प्रेत का पायजामा

01-02-2023

प्रेत का पायजामा

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

मूल कहानी: ल् ब्रीचे डेल् डियावोलो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द डेविल्स ब्रीचेज़); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

किसी ज़माने की बात है, एक आदमी की केवल एक संतान थी—एक पुत्र! वह इतना सुंदर और आकर्षक था कि उसे देखते आँखें न भरती थीं, नाम भी रखा गया था—सुदर्शन। 

समय के साथ सुदर्शन युवा हुआ और पिता वृद्ध, बीमार पड़ा तो बेटे को पास बुलाकर बोला, “बेटा सुदर्शन, मेरा अंतिम समय आ गया है, जो कुछ तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ उसे सँभाल कर रखना, सँभल कर रहना और मेहनत करके जीना।” इसके बाद वह चल बसा। 

सुदर्शन ने मेहनत करके जीने और विरासत में मिली सम्पत्ति को सहेज कर रखने के बदले ऐशो-आराम और मौज-मस्ती से जीना शुरू कर दिया। थोड़े ही दिनों में वह निर्धन हो गया। अब जीविका के लिए उसे कुछ करना तो था ही, सो वह राजा के पास गया और कुछ काम-धंधा माँगा। उसका सुंदर रूप और सुगठित आकार देखकर राजा ने तुरंत उसे अपने निजी सहायक के रूप में काम पर रख लिया। रानी ने जिस पल उस आकर्षक युवक को देखा, उसने उसको अपना निजी सेवक बनाने की ज़िद पकड़ ली। स्त्री हठ के आगे राजा को झुकना पड़ा। कुछ ही दिनों में सुदर्शन को समझ में आ गया कि रानी तो उसे अपने प्रेमी के रूप में देखती है। राजा को इस बात की भनक लगे, उससे पहले ही सुदर्शन ने इस्तीफ़ा दे दिया। राजा ने वजह जाननी चाही तो सुदर्शन ने इसे अपना निजी और पारिवारिक मामला कहकर छुट्टी पाई। और भला कहता भी क्या! वह तो शहर ही छोड़ कर चला गया। 

दूसरे देश में जाकर फिर राज दरबार में गया और काम माँगा। यह राजा भी सुदर्शन के आकर्षण से बच न सका और उसे तुरंत काम पर रख लिया। थोड़े दिनों बाद राजा की किशोरी बेटी ने सुदर्शन से अपना प्रणय निवेदन कर दिया। सुदर्शन को यहाँ से भी काम छोड़कर जाना पड़ा। इस बार भी कारण वही बताया, एकदम निजी!! इसके बाद भी कई जगहों पर सुदर्शन ने काम करने की कोशिश की परन्तु हर बार उसका सुंदर, सुडौल, आकर्षक, व्यक्तित्व आड़े आ जाता, कोई न कोई स्त्री उस पर मोहित हो जाती और किसी अनैतिक प्रेम प्रसंग में पड़ने से उचित उसे यही लगता कि नौकरी से त्यागपत्र दे दे। 

बेचारा युवक सुदर्शन अपने मोहक रूप से इतना परेशान हो गया कि एक रात एकांत में बैठकर सोचने लगा कि इस जीवन से तो अच्छा था कि मेरी आत्मा मर जाती, मुझे सही ग़लत का भान न रहता। मुझ में प्रेतात्मा का वास हो जाता। यदि किसी राक्षस की आत्मा का वास मुझ में हो जाता तो इस भटकाव से मुक्ति तो मिल जाती! जब सुदर्शन इस क्षोभ में डूबा था, तभी सहसा उसके पास एक संभ्रांत सा लगने वाला व्यक्ति प्रकट हो गया, उसने सुदर्शन से इस विलाप का कारण पूछा। सुदर्शन ने अपनी सारी राम कहानी उस व्यक्ति को कह सुनाई। संभ्रांत व्यक्ति ने कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो, मैं तुम्हें यह पायजामा दे रहा हूँ, इसको तुम हमेशा पहने रहना, कभी उतारना नहीं! मैं इसे वापस लेने के लिए आज से ठीक सात साल बाद आऊँगा। इस बीच तुम कभी नहाना मत, अपने बाल-दाढ़ी और नाखून भी मत कटवाना। इसके अलावा तुम जो भी चाहो कर सकते हो, तुम्हें कभी दुखी नहीं होना पड़ेगा। मैं सात वर्ष के बाद ठीक आधी रात को तुम से पायजामा वापस लेने उपस्थित हो जाऊँगा।” और तभी रात के बारह बजे का घंटा बजा और वह व्यक्ति ग़ायब हो गया। सुदर्शन ने पायजामा पहन लिया और ज़मीन पर ही सो गया। 

अगली सुबह वह दिन चढे़ तक सुख की नींद सोता रहा। जब जागा तब उसे रात की बात और पाजामे की याद आई वह खड़ा हुआ तो उसे पजामा कुछ भारी-सा लगा, कुछ क़दम चला तो सिक्कों की खनक सुनाई दी, उसने जेब में हाथ डाला वे तो सोने के सिक्कों से भरी थीं? वह जितने ही सिक्के निकालता, जेबों में उतने ही और सिक्के भर जाते। 

अब वह शहर में गया और एक सराय में सबसे अच्छा कमरा लेकर उसमें रहने लगा। दिन भर अपने कमरे में बंद होकर वह पजामे की जेबों से सिक्के निकाल-निकाल कर ढेरियाँ बनाता रहता था। वह सेवा करने वालों को इनाम में सोने के सिक्के देता, जो भी उसके आगे हाथ फैलाता सोने का एक सिक्का पाता। उसके दरवाज़े के बाहर भिखारियों की लंबी क़तारें रहने लगीं, दिन आराम से कटने लगे। 

एक दिन उसने सराय के एक नौकर से पूछा, “क्या यहाँ कोई अच्छा मकान बिकाऊ है?” नौकर ने बताया कि राजा के महल के पास ही एक हवेली बिकाऊ है, लेकिन उसका दाम इतना ज़्यादा है कि कोई उसे ख़रीद ही नहीं पा रहा है। इस पर सुदर्शन ने उससे कहा, “तुम उसका मोलभाव करो, मैं तुम्हें भी तुम्हारी मेहनत का अच्छा इनाम दूँगा!” मोलभाव हुआ और सुदर्शन ने वह हवेली ख़रीद ली। उसकी मरम्मत करवाकर उसको नया-सा कर लिया। घर की अंदर बाहर की सुरक्षा का इंतज़ाम करके उसमें रहने लगा। अब, जब देखो तब वह पायजामे से सिक्के निकाल-निकाल कर इकट्ठा करता रहता, उसके पास और तो कोई काम था नहीं! जैसे-जैसे समय बीत रहा था, उसकी दाढ़ी और बाल बढ़ते जा रहे थे, उसको पहचान पाना कठिन हो रहा था। हाथों के नाखून इतने लंबे हो गए मानो राक्षस के कंघे हों, पैरों के नाखून ऐसे हो गए कि किसी जूते में उसके पैर न समाते। खाल पर गंदगी और मैल की मोटी परत जम गई, हाल ऐसा हो गया कि वह आदमी न लगकर जानवर लगने लगा। अपने पाजामे को साफ़ रखने के लिए वह उन पर आटा या चूना छिड़कता रहता था। 

समय की गति देखिए, कुछ समय बाद उस देश के राजा पर शत्रुओं ने चढ़ाई कर दी। युद्ध करने के लिए धन की ज़रूरत थी, राजा का ख़जाना ख़ाली था। राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाकर सभा की। 

मंत्रियों ने पूछा, “महाराज, सभा किस लिए बुलाई है?” 

राजा ने कहा, “हमारी दशा आगे कुआँ, पीछे खाई की हो गई है! ख़जाना ख़ाली है, ऐसे में युद्ध कैसे जीता जा सकता है? हम मटियामेट हो जाएँगे।” ‌इस पर एक मंत्री ने डरते-डरते कहा, “दीनानाथ, शहर में एक बहुत धनवान आदमी रहता है। सुना है उसके पास बहुत अतुल धन है। यदि उससे कुछ धन माँग लिया जाए तो हम युद्ध कर सकते हैं। बहुत होगा तो वह इंकार कर देगा, इससे बुरा तो वह कुछ कर नहीं सकता, प्राण बचाने के लिए एक बार कोशिश तो करनी ही चाहिए।”

राजा ने प्रधानमंत्री को सुदर्शन के पास उधार माँगने के लिए भेज दिया। 

मंत्री सुदर्शन के पास राजा का निवेदन लेकर गया, हाथ जोड़कर साष्टांग दंडवत करने के बाद उसने अपने आने का कारण बताया। 

सुदर्शन एकाकी जीवन जीते-जीते ऊब गया था, उसने मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहा, “राजा साहब से कहिएगा कि मैं उनकी सेवा करने को तैयार हूँ। लेकिन मेरी एक शर्त है कि वे अपनी तीन बेटियों में से किसी एक बेटी की शादी मुझसे कर दें। मुझे यह भी परवाह नहीं है कि किस बेटी से वे मेरी शादी करते हैं। 

मंत्री ने कहा, “मैं आपका संदेश उन तक पहुँचाता हूँ।”

“मैं तीन दिनों तक राजा के उत्तर की प्रतीक्षा करूँगा, यदि कुछ जवाब ना मिला तो मैं अपने आप को अपने वचन से मुक्त समझूँगा,” सुदर्शन बोला। 

सुदर्शन की शर्त सुनकर मंत्री सन्न रह गया! इस पशु जैसे दिखने वाले मनुष्य के साथ राजा की बेटियों के ब्याह की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती! परन्तु उसे तो संदेश लेकर जाना ही था!! 

जब राजा को धन पाने की शर्त के बारे में पता चला तब वह हताश हो गया, “मेरा भाग्य ही खोटा है, उस जानवर जैसे दिखाई पड़ने वाले पुरुष को देखकर मेरी बेटियाँ क्या कहेंगी? फिर भी मंत्री जी, आपको उस आदमी का एक चित्र तो लाना ही चाहिए था। जिसे देखकर मेरी बेटियाँ अपने को इस झटके के लिए तैयार कर पातीं। शायद किसी बेटी के मन में देश का प्रेम जाग ही जाता!”

“मैं अभी जाकर ले आता हूँ, हुज़ूर!, “मंत्री ने तुरंत कहा। 

जब सुदर्शन ने यह बात सुनी तो उसने तुरंत एक चित्रकार बुलवाया और अपना चित्र बनाने को कहा। चित्र तैयार होते ही राजा के पास भेज दिया गया। 

राजा ने जब इस कुरूप मनुष्य के चित्र को देखा तो दुख और क्षोभ की गहरी खाई में डूब गया। उसके आँसू बह निकले, “मेरी बेटी तो क्या किसी की भी बेटी ऐसे वर को अपना नहीं सकेगी।”

लेकिन राजा ने आस न छोड़ी। उसने अपनी सबसे बड़ी बेटी को बुलवाया और सारा हाल बताया, बेटी एकदम उबल पड़ी है, “यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी? क्या यह आदमी ऐसा लग रहा है कि कोई लड़की इसके साथ शादी करने को तैयार होगी?” 

इतना कहकर बड़ी राजकुमारी पैर पटकती वहाँ से चली गई। राजा टूटे मन से धम्म से कुर्सी पर गिर पड़ा। 

किसी तरह रात बीती। अगले दिन राजा को फिर कुछ हिम्मत आई और उसने अपनी मँझली बेटी को बुलवा भेजा। वह बुरी से बुरी बात के लिए तैयार होकर बैठा था। 

राजा ने मँझली बेटी को चित्र पकड़ाया। जैसे ही उसने चित्र देखा, उसे इस तरह फेंक दिया मानो उसके हाथ में विषैला साँप आ गया हो, “पिताजी, मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि आप अपनी बेटी को एक जानवर के साथ बाँधने को तैयार हो जाएँगे? आज मुझे मालूम हो गया कि आप मुझे कितना प्यार करते हैं!”

बस इतना कह कर वह भी पीठ फेर कर सिसकती हुई वहाँ से चली गई। 

राजा कटे पेड़-सा कुर्सी में गिर गया। वह अपने से ही बड़बड़ाने लगा, “यह तो होना ही था! अब हमारे बचाव का कोई रास्ता नहीं बचा है। जब दोनों बड़ी बेटियों ने ऐसा बर्ताव किया है तो, तीसरी को किस मुँह से यह बात बताऊँ? वह तो सबसे छोटी, सबसे सुंदर और सबसे नासमझ है!” 

बेचारा राजा अपने कमरे में बंद हो गया, राज्य के विनाश के दृश्य उसकी आँखों के सामने तैरने लगे। उसने सेवकों से कह दिया कि उसे अकेला रहने दिया जाए। उसकी भूख प्यास सब ख़त्म हो गई। जब वह खाना खाने नहीं आया तो उसकी बेटियाँ उसे देखने भी ना आईं कि पिता आख़िर क्यों नहीं आए! लेकिन सबसे छोटी बेटी का मन न माना, वह सब की नज़र बचाकर पिता के पास गई और बोली, “पिताजी आप यहाँ निपट अकेले क्यों बैठे हैं? इतनी उदासी किस बात की है? उठिए बाहर निकलिए, नहीं तो मैं भी रो पड़ूँगी!” 

उसने इतनी मान-मनौवल और ज़िद की कि आख़िरकार राजा को उसे सारी बात बतानी ही पड़ी। 

सारा हाल सुनकर सबसे छोटी राजकुमारी कुछ देर सोच कर बोली, “अच्छा तो यह बात आपकी चिंता की वजह है! ज़रा उस चित्र को मैं भी देखूँ तो मुझे भी तो मालूम हो कि आख़िर वह है कैसा?”

राजा ने दराज़ में बंद कर दिए गए चित्र को निकाला और बोले, “शोभा, (राजकुमारी का यही नाम था) लो तुम भी देख लो!”

शोभा ने चित्र को हर कोने से देखा, परखा और विचार किया। फिर पिता से बोली, “पिताजी देखिए ना ज़रा ध्यान से, इन गंदी उजड़ी-सी लटों के नीचे कितना प्रशस्त माथा छिपा है! देखने में इसकी त्वचा गंदी और दागदार ज़रूर लग रही है लेकिन धुलने के बाद यह शायद चमक उठे! अगर यह टेढ़े-मेढ़े नाखून कट जाएँ तो इसकी उँगलियाँ कितनी सुंदर-सुडौल हो जाएँगी! ओह! इसके पैर, इसका कंधा! पिताजी, मैं इससे शादी करने के लिए एकदम तैयार हूँ!” 

राजा को मानो नया जीवन मिल गया। उसने शोभा का माथा चूमते हुए उसे गले से लगा लिया और आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। तुरंत मंत्री के हाथ उस धनाड्य पुरुष के घर संदेशा भिजवाया कि उसकी सबसे छोटी बेटी शादी के लिए राज़ी हो गई है। 

जब यह समाचार सुदर्शन को मिला तो वह तो मानो सातवें आसमान पर उड़ने लगा। 

मंत्री से बोला, “मुझे सब कुछ मंज़ूर है। राजा जी से कहिएगा कि यहाँ जितना भी धन है सब उनका ही है। जितना चाहे मँगवा लें। आप भी अपने लिए एक थैली भर मोहरें ले लीजिए। ‌मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। राजा जी से कहिए कि राजकुमारी के दहेज़ की भी चिंता उन्हें नहीं करनी है।”

मंत्री रुपए लेने लगा तो बोला, “श्रीमान, आप तो मुझे ज़रूरत से ज़्यादा धन दिए जा रहे हैं। मैं तो मोहरे गिन कर ही लूँगा।” 

इस पर सुदर्शन ने बेपरवाही से कहा, “क्या फ़र्क़ पड़ता है, अगर थोड़ा ज़्यादा ही ले लीजिएगा!” अगले दिन से सुदर्शन ने शादी की तैयारियाँ शुरू कर दीं। 

जब शोभा की दोनों बड़ी बहनों ने इस विवाह के तय हो जाने की बात सुनी, तो वे उसे दूल्हे की कुरूपता को लेकर चिढ़ाने और ताने मारने लगीं। शोभा ने अपनी बहनों की ओर से आँखें बंद थी, “कर लेने दो इन्हें अपने मन की,” उसने मन में सोचा। 

इधर सुदर्शन ने शहर के चतुर सुनारों को सुंदर से सुंदर अँगूठियाँ, हार, झुमके, कंगन, बाज़ूबंद और ना जाने क्या-क्या गढ़ने के लिए संदेशा भेज दिया। जब गहने तैयार हो गए तो चार सेवकों के हाथ सुंदर थालों में सजाकर, वे राजकुमारी शोभा के लिए भेज दिए गए। 

राजा तो निहाल हो गया। शोभा घंटों लगाकर उन गहनों को पहन-उतार कर देखती रही। दोनों बड़ी बहनें ईर्ष्या से जल-फुंक रही थीं, बोलीं, “काश! दूल्हा भी इन गहनों जैसा सुंदर होता!”

“जब तक वह बड़े दिलवाला है, तब तक सब अच्छा है!” कहकर शोभा चुप रह गई। 

अब सुदर्शन ने दर्जियों और कसीदाकारों से अपनी होने वाली दुलहन के लिए पोशाकें बनवानीं शुरू कीं। पंद्रह दिनों में सब कुछ तैयार हो जाने की बात भी कही। 

अब धन से भला क्या नहीं हो सकता? पूरा दहेज़ पंद्रह दिनों में तैयार भी हो गया। एक से एक बढ़कर रेशम और मख़मल के, सोने-चाँदी के बारीक़ तारों की सुंदर कशीदाकारी से झिलमिलाते, इंद्रधनुषी रंग के जोड़े तैयार हो गए। शादी के दिन पहले सुदर्शन ने चार नांदों में पानी भरवाया, किसी में ठंडा, किसी में गर्म। सबसे पहले वह गर्म पानी की नांद में बैठा, जिससे सालों से जमी उसके शरीर की मैल फूलकर नरम हो जाए। फिर वह दूसरे टब में बैठा कि रगड़-रगड़ कर मैल उतारा जाए, मैल ऐसे उतरी जैसे बढ़ई के वसूले से उतरती लकड़ी की छीलन हो! वह सात सालों से नहाया जो न था!! 

जब मैल उतर गया, तब वह गुनगुने सुगंधित पानी की नांद में बैठकर साबुन रगड़-रगड़ कर नहाया। सबसे अंत में इत्र मिले पानी से नहा कर एक बार फिर उसकी खाल पहले जैसी ही स्वच्छ, कोमल और चमकदार हो गई। अब नाई बुलाया गया, जिसने बाल-दाढ़ी और शरीर के अन्य अनावश्यक बालों की कटाई छँटाई की। हाथ के और पैरों के बढ़े हुए भद्दे नाखून काटे और अब पहले जैसा सुदर्शन, सुदर्शन शादी के लिए तैयार था। 

शादी के दिन जब सुदर्शन दुलहन को लेने सजी सजाई बग्गी में महल के द्वार पर पहुँचा तो बड़ी दोनों राजकुमारियाँ खिड़की में खड़ी थीं। जब उन्होंने गाड़ी से उतरते सुदर्शन को देखा तो हैरत में पड़ गईं, “यह कामदेव सा सुंदर युवक कौन है? हो ना हो, यह दूल्हे का कोई मित्र है, जो लड़की को ले जाने आया है। दूल्हा बेचारा कौन सा मुँह लेकर सबके सामने आएगा!!”

शोभा ने भी उसे सुदर्शन का कोई साथी ही समझा और बग्गी में बैठकर चल पड़ी। जब वह हवेली के सामने पहुँची तो एक बार पूछ ही बैठी, “और दूल्हा किधर है?” 

अब सुदर्शन ने अपना वही चित्र निकाला जिसे राजकुमारी पहले ही देख चुकी थी। वह बोला, “ज़रा ध्यान से देखो, वही आँखें हैं, वही होंठ हैं। क्या तुम सचमुच मुझे नहीं पहचान रही हो?” 

शोभा तो मानो ख़ुशी से पागल ही होने लगी। अचरज से बोली, “हे ईश्वर यह सब क्या है? तुम ऐसी दशा तक आख़िर पहुँचे कैसे थे?” 

“मुझसे एक शब्द भी और कुछ न पूछना!” सुदर्शन बोला। 

जब शोभा की दोनों बड़ी बहनों को असलियत का पता चला तो वे ईर्ष्या की आग से दहक उठीं। जब तक ब्याह का आयोजन चलता रहा, वे शोभा और सुदर्शन की सुंदर जोड़ी को देख-देखकर आपस में जलन से भरी कानाफूसी करती रहीं। वे इतना तक कह बैठीं कि शोभा की ख़ुशहाल ज़िन्दगी बर्बाद देने के लिए वे अपनी आत्मा प्रेत के भी हवाले करने को तैयार हैं! 

जिस रात शोभा और सुदर्शन की सुहागरात होने वाली थी, वह वही रात थी जब प्रेत सुदर्शन से अपना पायजामा वापस लेने आने वाला था। 

रात के ग्यारह बजते-बजते सभी मेहमान चले गए। जब दूल्हा-दुलहन अपने कमरे में अकेले हुए तब सुदर्शन ने शोभा से कहा, “प्रियतमा, तुम सोने जाओ। मैं कुछ समय बाद आऊँगा।” 

यह बात सुनकर शोभा को अचंभा तो बहुत हुआ कि यह क्या बात हो रही है, पर वह चुप रही और चुपचाप सोने की तैयारी कर बिस्तर में चली गई। 

सुदर्शन ने नौकरों को छुट्टी दे दी। वह एक अकेले कमरे में प्रेत का पायजामा लेकर बैठ गया, अब उसे प्रेत के आने की प्रतीक्षा थी। उसके हाथ-पाँव काँप रहे थे, शरीर का एक-एक रोम खड़ा था, कलेजा मुँह को आ रहा था। 

तभी शहर के गजर ने रात के बारह बजाये। सहसा सारा घर हिल उठा। सुदर्शन ने प्रेत को अपनी ओर आते देखा, उसने गठरी में बँधा पायजामा प्रेत की ओर बढ़ाया, “यह रहा आपका पायजामा, इसे आप ले लीजिए,” सुदर्शन बोला

“मुझे अब तो तुम्हारी आत्मा ले जानी चाहिए,” प्रेत ने कहा। 

सुदर्शन का कलेजा काँप गया, “लेकिन अब तुम्हारे कारण मुझे दूसरी दो आत्माएँ मिल गई हैं,” प्रेत बोला, “मैं उन्हें ही ले जाऊँगा! तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दूँगा,” यह कहकर, प्रेत पायजामा लेकर ग़ायब हो गया। 

अगली सुबह जब सुदर्शन अपनी नई नवेली दुलहन के बग़ल में नींद से जागा तब उसे ख़बर लगी कि राजा साहब स्वयं उससे और अपनी बेटी से मिलने आए हैं। 

उनसे मिलने पर पता लगा कि शोभा की दोनों बड़ी बहनों का महल में कहीं कोई पता नहीं है। 

 सब जगह छान मारी गई है। हाँ, उनके सोने के कमरे से छोटी बहन शोभा के नाम का एक पत्र ज़रूर मिला है। अब जानना यह है कि उस पत्र में क्या लिखा है? हो सकता है कि उस पत्र से उनकी कुछ जानकारी मिल सके। 

शोभा ने पत्र खोला उसमें लिखा था, “तुम नर्क में सड़ो! तुम्हारे ही कारण हमें प्रेत उठा कर ले जा रहा है!” 

और अब सुदर्शन समझ गया कि पिछली रात किन दो आत्माओं को पाने की बात प्रेत ने कही थी . . .

“इस बार की कहानी बस यहीं पर हुई ख़त्म, 
हो सकता है जल्दी ही फिर मिल जाएँ हम”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
कविता
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
वृत्तांत
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
लोक कथा
आप-बीती
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में