एक थी गौरैया

15-05-2023

एक थी गौरैया

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

प्रिय पाठक, 

 पिछले कई अंकों से इतालवी लोक कथाओं के अनुवाद, आपके मनोरंजन के लिए प्रस्तुत करती आ रही हूँ। इस अंक में आपको अपने बचपन में सुनी, शुद्ध भारत भूमि की, लोक कथा सुनाने की कोशिश कर रही हूँ। कथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र की है, जहाँ की लोकभाषा भोजपुरी-अवधी मिश्रित है। शिशुओं को सांसारिक जीवन के सत्यों से परिचित कराने वाली इस लोक कथा में कहानी को सुनाने का माध्यम तो हिंदी-खड़ी बोली ही है, परन्तु गीतों को ज्यों का त्यों लोक भाषा में ही लिखने का प्रयास कर रही हूँ, जिससे कथा की आंचलिकता बनी रहे। हो सकता है आप में से कुछ को अपना बचपन याद आ जाए:

 

एक थी गौरैया, बुद्धिमान चतुर और समझदार। एक दिन उसे चने का एक दाना मिला जो ख़ूब बड़ा-सा था। अब चतुर गौरैया ने सोचा, “इस चने को यूँ ही निगल लूँगी तो कहीं ऐसा ना हो कि यह मेरे गले में ही फँस जाए, अगर चक्की में दल लूँ, तो दो दालें हो जाएँगी, एक दाल आज खा लूँगी, दूसरी कल के लिए बचा लूँगी, जो कभी परदेस में या मुश्किल के दिनों में काम आ जाएगी।” 

तो वह चने का दाना लेकर उड़ी। भाग्य अच्छा था कि एक गृहस्थ के आँगन में उसे चक्की भी दिखाई दे गई। गौरैया धरती पर उतरी, अपना चने का दाना चक्की में डाला और मूॅंठ पकड़कर चक्की चलाई। तुरंत चने की दो दालें अलग हो गईं, एक चक्की के बाहर आई और दूसरी चक्की के भीतर ही फँसी रह गई। अब बेचारी गौरैया क्या करे? चक्की का पत्थर का पाट उठा पाना तो उस छोटी चिड़िया के लिए असंभव था। इधर-उधर चोट मारी तो उसे दिखाई पड़ा कि चक्की के पाट और लकड़ी के खूँटे के बीच में चने की एक दाल फँसी है। फिर क्या था, वह दौड़ी-दौड़ी बढ़ई के पास गई और हाथ जोड़कर बोली, 

“बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीरौ
खूँटा में दाल बाय 
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ” 

बढ़ई ने एक नज़र उठाकर गौरैया को देखा और बोला, “हमैं बहुत काम बा, इहां से भाग जा!” गौरैया ने कुछ देर विचार किया और फिर जा पहुँची राजा के दरबार में। राजा को तो सबके साथ न्याय करना ही चाहिए! वहाँ निवेदन किया: 

“राजा राजा बढ़ई डांड़ौ (दण्ड दो) 
बढ़ई न खूँटा चीरै, 
खूँटवा में दाल बाय
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ!!”

अब राजा साहब को भला छोटी सी गौरैया की फ़रियाद सुनने की फ़ुर्सत कहाँ थी? निराश होकर राजदरबार से निकली तो थोड़ी देर दुख में डूबी रही, फिर उड़ चली रनिवास की ओर। जाकर सीधे रानी साहिबा की गोदी में बैठी और बोली: 

“रानी रानी राजा छोड़ौ
राजा ना बढ़ाई डांड़ौ, 
बढ़ई न खूँटा चीरै
खूँटवा में दाल बाय
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ।”

रानी ने अपने कपड़े समेटे और चिड़िया को उड़ाते हुए बोली, “तू एकदम पगली है, गौरैया अब तेरे कहने से क्या मैं राजा को छोड़ दूँगी? फिर क्या मेरा रानी का रुतबा ना ख़त्म हो जाएगा! जा, जा भाग यहाँ से!”

अब क्या करे छोटी सी गौरैया! मनुष्य की निर्दयता तो उसने देख ली थी? अब रुख़ किया दूसरी ओर, और जा पहुँची एक साँप के पास बोली: 

“साँप साँप रानी डसौ
रानी ना राजा छोडै
राजा न बढ़ई ‌‌ डांड़ै
बढ़ई न खूँटा चीरै
खूँटवा में दाल बाय
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ।”

परन्तु यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। 

लेकिन उसने हिम्मत न हारी, याद आया कि साँप को तो लाठी मार सकती है। वह उड़कर पहुँची बाबा जी की लाठी के पास और बोली: 

“लाठी लाठी साँप मारौ
साँप न रानी डसै
रानी न राजा छोड़ै
राजा न बढ़ई डांड़ै
बढ़ई न खूँटा चीरै, 
खूँटवा में दाल बाय
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ” 

लेकिन लाठी ने भी गौरैया का काम करने से इंकार कर दिया। उसकी मुश्किल यह थी कि साँप को मारने से उसमें ख़ून लग जाएगा और वह गंदी हो जाएगी। अब चिड़िया क्या करे? कुछ देर सोचते-सोचते उसे ध्यान आया कि आग में तो लकड़ी जल जाती है, लाठी भी लकड़ी की है, यदि आग लाठी को जलाने के लिए राज़ी हो जाए तो शायद यह मेरी बात मान ले। वह दौड़ी दौड़ी चली गई भाड़* के पास, और बोली: 

“भाड़, भाड़, लाठी जारौ
लाठी ना साँप मारै
साँप न रानी डसै
रानी न राजा छोड़ै
राजा न बढ़ई डांड़ै
बढ़ई न खूँटा चीरै
खूँटवा में दाल बाय
का खाऊँ, का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ”

भाड़ बोला, “मैं पहले से ही इतना गरम हूँ, काम कर करके थक गया हूँ। अब एक और लाठी जलाने की हिम्मत मुझ में नहीं है।”

चिड़िया परेशान तो बहुत हुई, लेकिन फिर सोचने लगी कि क्या किया जा सकता है? आख़िर में वह नदी के पास गई और नदी के पानी से बोली:
 
“पानी, पानी, भाड़ बुतावौ
भाड़ न लाठी जारै 
लाठी न साँप मारै
साँप न रानी डसै
रानी न राजा छोड़ै
राजा न बढ़ई डांड़ै
बढ़ई न खूँटा चीरै, 
खूँटवा में दाल बाय 
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ”

लेकिन पानी भी अपनी ऐंठ में था। उसने भी चिड़िया की बात मानने से मना कर दिया। चिड़िया उदास होकर बहुत देर तक बैठी रही। फिर एकाएक उसे ख़्याल आया, यदि पानी को डरा पाऊँ तो शायद यह भाड़ बुझाने के लिए तैयार हो जाए। 

वह दौड़ी-दौड़ी हाथी के पास गई और हाथी से अनुनय-विनय करती हुई बोली: 

“हाथी हाथी पानी सोखौ, 
पानी न भाड़ बुतावै, 
भाड़ में लाठी जारै 
लाठी न साँप मारै
साँप न रानी डसै, 
रानी न राजा छोड़ै, 
राजा बढ़ई डांड़ै, 
बढ़ई न खूँटा चीरै, 
खूँटवा में दाल बाय 
का खाऊँ का पिऊँ
का लेके परदेस जाऊँ?” 

पर भला हाथी को भी चिड़िया की क्या परवाह? उसने ज़ोर से एक फूँक मारी और चिड़िया वहाँ से दूर जा गिरी। चिड़िया जहाँ गिरी वहाँ पर बहुत सारी चींटियाँ थीं। अब क्या था, चिड़िया को लगा, वह तो चींटी को डरा सकती है! उसने एक बड़ी सी चींटी देखी और उससे बोली, “तुम चलो और हाथी की सूँड़ में घुस जाओ, जब उसे तकलीफ़ होगी तब उसे दूसरे की तकलीफ़ का पता लगेगा।” लेकिन चींटी आनाकानी करने लगी, अब चिड़िया ने अपनी शक्ति का डर दिखाया, वह बोली, “चुपचाप चलो और हाथी की सूँड़ में घुसो नहीं तो मैं तुम्हें खा जाऊँगी।” 

चींटी डर गई और चल पड़ी हाथी की ओर, और बोली: 

“हमैं खाओ वाओ जनि कोय
हम तो हाथी मारब लोय!”

जब चींटी हाथी की सूँड़ में घुसने लगी तो हाथी डर गया और बोला:

“हमैं मारो वारो मत कोय
 हम तो पानी सोखब लोय”

हाथी चला नदी के पास, पानी को सोखने, जब पानी ने हाथी को आते देखा तो वह डर गया और बोला: 

“हमैं सोखो को मत कोय
 हम तो भाड़ बुताइब लोय।”

पानी नदी का किनारा तोड़कर बह चला भाड़ की ओर। जब भाड़ में देखा कि पानी उसकी ओर आ रहा है, तो वह डर गया और चिड़िया से बोला: 

“हमैं बुताओ उताओ मत कोय
 हम तो लाठी जारब लोय।”

भाड़ में से आग निकल कर लपलपाती हुई चली लाठी की ओर। जब लाठी ने देखा कि उसकी जान नहीं बचेगी तो वह डर गई और हाथ जोड़कर बोली: 

“हमैं जराओ-वराओ मत कोय
 हम तो साँप मारब लोय।”

और लाठी ठक-ठक करती हुई चल पड़ी साँप की ओर। जब साँप ने देखा कि लाठी उसकी ओर आ रही है तो वह डर गया और उसने चिड़िया से कहा: 

“हमैं मारौ वारौ मत कोय 
 हम तो रानी डसब लोय”

और साँप अपना फन उठाकर रानी की ओर चल पड़ा। रानी बेचारी साँप को देखते ही घबरा गई। वह समझ गई कि यह सब चिड़िया की करतूत है। उसने साँप की ओर हाथ जोड़े और चिड़िया की ओर देखकर बोली: 

“हमैं डसौ-वसौ मत कोय 
हम तो राजा छोड़ब लोय।”

रानी जा पहुँची सीधे दरबार में, जब राजा ने देखा कि रानी आ रही है तो डर गया कि कहीं यह मुझे छोड़कर अपने माता-पिता के पास जाने की बात कहने तो नहीं आ रही है? 

उसने रानी का हाथ पकड़ लिया और चिड़िया से बोला: 

“हमैं छोड़ै ओड़ै मत कोय
 हम तो बढ़ई डांड़ब लोय”

अब राजा ने अपने सिपाहियों को हुकुम दिया कि जाकर बढ़ई को पकड़ लाएँ। जब बढ़ई ने देखा कि सिपाही उसकी ओर आ रहे हैं, तो वह डर से काँपने लगा। उसने राजा साहब से कहा कि खूँटा चीरना तो बड़ी छोटी सी बात है, उसके लिए उससे दंड नहीं मिलना चाहिए” 

“हमैं डांड़ौ-वांड़ौ मत कोय
 यह हम तौ खूँटा चीरब लोय।” 

बढ़ई ने अपना बसूला उठाया और चक्की के पास चला गया। उसने खूँटा चीर कर निकाल दिया। चिड़िया की चने की दाल का दाना जो उसमें फँसा था, वह बाहर निकल आया। चिड़िया ने अपना दाना उठाया और फुर्र से दूर देश उड़ गई। 

(*भाड़ बहुत बड़ा चूल्हा होता है जिसमें पत्ते, लकड़ी, सूखी टहनियाँ इत्यादि जलाकर चना, मटर, चावल, मूँगफली, मक्का आदि के दाने गर्म रेत में भूने जाते थे, अब इनकी उपयोगिता समाप्त हो गई है और भाड़ कहीं मिलते नहीं) 

सारांश:

भय बिनु होय न प्रीत! 

डर के आगे भूत भागे! 

नोट: इस कथा का यह रूप मैंने अपने ननिहाल में सुना था, मेरे पितामह जो कहानी सुनाते, उसमें कथा का नायक चूहा होता। आरंभ में थोड़ा सा अंतर है, विस्तार में दोनों कथाएँ एकदम एक जैसी हैं। कथा का आरंभ कुछ इस प्रकार है:

एक चूहा था, जो खेत की मेड़ में बिल बना कर रहता था। एक बार की बात है, एक व्यापारी उड़द की बोरी लेकर एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहा था। जब वह थक गया तो उसने कुछ समय के लिए उड़द की बोरी मेड़ पर रख दी। संयोग से बोरी चूहे के बिल के ऊपर ही थी। चूहे ने बोरी काटकर उड़द के दाने निकाल, अपनी बिल में रख लिए। उन उड़दों को उसने खेत में बो दिया, खेत की मेड़ पर तो वह रहता ही था। न और किसान को काम करते देखता भी था। 

उड़द बोने के बाद अगले दिन उसने जाकर खेत में देखा उड़द उगे नहीं थे। उसे बहुत क्रोध आया उसने कहा “उड़द, उड़द अगर कल तक उगोगे नहीं तो तुम्हें काट-कूट कर काले बैल के आगे फेंक दूँगा।” उड़द बेचारे डर गए और उग आए! इसी तरह प्रतिदिन जाकर वह उड़द के दानों को काले बैल के आगे काट कर डाल देने का भय दिखाता और उड़द डर जाते। 

उगने, पत्ते निकलने, बेल बनने, फिर फूलने और फलने तक की क्रिया कुछ ही दिनों में जब पूरी हो गई, तब चूहे ने भरपेट उड़द के दाने (गुदुरी) खाए। इतने दाने खाए कि वह मोटा हो गया। अब जब वह अपने बिल में घुसने लगा तब उसका सिर तो बिल में घुस गया परन्तु कमर से नीचे का हिस्सा (चूतड़, नितंब) अन्दर न घुसा। तब उसे ख़्याल आया कि वह बढ़ई के बसूले से अपने नितंबों को कुछ पतला करवा ले तो आराम से फिर बिल में घुस सकता है। वह बढ़ई के पास गया, और बोला: 

“बढ़ई बढ़ई चूतर छीलौ
चूतरा न बिल समाय
गुदुरी* बहुत खायौं, 
खाए बिना रहि न जाय, 
पेट फूलै, जिउ जाय।” 

गुदुरी=कच्चे, कोमल दाना

इसके आगे की कथा बिल्कुल चिड़िया की कहानी की तरह है। परन्तु चिड़िया चतुर थी, वह चने का दाना लेकर उड़ गई और चूहा मूर्ख था। उसने अपने चूतड़ों को छिलवा तो लिया लेकिन ख़ून बहने और दर्द के कारण वह मर गया क्योंकि उसने आगा-पीछा नहीं सोचा था, वह मूर्ख जो था। 

फिस्स भए क़िस्सा, किसान गए सोय। 
तउवा पै रोटी परै, तब फिर क़िस्सा होय॥

2 टिप्पणियाँ

  • 10 Aug, 2023 12:33 PM

    yahi kahani bachpan me mujhe meri dadi ne sunayi thi

  • 11 May, 2023 12:15 AM

    Badde na ch...... Chheele

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
कविता
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
वृत्तांत
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
लोक कथा
आप-बीती
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में