचने लगा कि कुछ ही देर में जंगली भेड़िए अगर जाकर उसका काम तमाम कर देंगे, उनकी आवाज़ें तो उसे सुनाई भी दे रही थीं। वह पेड़ के नीचे खड़ा होकर अपने भविष्य के बारे में सोच रहा था, तभी उसे दूर एक रोशनी दिखाई दी। उसके क़दम उसी ओर बढ़ चले। कुछ दूर चलने पर एक सुंदर हवेली साफ़ दिखाई पड़ने लगी, जिसके अंदर जगमग रोशनी हो रही थी। व्यापारी अंदर चला गया। अंदर अंगीठी में बढ़िया आग जल रही थी लेकिन कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था। व्यापारी बारिश में भीगा था, उसे सर्दी लग रही थी। वह आगके पास बैठकर गर्माहट लेने लगा, साथ-साथ वह किसी के आने की प्रतीक्षा भी कर रहा। इधर-उधर निगाह दौड़ने पर भीउसे कहीं चिरैया का पूत भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। बड़ी देर किसी के आने की राह ही ताकता रहा परन्तु बेकार।
तभी उसे एक जगह मेज़ पर रखा खाना दिखाई दिया। तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों से मेज़ लदी पड़ी थी। वह भूखा था उसने भरपेट भोजन किया। जब शरीर गर्म हो गया और पेट भर गया तो उसे एक कमरे में साफ़-सुथरा बिछौना भी दिखाई पड़ गया। दिन भर की आँधी पानी सहकर व्यापारी थक गया था, वह बिस्तर में घुसा और तुरंत ही नींद में सो गया।
अगले दिन जब व्यापारी की नींद खुली तो उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ, पलंग के पास ही एक तिपाई पर कपड़ों का एक नया जोड़ा रखा था। उसने कपड़े बदले और घर के बाहर निकाला। बाहर सुंदर फुलवारी थी। बग़ीचे के बीचों-बीच गुलाब के फूलों की क्यारी भी थी, जिसमें बहुत सुंदर गुलाब के फूल लगे थे। इन फूलों को देखकर व्यापारी को अपनी सबसे छोटी बिटिया की याद आ गई जिसकी फूल लाने की इच्छा वह पूरी नहीं कर सका था। बस फिर क्या था, वह गुलाब की क्यारी में गया और एक सुंदर फूल तोड़ लिया। जैसे ही व्यापारी ने गुलाब का फूल तोड़ा कि क्यारी के बीचों-बीच एक भयंकर दैत्य प्रकट हो गया। वह इतना भयावना था कि कमज़ोर दिलवाला आदमी तो उसे देखते ही मर जाए। वह गरज कर बोला, “मेरी बग़िया का गुलाब चुराने की हिम्मत भला तुमने की कैसे? मैंने तुम्हें आसरा दिया, खाना और कपड़ा दिया तिस पर भी तुमने चोरी की! इस गुलाब की क़ीमत अब तुम्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी।”
डर से काँपता व्यापारी दैत्य के पैरों में गिर गया। उसने भर्राए गले से अपनी पूरी राम कहानी और बेटी की फ़रमाइश दैत्य को सुना दी। पूरी बात सुनने के बाद दैत्य बोला, “अगर तुम्हारे पास सचमुच ऐसी गुणी बेटी है, तो तुम उसे यहाँ ले आओ। वह मेरे साथ रानी की तरह रहेगी, लेकिन अगर तुम उसे लेकर नहीं आए तो मैं तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का पीछा दुनिया के दूसरे छोर तक करूँगा। छोड़ूँगा नहीं।”
व्यापारी को इस बात का भरोसा ही नहीं हो रहा था की दैत्य ने इतनी आसानी से उसे जाने की इजाज़त दे दी है। इतना ही नहीं जाते समय उसे हीरे-मोती-उपहार, जो भी सौदागर ने पसंद किया, सब कुछ उसके साथ भेज दिए जाने के लिए एक संदूक में बंद कर दिया।
व्यापारी जब अपने घर पहुँचा, उसकी दोनों बड़ी बेटियाँ अस्मिता और करिश्मा उससे अपने माँगे उपहार माँगने लगीं, विनीता पिता को सुरक्षित लौट देखकर ही ख़ुश हुई जा रही थी। सौदागर ने अस्मिता और करिश्मा को उनकी मनचाही पोशाकें दे दीं। लेकिन विनीता को गुलाब का फूल देते हुए वह रो पड़ा और सारी कहानी उसे सुना दी। दोनों बड़ी बहनों ने बोलने में तनिक भी देर न लगायी और एक स्वर में दोनों बोल उठीं, “हम तो हमेशा से जानते हैं! यह बेवुक़ूफ़ लड़की और इसका उल्टा दिमाग़! अब भला क्या कोई गुलाब के फूल की भी फ़रमाइश करता है? इसकी बेवुक़ूफ़ी का फल अब हम सबको भोगना पड़ेगा।” सब बातें सुनकर भी विनीता हमेशा की तरह शांत ही रही और धीरे से बोली, “दैत्य ने और किसी को कोई भी नुक़्सान न पहुँचने का वादा किया है न? मैं उसे के पास ज़रूर जाऊँगी। जिससे किसी और पर कभी कोई आँच ना आए।”
इस पर विनीता के पिता ने कहा कि वह अपनी बेटी को कभी भी दैत्य के पास लेकर नहीं जाएगा। बड़ी बहनों ने भी विनीता को पगली कह दिया।
अगले दिन बाप-बेटी तड़के ही उठकर चल पड़े। अब तक दैत्य का भेजा उपहार का बक्सा भी उनके पास पहुँच गया था। पिता ने दोनों बड़ी बेटियों को इस संदूक के बारे में कुछ नहीं बताया और उसे पलंग के नीचे छुपा कर रख दिया।
साँझ होते-होते वे दैत्य के घर पहुँच गए। सारा भवन रोशनी से जगमगा रहा था। वे भीतर चले गए। पहले कमरे में ही व्यंजनों से भरी मेज़ लगी थी। वैसे तो दोनों की भूख मर गई थी, लेकिन फिर भी दोनों ने थोड़ा बहुत खाना चख लिया। जैसे ही खाना ख़त्म हुआ, एक तेज़ गर्जना सुनाई दी और दैत्य प्रकट हो गया। विनीता को मानो साँप सूँघ गया। दैत्य उसकी कल्पना से भी अधिक भयानक और कुरूप था। लेकिन धीरे-धीरे उसने अपने को सँभाल लिया और दैत्य के यह पूछने पर कि क्या वह अपनी इच्छा से यहाँ आई है उसने दृढ़ता से हामी भर दी। यह सुनकर दैत्य प्रसन्न हो गया। वह सौदागर की तरफ़ बढ़ा और उपहार और यात्रा सामग्री से भरा थैला उसे थमा, विदा हो जाने को कहा। साथ ही यह भी हिदायत दी कि आज के बाद इस ओर भूल से भी पैर ना रखें। अब उसके परिवार को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी। दुखी पिता ने भारी मन से बिटिया को गले लगा कर अलविदा कहा और आँसू टपकता अपने घर की ओर चल पड़ा। सौदागर के जाते ही दैत्य ने विनीता से विदा ली।
विनीता ने कपड़े बदले और पलंग पर लेट गई। यह सोचकर कि यहाँ आकर उसने अपने पिता और बहनों को न जाने कितनी बड़ी मुसीबत से बचा लिया है, वह संतुष्टष और शान्त मन से नींद के आग़ोश में चली गयी।
अगली सुबह हुई वह तारो-ताज़ा और हिम्मत से भरपूर जागी अब उसने पूरी हवेली को देखने की बात सूझी। जिस कमरे में वह सो रही थी उसके बाहर लिखा था ‘विनीता का कक्ष’ कपड़ों की अलमारी के दरवाज़े पर भी विनीता की अलमारी तो लिखा ही था हर पोशाक पर बड़ी सुंदरता से उसका नाम विनीता उकेरा भी गया था हर ओर सुंदर झंडियों पर लिखा था:
“रानी, आपकी हर एक इच्छा पर
हमारी जान है सदा निछावर!”
रात को जब विनीता खाना खाने बैठी तब फिर वही गर्जना सुनाई दी और उसके साथ ही दैत्य भी अंदर आ गया।
“क्या मैं तुम्हारे साथ बैठ सकता हूँ?” उसने पूछा।
विनीता ने अपने स्वाभाविक शांत स्वर में कहा, “आप तो मालिक हैं।”
“नहीं,” दैत्य बोला, “तुम यहाँ की स्वामिनी हो। यह हवेली और जो कुछ भी यहाँ है, सब तुम्हारा है।” कुछ देर चुपचाप रहने के बाद वह फिर बोला, “क्या मैं सचमुच बहुत अधिक भयावना हूँ?”
विनीत बोली, “कुरूप तो आप हैं, लेकिन आपकी हृदय की करुणा और दया आपको सुंदर जैसा बना रही है।”
और फिर अचानक ही वह दैत्य पूछ बैठा, “विनीता क्या तुम मुझसे शादी कर लोगी?” विनीता सर से पैर तक झनझना उठी, उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। सीधे-सीधे मना करने पर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? वह उसके परिवार के साथ क्या व्यवहार करेगा? फिर भी उसने हिम्मत न हारी, कुछ दृढ़ स्वर में बोली, “सच यह है कि आपसे विवाह करने की इच्छा मेरी नहीं है।”
इस पर दैत्य ने कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। विनीता से विदा लेकर लंबी साँस भरता हुआ चला गया।
इसी तरह तीन महीने बीत गए। दैत्य रोज़-रोज़ आता विनीता से विवाह के लिए पूछता और उसाँस लेता हुआ वापस चला जाता। विनीता को भी इस सब की आदत हो गई। अब तो हाल यह था कि यदि किसी शाम को दैत्य न आए तो शायद विनीता भी बेचैन हो जाए। दैत्य के आने पर दोनों साथ-साथ बग़िया में टहलते और पेड़ पौधों को देखकर ख़ुश होते। दैत्य उसे पेड़-पौधों के गुण-दोष और जादुई करामातों के बारे में बताता। बग़ीचे में एक पेड़ घनी पत्तियों वाला था, इसका नाम दैत्य ने “रुलाई-हँसाई” का पेड़ कहकर विनीता को दिखाया। उसने यह भी बताया कि जब इस पेड़ की पत्तियाँ ऊपर की ओर सीधी खड़ी हों तो इसका मतलब है कि तुम्हारे परिवार में ख़ुशी है, अगर लटकी हुई हों तो परिवार में दुख है।
एक दिन बग़ीचे में घूमते हुए विनीता ने देखा कि उसे ‘रुलाई-ँसाई’ के वृक्ष की सारी पत्तियाँ सीधी खड़ी है। उसने दैत्य से पूछा, “यह आज इतना ख़ुश क्यों है?”
“तुम्हारी बहन अस्मिता की शादी होने वाली है।”
“क्या मैं भी शादी में शरीक होने जा सकती हूँ?”
“बिल्कुल जा सकती हो!” दैत्य ने जवाब दिया, “बस इतना ध्यान रखना कि एक सप्ताह में लौट आना। अगर ना लौटीं तो मैं मरा हुआ मिलूँगा। यह मेरी अँगूठी ले जाओ अगर इसका नगीना धुँधला होने लगे तो समझ लेना मैं बीमार हूँ और तुरंत वापस लौट आना। हाँ, जो कुछ भी अपने लिए या फिर लोगों को भेंट में देने के लिए ले जाना चाहती हो, सब कुछ तैयार करके आज रात अपने पलंग के पायताने रख लेना!”
विनीता ने बार-बार दैत्य का धन्यवाद किया और गहने, कपड़े, सोने के सिक्के आदि आदि चीज़ें एक बक्से में रखकर बक्सा अपने पलंग के पायताने रख दिया। सब कुछ तैयार कर वह सोने चली गई और ग़ज़ब!
अगली सुबह वह अपने पिता के घर में जागी उसके पास ही वह संदूक भी था जो उसने पिछली रात अपने पायताने रखा था। पिता के घर में उसका बहुत सत्कार हुआ और प्रेम मिला। लेकिन जब उसकी बड़ी बहनों को मालूम हुआ कि विनीत रईस हो गई है और दैत्य भी दयालु और उदार स्वभाव का है तो वे जलन से भभक उठीं। दैत्य द्वारा भेजे गए उपहार से वे धनी तो हुई नहीं थी! इसके उलट अस्मिता तो एक बढ़ई से ही विवाह भी करने जा रही थी। विनीता से द्वेष के कारण थोड़ी देर के लिए पहनने के बहाने उसकी अँगूठी माँगी और कहीं छुपा दी। विनीता अँगूठी का नगीना रोज़ ना देख पाने के कारण बहुत उदास हो गई थी, और कभी-कभार तो रो भी पड़ती थी। जब बहनों ने उसकी अनुनय-विनय नहीं सुनी तब पिता ने उन्हें ख़ूब फटकारा, तब कहीं जाकर अस्मिता-करिश्मा ने अँगूठी वापस दी। जब विनीता को अँगूठी मिली तब उसे उसका नगीना कुछ फीका-सा लगा। वह तुरंत जंगल की हवेली के लिए चल पड़ी।
शाम को दैत्य नहीं आया विनीता। चिंतित हो उठी। उसने सारी हवेली छान मारी। रात को खाने के समय दैत्य आया। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह ठीक नहीं है। उसने विनीता को बताया, “मैं बीमार था। अगर तुम कुछ दिन तुम और न आतीं तो मुझे ज़िन्दा न पाती। क्या तुम मुझे एकदम प्यार नहीं करती?”
“मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। मुझे तुम्हारी चिंता थी,” विनीता ने कहा।
“तो क्या तुम मुझसे शादी करोगी?”
“शादी? नहीं! नहीं!”
दो महीने और बीत गए रुलाई-हँसाई पेड़ की पत्तियाँ फिर एक बार सीधी खड़ी हो गईं क्योंकि अब करिश्मा की शादी होने वाली थी। विनीता बहुमूल्य उपहारों का बक्सा लेकर एक बार फिर अपने पिता के घर चली गई।
इस बार भी दैत्य की अंगूठी उसके पास ही थी। बहनों ने उससे मिलकर ख़ुशी का दिखावा तो किया परन्तु वे उसकी संपन्नता और सुख से जली जा रही थीं। अस्मिता का बढ़ई पति उसे पीटता भी था इसलिए वह और अधिक दुष्ट हो गई थी। विनीत ने अपनी बहनों को बताया कि यहाँ अधिक समय ठहरने के कारण उस पर क्या मुसीबत आ सकती थी इसलिए इस बार वह ज़्यादा दिन नहीं ठहरेगी। लेकिन विनीता से द्वेष रखने वाली बहनों ने इस बार फिर अँगूठी छुपा कर रख दी और जब उसे अँगूठी वापस मिली तो नगीना एकदम धुँधला हो चुका था। विनीता घबराहट में ही अपनी हवेली चली गई।
इस बार दैत्य न तो शाम को, न रात को और न खाना खाने ही आया।
दो दिन बाद जब वह आया तो सूखकर काँटा हो गया था, कमज़ोर आवाज़ में बोला, “मैं तो मर ही जाता अगर तुम्हें और कुछ भी देर होती! अगर फिर कभी ऐसा हुआ तो मेरी मौत तय है!”
कुछ महीने और बीत गए। एक दिन विनीता ने देखा की रुलाई-हँसाई के पेड़ की सारी पत्तियाँ लटक गई थीं, लगता था पेड़ सूख जाएगा। विनीता चिंता में पड़ गई सोचने लगी, क्या अशुभ होने वाला है? पत्तियाँ क्यों मुरझा गई? विनीता आशंका से सिहर उठी।
“तुम्हारे पिता की मृत्यु शैया पर हैं,” दैत्य ने समझाया।
“मुझे वहाँ जाने दो, मैं क़सम खाती हूँ कि समय पर लौट आऊँगी,” विनीता बीमार पिता को देखनी चली गई।
अपनी प्यारी छोटी बेटी को आया देखकर मरणासन्न पिता को मानो संजीवनी मिल गई। उसका स्वास्थ्य सुधरने लगा। विनीता दिन-रात पिता की सेवा में लगी रहती, साथ ही। अँगूठी के नग पर भी उसका ध्यान रहता था।
एक दिन बीमार की सेवा के बाद, हाथ धोते समय उसने अँगूठी उतार कर रख दी। जब कुछ देर बाद उसे अँगूठी की याद आई तो वह ढूँढ़ने लगी, वहाँ अँगूठी ना मिली तो वह अपनी बहनों के पास गई और उनसे अँगूठी लौटाने की चिरौरी करने लगी उन्होंने साफ़ कह दिया कि अँगूठी तो उन्होंने देखी ही नहीं। कई दिन के बाद जब अँगूठी मिल पाई तो उस समय उसका नगीना एक नन्हे बिंदु को छोड़कर पूरा काला पड़ गया था। अब विनीता के तो मानो प्राण ही सूख गए। वह अपने शरीर तक की परवाह किये बिना बेतहाशा दैत्य की हवेली की ओर भागी। हवेली ऐसी उजाड़ और सुनसान पड़ी थी, मानो सालों से उधर कोई आया ही न हो!
उसने चीख-चीखकर कई बार दैत्य को पुकारा लेकिन कोई जवाब न मिला। वह दौड़-दौड़ कर हर जगह दैत्य को खोजने लगी। आख़िर में बग़ीचे में गुलाब की झाड़ी के नीचे दैत्य उसे उखड़ी साँसें भरता पड़ा मिला मानो जीवन की आख़िरी साँसें गिन रहा हो। विनीता उसकी छाती पर कान लगाकर दिल की धड़कन सुनने की कोशिश करने लगी। वह धड़क तो रहा था परन्तु बहुत कमज़ोरी से विनीता उसका हाल देखकर सुबक कर रो पड़ी, “दैत्य राज अगर तुम इस दुनिया में न रहे तो मैं बहुत अकेली हो जाऊँगी। अगर तुम बच जाओ तो मैं अभी तुमसे शादी करने को तैयार हूँ। तुम्हारी जान बचाने और तुम्हें ख़ुश रखने के लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँँ।”
अभी विनीता बोल ही रही थी कि सुनसान पड़ी हवेली रोशनी से नहा उठी, हवा में संगीत लहरियाँ गूँजने लगीं।
विनीता हैरान होकर इधर-उधर ताकने लगी जब उसने मुड़कर फिर गुलाब की झाड़ी की ओर देखा तो दैत्य कहीं दिखाई ना पड़ा लेकिन गुलाब के फूलों के बीच एक सजीला नौजवान योद्धा खड़ा था। उसने झुक कर कहा, “बहुत-बहुत शुक्रिया विनीता, तुमने मुझे श्राप से मुक्ति दिला दी।”
विनीता की तो ज़ुबान मानो तालू से चिपक गई थी किसी तरह वह बोली, “मुझे तो वह दैत्य ही मुझे चाहिए!”
योद्धा विनीता के क़दमों में झुक गया, “मैं ही वह दैत्य हूँँ, अपने रूप के घमंड के कारण मुझे कुरूप होने का श्राप मिला था। उस श्राप से मेरी मुक्ति तभी हो सकती थी जब कोई स्त्री मेरे उसी रूप के साथ मुझसे विवाह करने को तैयार हो जाती। तुमने आज वही कर दिया है!”
अब विनीता ने उसे नौजवान योद्धा की ओर अपने हाथ बढ़ा दिये। दोनों हवेली की ओर चल पड़े। दोनों बड़ी बहनें उन्हें दरवाज़े पर खड़ी मिलीं, वे मूर्तियाँ बन गईं थीं। हवेली के अंदर विनीता के पिता बेटी के स्वागत में बाहें फैलाए खड़े थे।
नौजवान के साथ विनीता का ब्याह हो गया और वे सारा जीवन सुख से एक दूसरे के साथ प्रेम से रहे।
ईश्वर करे सबको अपने जीवन में प्रेम और आदर मिले।
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