सुनहरी गेंद

15-07-2022

सुनहरी गेंद

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: इल गोबिनो शे पिश्चिया; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (दि गोल्डेन बॉल); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, एक और इतालवी लोककथा का अनुवाद आपके लिए लेकर प्रस्तुत हूँ। पीसा क्षेत्र की इस कथा में आप पाएँगे कि पाताल की कल्पना केवल भारत देश की ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य देशों में भी है। साथ ही अमीर–ग़रीब का भेद भी सार्वभौमिक और सर्वकालिक मालूम पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो पात्रों का चरित्र कैसे विकसित होता? कथाएँ कैसे बनतीं? तो लीजिए रसास्वादन कीजिए, इस लोक कथा का:

 

एक समय की बात है, एक राजा था उसकी तीन बेटियाँ थी। संजोग कुछ ऐसा हुआ कि सबसे बड़ी बेटी को महल के रसोइए से प्रेम हो गया। अब समस्या यह आई कि विवाह के लिए रसोइया राजा के सामने प्रस्ताव कैसे ले जाए? ऐसा करने पर जान का ख़तरा था। बहुत सोच-विचार के बाद रसोइए ने एक उपाय सोचा। वह राजा के मुँह लगे, प्रिय मंत्री के पास गया और सारी स्थिति उन्हें बतायी। 

“क्या तुम पागल हो गए हो?” मंत्री जी ने समझाया, “तुम्हारी इतनी हिम्मत हुई कैसे? कहाँ राजा की पुत्री और कहाँ तुम अदने से रसोइए! अगर महाराज को मालूम हो गया तो तुम्हारी जान भगवान ही बचाएँ।” 

रसोइए ने कहा, “मैं इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ, इसीलिए आपके पास आया हूँ। आप राजा साहब के प्रिय हैं, केवल आप ही उन्हें इस ख़बर को सुनने के लिए तैयार कर सकते हैं।” 

“तब तो हम दोनों को भगवान ही बचा पाएँगे,” मंत्री जी ने अपना माथा पीट लिया और गहरी साँस भरकर बोले, “मैं सपने में भी यह ख़बर उन्हें देने की नहीं सोच सकता। इस अपराध की सज़ा तुम्हारे साथ मुझे भी ज़रूर मिलेगी . . . ” 

लेकिन रसोइया भी अपनी धुन का पक्का था, आए दिन मंत्री जी के पास जाकर अपनी फ़रियाद सुनाता रहता। मंत्री भी जब ऊब गए तो अपना पीछा छुड़ाने के लिए कह बैठे, “ठीक है, मैं मालिक से बात करूँगा पर तुम यह उम्मीद ना रखना कि तुम्हारा प्रस्ताव राजा मान लेंगे।”

एक दिन जब राजा बहुत ख़ुश लग रहे थे तो हिम्मत करके मंत्री बोले, “महाराज यदि जान की अमान पाऊँ, तो मैं आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करना चाहता हूँ।” 

उस दिन राजा का मन बहुत ही प्रसन्न था, बोले, “जो कहना है कहो, डरो मत, बेख़ौफ़ रहो!” अब मंत्री ने रसोइए और राजकुमारी की सारी कहानी राजा को सुना दी। राजा जी का चेहरा फक् पड़ गया, “तुम्हारी इतनी हिम्मत हुई कैसे? सिपाहियो, कोई है? पकड़ो इसे!” और तुरन्त, सिपाही मंत्री को पकड़कर ले चले, लेकिन तभी राजा को अपने दिए गए वचन की याद आई जो उन्होंने मंत्री को दिए थे। मंत्री को तो उन्होंने छुड़वा दिया, परन्तु अपनी तीनों बेटियों को पकड़वा कर क़ैद में डालवा दिया। उनको सभी राजसी सुखों से वंचित कर दिया गया। केवल जीवित रहने के लिए दाल-रोटी देने का आदेश हुआ। 

समय अपनी गति से बीतता रहा। जब राजकुमारियों को क़ैद में रहते हुए छह महीने हो गए, तो पिता का मन पिघला। 

एक दिन उन्होंने चारों ओर से बंद एक सुरक्षित गाड़ी में, उन्हें बिठाकर सेवकों की सुरक्षा के बीच, राजमार्ग पर ताज़ी हवा खाने के लिए भेज दिया। अभी गाड़ी आधे रास्ते ही पहुँची थी कि घने कोहरे ने रास्ते और गाड़ी को ढक लिया। कोहरे के बादल से एक मायावी निकला, उसने गाड़ी का दरवाज़ा खोला, तीनों राजकुमारियों को बाहर निकाला और उन्हें ले उड़ा। जब कोहरा छँटा तो रक्षकों ने गाड़ी को ख़ाली पाया। लाख ढूँढ़ने पर भी राजकन्याओं का अता-पता नहीं मिला। वे हाथ मलते रह गए, और आख़िरकार सिर झुकाए राजमहल लौट आए। राजा जी से जब कुछ ना बन पड़ा तो उन्होंने मुनादी करवा दी कि जो योद्धा तीनों राजकुमारियों को खोज लाएगा उसे अपनी चुनी हुई एक राजकुमारी से विवाह करने का पुरस्कार मिलेगा। 

इधर रसोइया अपने दुस्साहस के कारण राजमहल से तत्काल निकाल दिया गया था। वह अपने दो मित्रों के साथ दुनिया की सैर के लिए निकल पड़ा। एक दिन जंगल में चलते-चलते जब वे तीनों थक गए थे, तब उन्हें एक मकान दिखाई पड़ा जो रोशनी से जगमगा रहा था। तीनों मित्रों ने द्वार खटखटाया, द्वार अपने आप ही खुल गया। वे अंदर चले गए, सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर तक पँहुच गए पर उन्हें कोई भी दिखाई नहीं पड़ा, लेकिन वहाँ एक अजूबा भी दिखाई दिया कि तीन लोगों के लिए भोजन परोसा हुआ रखा था। फिर क्या था, तीनों भूखे मित्रों ने खाना खा लिया। उन्हें तीन कमरों में बिछे तीन बिस्तर भी मिले। रात बिताने के लिए कोई और जगह तो थी नहीं, सो वे तीनों वहीं सो भी गए। 

अगले दिन सुबह जब वे जागे तो उन्हें अपने सिरहाने एक-एक बंदूक रखी मिली। रसोई में भोजन बनाने का सारा सामान तो था, पर उसे पकाना बाक़ी था। मित्रों ने तय किया कि दो लोग तो शिकार करने चले जाएँ और एक रुक कर खाना बनाए। रसोइया भोजन बनाने के लिए रुकना नहीं चाहता था, वह तो इस काम से ऊबा हुआ था! तो वह और उसका एक साथी शिकार पर चले गए। जो दोस्त खाना बनाने के लिए रुका वह चूल्हे में आग जलाने के लिए गया। जब वह चूल्हे में लकड़ी रखने लगा तो चूल्हे में से एक सुनहरी गेंद निकली और उछलकर उसके पैरों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगी। उस बेचारे ने बड़ी कोशिश की परन्तु सुनहरी गेंद की उछल-कूद से बच न सका। उसने ठोकर मार कर, उछाल कर, फेंक कर, हर तरह से कोशिश की, पर गेंद उसका पीछा नहीं छोड़ रही। जितनी तेज़ी से वह गेंद को दूर हटाता, उससे दुगनी तेज़ी से वापस आकर वह उसके पैरों के इर्द-गिर्द घूमने लगती। आख़िर में युवक ने सारी ताक़त लगाकर जब गेंद को फेंका तो वह फट गई और उसमें से घुटने से भी कम ऊँचाई का एक कुबड़ा बौना निकल आया। कुबड़े बौने के हाथ में एक सोंटा था। बौने ने अपने सोंटे से पीट-पीटकर बेचारे दोस्त की टाँगों को बुरी तरह घायल कर दिया। दोस्त जब दर्द से छटपटाने लगा तो कुबड़ा बौना फिर से सुनहरी गेंद में घुस गया और चूल्हे की चिमनी में घुसकर ग़ायब हो गया। दोस्त बेचारा अधमरा-सा हो गया था। किसी तरह घुटनों के बल रेंग कर अपने बिस्तर तक पहुँचा, उस समय वह खाना बनाने की बात सोच तक नहीं सकता था, खाना बनाना तो दूर की बात! उसे शिकार पर गए अपने मित्रों से जलन हो रही थी। वह सोच रहा था कि मैं मार खा रहा हूँ और वे मस्ती कर रहे हैं। कुछ समय बाद जब शिकार पर गए उसके साथी वापस आए तो देखा कि भोजन का तो कुछ अता-पता नहीं है और उनका मित्र बिस्तर में पड़ा है। तब घायल दोस्त ने असल माजरा न बता कर कहा, “यहाँ की लकड़ियाँ इतनी सीली हुई हैं कि जलीं ही नहीं, मैं खाना भी न पका सका और धुएँ से दम घुटने के कारण मुझे चक्कर आ रहे हैं।” 

अगले दिन सुबह घायल की हालत में सुधार हो गया। इस बार वह रसोइए के साथ शिकार करने निकला और तीसरा दोस्त खाना बनाने के लिए घर में रुका। वह भी जब चूल्हा जलाने गया तो फिर चिमनी में से चूल्हे में, और फिर उछल कर सुनहरी गेंद बाहर निकल आई और उसके पैरों के गिर्द घेरा बनाकर उछलने लगी। इसने भी ठोकरें मार-मार कर उसे दूर करना चाहा लेकिन गेंद कल की तरह ही उछली, घूमी और फिर फटी! कुबड़ा बौना निकला और सोंटे से मार-मार कर इसके भी पैरों को घायल कर दिया। शिकार पर गए मित्र जब लौटे तो इसने भी कल वाली कथा ही दोहरा दी, “लकड़ियाँ बहुत सीली थीं, जलीं नहीं, धुँए से मुझे चक्कर आ रहे हैं और उल्टियाँ भी!”

अगले दिन रसोइए ने कहा, “बात कुछ समझ में नहीं आ रही है। आज मैं रुकूँगा और देखूँगा कि लकड़ियाँ कैसे नहीं जलतीं।” भुक्तभोगी मित्रों ने कहा, “ठीक है तुम घर में रुकना और देखना, तुम्हें भी ज़रूर चक्कर आएँगे।” 

अगले दिन रसोइया घर में रुका। जब चूल्हा जलाने लगा तो सोने की गेंद उसके पैरों के पास भी चक्कर लगाने लगी। वह आगे-पीछे चलकर गेंद से बचने की कोशिश करने लगा, पर गेंद हमेशा साथ लगी ही रही। वह एक चौकी पर चढ़ गया, गेंद भी उछलकर चौकी पर आ गई। वह मेज़ पर चढ़ गया और गेंद भी उछलकर मेज़ पर आ गई। अब उसने चौकी को मेज़ पर रखा और उस पर चढ़कर पकाने के लिए शिकार कर के लायी गई एक मुर्गी के पंख साफ़ करने लगा। गेंद मेज़ पर रखी चौकी के आसपास उछल-कूद करती रही। कुछ देर में उछल-कूद कर के गेंद थक गई। अब वह खुली और उसमें से कुबड़ा बौना निकला। ”नौजवान,” उसने कहा, “तुम मुझे अच्छे लगे, तुम्हारे दोस्तों ने मुझे मारा तो मैंने भी उन्हें मारा। तुमने मुझे नहीं मारा है तो मैं तुम्हारी मदद करूँगा।” 

“बहुत बढ़िया,” रसोइया बोला, “तुम खाना बनाने में मेरी मदद करो। तुम्हारी वजह से मेरा बहुत समय बर्बाद हुआ है इसलिए अब तुम चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी ले कर आओ, जब मैं लकड़ी को काटूँ तब उस तुम उसको सँभालने के लिए पकड़े रहना।” कुबड़ा बौना लकड़ी का एक कुंदा पकड़ कर खड़ा हो गया। रसोइए ने कुल्हाड़ी उठाई और कुंदे के बदले बौने के सिर पर दे मारी। उसका सिर धड़ से अलग हो गया। रसोइए ने उसके शरीर के टुकड़े बटोरे और पीछे के कुएँ में डाल आया। मुर्गी पकाई और आराम से मित्रों का इंतज़ार करने लगा। जब मित्र लौटे तो उन्हें पका हुआ खाना देखकर बड़ी हैरानी हुई। 

रसोइया बोला, “मेरे झूठे दोस्तो, तुम्हारी हालत धुँए की वजह से नहीं बल्कि कुबड़े के हाथों पिटने से ख़राब हुई थी।” 

“और तुमने मार नहीं खाई?”  दोनों ने अचरज से पूछा। 

“बिल्कुल नहीं, और पूछो भला क्या? मैंने कुबड़े बौने का सिर काट दिया है और उसे कुएँ में फेंक आया हूँ।” 

“हमें तो भरोसा ही नहीं होता!” दोनों बोले। 

“अगर तुम्हें भरोसा नहीं है तो पिछवाड़े के कुएँ पर चलो, मैं उसे निकालकर तुम्हें दिखाऊँगा।” 

रसोइए की कमर में एक रस्सी बाँधकर उसे कुएँ में उतारा गया। आधे रास्ते में ही कुएँ की दीवार में एक बड़ी सी खिड़की से रोशनी आती हुई उसने देखी, जब भीतर झाँक कर देखा तो तीनों राजकुमारियाँ एक कमरे में बंद दिखीं और वे कशीदाकारी करने में लगी हुई थीं। ख़ुशी के मारे रसोइए का जो हाल हुआ उसकी कल्पना आप कर ही सकते हैं! अभी वह ख़ुशी से झूम ही रहा था कि एक राजकन्या बोली, “अभी तुम जान बचाकर यहाँ से भाग जाओ, मायावी के आने का समय हो रहा है। रात में जब वह सो जाएगा, उस समय तुम आना और हमें छुड़ाकर ले चलना।” मन ही मन ख़ुश होता रसोइया कुएँ की तली तक पहुँचा और कुबड़े बौने की लाश अपने दोस्तों को दिखाने के लिए उठा ली। 

जब रात गहरा गई तब रसोइए के दोस्तों ने उसे राजकुमारियों को आज़ाद कराने के लिए कुएँ में उतारा। वह अपने साथ एक कटार लेकर कुएँ में उतरा। जब बड़ी खिड़की से वह भीतर घुसा तो देखा कि मायावी आराम से बिस्तर में सो रहा है और तीनों राजपुत्रियाँ उसे पंखा झल रही हैं। वे जैसे ही पंखा झलना रोकतीं, मायावी जाग सकता था। रसोइए ने प्रस्ताव सुझाया, “मैं इसे तलवार से पंखा झलूँगा!” और तलवार के एक ही झटके से उसने मायावी का सिर धड़ से अलग कर दिया, सिर सीधा जाकर कुएँ की तलहटी में गिरा। 

राजा की बेटियों ने जल्दी-जल्दी दराजें खोलीं जो हीरे, मोतियों से भरी थीं। रसोइए ने थैलियों में हीरे, मोती, पन्ने, और लाल आदि भरे। उन्हें रस्सी से बाँध दिया। ऊपर बैठे दोस्तों ने उन्हें खींच लिया। इसी तरह एक-एक करके राजकुमारियाँ भी ऊपर भेजी गईं। ऊपर जाते हुए हर राजकुमारी ने रसोइए को एक उपहार दिया, पहली राजपुत्री ने अखरोट दिया, दूसरी ने एक बादाम दिया और तीसरी ने, जो उसकी प्रेमिका भी थी उसने एक मूँगफली दी और साथ में एक चुंबन भी!! 

सबसे अंत में रसोइए के ऊपर जाने की बारी आई। उसे अब तक अपने साथियों पर कोई भरोसा नहीं रह गया था क्योंकि उन्होंने उसे कुबड़े बौने के बारे में कुछ नहीं बताया था। इसलिए उसने रस्सी अपनी कमर में बाँधने के बदले मायावी के धड़ से बाँधी दी। थोड़ी देर तक तो मायावी की लाश ऊपर जाती रही पर फिर अचानक कुएँ में जा गिरी। रसोइए का शक सही निकला पर उसकी जान बच गई। 

बाहर के दोनों दोस्तों ने तय कर लिया था कि वे राजकन्याओं को महल में यह कहकर पहुँचा देंगे कि उन्होंने ही उनकी खोज की है। 

जब राजा की बेटियों ने देखा कि इन दोनों ने रस्सी ऊपर खींचनी बंद कर दी है, तो वे चीखने लगीं, “तुम ऐसा नहीं कर सकते! जिसने हमें बचाया है, उसके साथ धोखा मत करो!”

दोनों दग़ाबाज़ दोस्तों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी, “अगर तुम ज़िन्दा रहना चाहती हो, तो हम जैसा कहें वही करो! अच्छी लड़कियों की तरह महल चलो और जो हम कहने को कहें वही बोलो, नहीं तो तुम तीनों की जान की भी खै़र नहीं!”

 . . . महल पहुँचकर जब राजा ने इन दो युवकों के साथ अपनी बेटियों को देखा तो उन्होंने यही समझा कि इन दोनों ने ही राजकुमारियों की रक्षा की हैः महल में उनका आदर सम्मान होने लगा। सभी राजसी सुखों के साथ दोनों महल में रहने लगे। अपने वादे के अनुसार राजा ने दो राजकुमारियों की शादी इन दोनों से करने की तैयारी शुरू कर दी। 

परन्तु राजकुमारियाँ तो सच्चाई जानती थीं! वे रोज़ शादी न करने के नए बहाने खोजती रहती थीं। बेचारियाँ रसोइए के लौट आने की राह देखा करती थीं। 

उधर कुएँ के अंदर छोड़ दिया गया रसोइया, पहले तो कुछ दिन रोता-कलपता रहा। एक दिन सहसा उसे राजा की तीनों बेटियों द्वारा दिए गए मेवों की याद आई। सबसे पहले उसने अखरोट तोड़ा, उसमें से सुंदर चमकीले राजसी वस्त्र निकले। जब उसने बादाम तोड़ा तो एक सुंदर गाड़ी निकली जिसमें छह घोड़े जुते हुए थे और जब मूँगफली तोड़ी तो सैनिकों की एक सेना ही बाहर निकल पड़ी। फिर क्या था, राजकुमार की तरह सज कर, छह घोड़ों वाली बग्गी में सवारी करके, अपनी सेना के साथ वह कुएँ के पाताल लोक से बाहर की दुनिया पर मैं लौट आया। चलते-चलते वह राजधानी भी आ पहुँचा। 

ऐसी शान-शौकत से आने वाले को राजघराने का समझकर राजा ने रसोइए के पास अपने दूत भेजे। उन्होंने बड़ी विनय से पूछा, “आप शान्ति के लिए आए हैं या युद्ध के लिए?” 

रसोइए का उत्तर था, “प्रेम करने वालों के लिए शान्ति के साथ और विश्वासघातियों के साथ युद्ध के लिए आया हूँ।”

जब राजकुमारियों ने यह सब सुना तो वे चहक उठीं, “यही है वह! यही है वह! हमारा रक्षक! हमारा उद्धारक।”

तीनों राजकुमारियाँ अटारी पर चढ़कर दूरबीन लगाकर देखने लगीं कि उनका अनुमान सही है या नहीं। बग्गी में शान की सवारी करते रसोइए को देखकर बड़ी बेटी बोल उठी, “अब मेरा दूल्हा आ गया, लो मेरा दूल्हा आ गया!”

दग़ाबाज़ दोस्तों ने कहा, “यह कोई ढोंगी किसान है। हम जाते हैं और देखते हैं कि वह आख़िर चाहता क्या है?” 

वे दोनों युद्ध के लिए हथियार लेकर मैदान में जा डटे। परन्तु रसोइए की सेना ने उन पर हमला कर दिया और वे वहीं ढेर हो गए। 

अब राजा ने रसोइए का स्वागत अपनी बेटियों के रक्षक और विजेता के रूप में किया। 

“महाराज मैं वही रसोइया हूँ, जिसे आपने महल से निकलवा दिया था।” 

राजा को यह सुनकर इतना धक्का लगा कि उन्होंने राज सिंहासन छोड़ दिया। रसोइए ने अपनी प्रिया से विवाह किया और उसके साथ मिलकर राजकाज सँभाल लिया। 

इस रसोइए जैसा बुद्धि–बल और साहस इस कहानी के हर सुनने वाले को मिले!! जैसे उसके दिन बहुरे वैसे ही सबके बहुरें!!! 

इस बार की कहानी यहीं हुई ख़त्म, 
नयी और लाऊँगी, खाती हूँ क़सम। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
कविता
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में