अंतरराष्ट्रीय जल दिवस पर—मेरा मंथन
सरोजिनी पाण्डेय
22 मार्च को प्रति वर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय जल दिवस’ मनाया जाता है। किसी भी दिन को विशेष दिवस के रूप में अंतरराष्ट्रीय मान्यता देने का अर्थ ही है कि उस दिशा-विषय पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
जल पृथ्वी पर जीवन की मूलभूत आवश्यकता है, जल से ही जीवन जन्मा है, यदि जल न होगा तो इस पृथ्वी पर से जीवन ही समाप्त हो जाएगा। जब इस ‘जल दिवस’ पर विचार करने लगी तो अपनी प्राचीन सस्कृति और परंपराओं पर गर्व होने लगा! जिस देश में ऐसी मान्यता हो कि सृष्टि को रचने वाला ईश्वर जल में ही वास करता है, विष्णु शेषनाग की शैय्या पर ‘क्षीर-सागर’ में ही तो शयन करते हैं, उस देश में अंतरराष्ट्रीय जल दिवस मानने से ही जल की महत्ता का ज्ञान हो तो बड़े दुख की बात है।
हमारे देश का सनातनी, जब ईश्वर की शोडषोपचार पूजा करता है, तो प्रभु को पाद्य, आचमन, अर्घ्य, अभिषेक के रूप में जल ही समर्पित करता है, और उस जल का महत्त्व इतना कि हर उद्देश्य से दिए गए जल का एक अलग नाम! प्रभु का सबसे बड़ा प्रसाद ‘चरणामृत’ माना जाता है जो कि जल का ही एक रूप है जो अमृत समान है। जहाँ मृत्यु काल में मुँह में ‘गंगा-जल’ पड़ने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जहाँ गंगा नदी हमारी ‘माँ’ कहलाती है, यमुना के तट पर कृष्ण वंशी बजाते हैं, यमुना का जल शुद्ध करने के लिए कलिय नाग का मद-मर्दन करते हैं, जहाँ हर जलाशय में ‘वरुण देवता’ का निवास है, वहाँ तो जल का संरक्षण और आदर तो जीवन का अंग है। जहाँ प्रातः काल का सबसे पहला आदर्श कर्म ‘स्नान-ध्यान’ हो, वहाँ पर जल के महत्त्व को, उसकी स्चच्छता की सुरक्षा को भुलना मानो अपने अस्तित्व के विनाश की ओर क़दम बढ़ाना ही तो है।
सदियों पहले जिस देश का कवि कह गया:
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानुष, चून!!”
जहाँ मनुष्य की इज़्ज़त-आबरू, व्यसन-मकान, जीवन सभी कुछ पानी पर ही टिका बताया गया है वहाँ फिर से इसी सत्य को पुनः स्थापित करने के लिए ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’ आदि नारों की आवश्यकता पड़ी!
जिस ‘मनु-स्मृति’ के नियम-सिद्धांतों को आज समाज के विघटनकारी तत्वों की भाँति समझा जाता है, उसी पुस्तक में किसी तरह के जलाशय में नग्न-स्नान, मल-मूत्र त्याग, पाप-कर्म बताए गए हैं, यहाँ तक कि नदी या तालाब से कितनी दूरी पर जाकर मल त्याग करना चाहिए इसका भी निर्देश पुस्तक में है क्योंकि उन दिनों शौचालयों की व्यवस्था का प्रचलन न था। मैं जब बालिका थी तब की मुझको याद है कि नदी के किनारे बने नहाने के घाटों पर चेतावनी लिखी रहती थी ‘यहाँ साबुन लगा कर कपड़े धोना मना है’; गंदे नालों को नदियों में डालना तो अकल्पनीय ही है। मैंने तो अपने वरिष्ठजनों को नदी में पैर डालने से पहले उसके जल को सिर पर चढ़ाते देखा है मानो उसमें स्नान कर उसे मैला करने के अपराध की वे क्षमा याचना कर रहे हों और जल जैसे वरदान के लिए प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी।
कबीर ने तो आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता को भी दर्शाने के लिए जल को ही माध्यम बनाया:
“घट में जल और जल में घट है, बाहर भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहिं समाना यह तत कहे गियानी॥
जैसे शरीर में आत्मा रहती है वैसे ही घड़े में पानी भरा है, यदि नदी, सरोवर या कुएँ के अंदर घड़ा डालें तो अंदर और बाहर हर जगह जल है और एक जैसा ही है। यदि ऐसे में घड़ा फूटकर अंदर का जल बाहर के जल में विलीन हो जाए तो जल और जल के बीच कोई अंतर न रहेगा, इसी प्रकार यदि शरीर को त्याग कर आत्मा इस अनंत सृष्टि में विलीन हो तो वह परमात्मा से उसी प्रकार जा मिलती है जैसे कि घड़े का जल जलाशय में! न तो जल में कोई भेद रह जाता है और नहीं आत्मा और परमात्मा में।
ऐसी सांस्कृतिक परंपरा वाले देश में भी यदि हमें जल का महत्त्व तभी मालूम हो कि जब हम अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाएँ तो आप इसे विडंबना के अतिरिक्त और क्या कहेंगे?
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी ‘गिरज’, लेखक का नाम तो नहीं याद है परन्तु कहानी का जो मर्म था वह इतना करुण इतना मार्मिक था कि उसे भूल पाना कठिन है। ‘गिरज’ वह पक्षी है जो रेगिस्तानी इलाक़े में पाया जाता है और शव खाता है। एक स्त्री अपने ससुर जी के साथ वह रेगिस्तान पार कर रही है। प्यास से उसका ससुर मारणासन्न है। दूर-दूर तक कहीं एक बूँद भी पानी नहीं है। गिरज पक्षी वृद्ध ससुर को मृत जान उसके ऊपर मँडरा रहा है। ऐसी स्थिति में वह स्त्री अपने ससुर जी को गिरज के प्राण घाती आक्रमण से बचाने के लिए उसे जीवित रखने के लिए उसके मुँह में अपने मूत्र की बूँदें डाल देती है!
अब भला बताइए कि ऐसी कहानी पढ़ने के बाद यदि बूँद-बूँद भी टपक कर व्यर्थ होते जल के लिए मेरा हृदय रोता है तो क्या यह मेरी मूर्खता कही जाएगी?
जल का प्रदूषण और बरबादी देख-देख कर मेरी आत्मा रुदन करती है! जल के स्रोतों में फेंका गया प्लास्टिक, कूड़े के ढेर में और आबादी के आसपास उड़ती पॉलिथीन की थैलियों के बवंडर, अनाप-शनाप कीटनाशकों और रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग, जल स्रोतों में कारख़ाने के उत्सर्जित पदार्थ का फेंक जाना यह सभी क्रियाएँ यही दिखती हैं कि हम अपनी प्राचीन परंपराओं को भूल चुके हैं।
वृक्षों के कट जाने से नदियाँ सूख रही हैं, जो बची हैं वह गंदगी से इतनी भरी हैं कि उन्हें नदी की संज्ञा देना भी ‘नदी’ शब्द का अपमान लगता है। झीलों, तालाबों को पाट-पाट कर उन पर कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। भावी पीढ़ियाँ कैसे उबरेंगी इस जल संकट से? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या भावी पीढ़ियाँ क्या जी भी सकेंगी यदि यह धरती जल विहीन हो गयी?
जागो पृथ्वी-वासियों, नदियों का, जलाशयों का प्रदूषण रोको, उनका अनुचित शोषण रोको, उन्हें स्वच्छ करो, संरक्षण दो, वर्षा के जल का संग्रहण करो कहीं ऐसा ना हो कि सहस्राब्दियों से सजला-सफला रही हमारी यह ‘वसुंधरा’ हमारे कुकर्मों के फलस्वरूप अपने हृदय में सँजो कर रखी हुई सारी ‘स्नेहिल तरलता’ को अपमान और उपेक्षा की ज्वाला से सुखा दें।
और कबीर दास की यह उलटबांसी:
“कबीर दास की उल्टी बानी
बरसै कंबल भीजै पानी॥”
अक्षरशः सत्य हो जाए, हमारे कुकर्मों का “कंबल” धरती का सारा “पानी” सोख कर मानवता को, जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैंः हाई एंड ड्राई (high and dry) छोड़ दें!
1 टिप्पणियाँ
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सरोजिनी पांडे जी का आलेख जल की महत्ता को प्रतिपादित करता है। आज जल संरक्षण की सबसे अधिक जरूरत है। धरती के भीतर के पानी का अंधाधुंध दोहन कल के लिए समस्या खड़ी कर देगा। जीवनदायिनी नदियां और तालाबों को प्रदूषित करके मानव को सभ्य कैसे कहा जा सकता है। जल से सभ्यताएं बनती हैं और बिगड़ती भी है। सभ्यता को जीवित रखना है तो जल को बचाना पड़ेगा। आपने ईश्वर के जलाभिषेक, जीवन,मृत्यु आदि के द्वारा जल के महत्व को सिद्ध कर दिया। है भी, क्योंकि जल ही जीवन है। आपका यह लेख जल संरक्षण को बढ़ावा देने वाला है। आज इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। अगर आज ध्यान नहीं दिया गया तो कल दुष्परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।
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