सूरज—तब और अब
सरोजिनी पाण्डेय
मेरे बचपन का सूरज
कभी मैदान, कभी खेत—
कभी नदिया के पार से निकलता था,
कभी किसी पर्वत की चोटी पर
धीरे-धीरे चढ़कर
हल्की हल्की थपकियाँ दे,
मुझको जगाता था,
और कभी-कभी तो
दूर तक, क्षितिज में ही रहते हुए
रेलगाड़ी के डिब्बे से मुझको बाहर बुलाता था,
कभी किसी मुँडेर पर चढ़,
किसी आम की अमराई में,
अंम्बियो के बीच से ताक-झाँक कर
मुझको चिढ़ाता था!
कभी यही दंगाई/नटखट सूरज
गर्मी की दुपहरी में
आँगन की ईंटों को तवे-सा तपा कर
मेरे नरम तलवे झुलसा,
मुझको सताता था!!
बारिश के उदे, अँधियारे दिनों में
भीग जाने के डर से यह
बादल में छुप जाता था,
पर मौक़ा पाते ही
रंग और कूची ले
झटपट नभ के फलक पर
कई सतरंगी धनुष,
उकेर जाता था,
क्वार की अलसाई
कुछ हल्की, कुछ बोझिल-सी शामों को
ऊदे-सफ़ेद,
रूई के गालों से हल्के बादलों को,
पीला, गुलाबी, नारंगी रंग जाता था,
सर्दियों की स्वेटर में लिपटी
दोपहरी में
सुखद और खुलती,
प्यारी गर्माहट दे,
मूँगफली-गुड़, सिंघाड़े संग-संग खाने को,
प्यार से इशारे कर,
मुझे आँगन में बुलाता था,
वही मेरा पुराना,
बचपन का साथी सूरज
गाँव से मेरे संग चलकर
महानगर आते-आते
कुछ शांत, कुछ क्लान्त,
कुछ अनमना-सा लगता है,
धुँध, कोहरे, बहुमंज़िला भवन भरे
क्षितिज से,
उदास, थका-सा,
बेमन से निकलता है,
लेता रहता है वह
दिन भर उबासियाँ
गाँव के जैसी ठिठोली
अब कहाँ करता है?
कई बार हम शहरियों के
अत्याचारों से व्यथित हो,
हफ़्तों तक हमसे वह मुँह फेर लेता है!!
सुबह, साँझ, दुपहरी
ढूँढ़ती हैं आँखें उस नटखट बाल-सखा को
मेरे साथ जो कभी
हँसता-खिलखिलाता था,
कभी चिढ़ाता, कभी मुझको दुलाराता था!!
क्या मानी सूरज कभी हमें माफ़ कर पाएगा?
अपनी वे दुआओं-सी
अनमोल नेमतें
क्या वह मेरी आने वाली पीढ़ियों पर भी लुटाएगा?
1 टिप्पणियाँ
-
भाव पूर्ण प्रकृति चित्रण, उत्तम रचना
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