विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

कैनेडा का हिंदी साहित्य

कैनेडा का नाम भारत में और विशेष रूप से पंजाब प्रांत में बहुत आत्मीयता से लिया जाता है। ऐसा लगता है कि पंजाब के हर तीसरे घर से कोई न कोई ’कनाडा’ में रहता है या जाने का इंतज़ार कर रहा है। इस तरह कैनेडा अपने में ’छोटा पंजाब और छोटा भारत’ बसाए रखने के लिए प्रसिद्ध है। इस हिसाब से पंजाबी भाषा यहाँ की प्रमुख अप्रवासी भाषाओं में सहज ही सम्मिलित हो जाती है। पिछले वर्षों के आँकड़ों की तुलना करने पर दिखाई देता है कि 2011 से 2016 के बीच हिंदी बोलने वालों की संख्या में 26.0 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि पंजाबी बोलने वालों की 18.2 %, उर्दू बोलने वालों की 25% और गुजराती बोलने वालों की संख्या में 20.9% की बढ़ोत्तरी हुई है। (आँकड़े-साभार-statcan.gc.ca) 

हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या बढ़ने का एक कारण यह भी हो सकता है कि अपनी मातृ भाषा और अँग्रेज़ी के ’अतिरिक्त’ भाषा में लोगों ने हिंदी को रखा हो, जो भी कारण रहा हो पर यह सच है कि यह बढ़ती संख्या, हिन्दी भाषा प्रसार के साथ ही भारतीय संस्कृति और साहित्य के प्रसार का सूचक भी है। कैनेडा में हिंदी भाषा का इतिहास लगभग सौ साल पुराना है और साहित्य की यात्रा लगभग हमें पिछले सत्तर-पचहत्तर वर्षों से ही दिखाई देती है। तकनीकी के बढ़ते युग में यह यात्रा निरंतर समृद्ध और सशक्त हो रही है, इसमें संदेह नहीं है। अनेक ब्लॉग, पत्र-पत्रिकाएँ, प्रकाशन कैनेडा की इस समृद्धि के द्योतक हैं। इसी यात्रा पर हम आपको लिए चल रहे हैं इस विशेषांक में। आइये, पढ़िए और मिलिए यहाँ के वरिष्ठ और नए साहित्यकारों से . . . 
 

कैनेडा के कुछ और रचनाकार

’साहित्यकुंज’ में प्रकाशित कैनेडा के कुछ और लेखक जो आपको विशेषांक में अलग से नहीं दिखे पर कैनेडा के हिंदी साहित्य में उनका भी महत्वपूण योगदान है, उनके साहित्य से निम्नलिखित लिंक पर मिलिए:

  1. स्व. अखिल भंडारी: https://sahityakunj.net/lekhak/akhil-bhandari
  2. डॉ. आशा मिश्रा: https://sahityakunj.net/lekhak/asha-mishra
  3. डॉ. इंदु रायज़ादा: https://sahityakunj.net/lekhak/indu-raizada
  4. इंदु शर्मा: https://sahityakunj.net/lekhak/indu-sharma
  5. डॉ. कनिका वर्मा: https://sahityakunj.net/lekhak/kanika-verma
  6.  डॉ. नरेन्द्र ग्रोवर https://sahityakunj.net/lekhak/narender-grover-anand-musafir
  7. डॉ. निर्मला आदेश https://sahityakunj.net/lekhak/nirmala-adesh
  8.  पंकज ’होशियारपुरी’ https://sahityakunj.net/lekhak/pankaj-sharma
  9.  पाराशर गौड https://sahityakunj.net/lekhak/parashar-gaud
  10.  भगवत शरण श्रीवास्तव ’शरण’ https://sahityakunj.net/lekhak/bhagwat-sharn-srivastav
  11.  डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव https://sahityakunj.net/lekhak/bhartendu-srivastav
  12.  भुवनेश्वरी पांडे https://sahityakunj.net/lekhak/bhuvneshwari-pandey
  13.  विद्या भूषण धर https://sahityakunj.net/lekhak/vidya-bhushan-dhar
  14.  श्याम त्रिपाठी https://sahityakunj.net/lekhak/shiam-tripathi
  15.  आचार्य संदीप कुमार त्यागी ’दीप’ https://sahityakunj.net/lekhak/sandeep-tyagi-deep
  16.  समीर लाल ’समीर’ https://sahityakunj.net/lekhak/sameer-lal-sameer
  17.  प्रो. हरिशंकर आदेश https://sahityakunj.net/lekhak/harishankar-adesh
  18. मीना चोपड़ा https://sahityakunj.net/lekhak/meena-chopra

 

जो रचनाकार इस विशेषांक में प्रकाशित हो रहे हैं, उनकी अनेक रचनाएँ साहित्यकुंज में पहले से भी प्रकाशित होते रहे हैं अत: इन रचनाकारों की अनेक रचनाएँ आप उनके लिंक पर जाकर देख सकते हैं।

संकलन डाउनलोड करें: हिन्दी राइटर्स गिल्ड कैनेडा ने पिछले वर्ष कैनेडा के गद्य और पद्य साहित्य के दो संकलन प्रकाशित किए थे। यह संकलन निःशुल्क ई-पुस्तक के रूप में डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध हैं। नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। पुस्तकबाज़ार.कॉम पर रजिस्टर होकर यह दोनों संकलन आप अपने मोबाइल या कंप्यूटर पर निःशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं।

पहले आप गूगल प्ले स्टोर से पुस्तक बज़ार.कॉम की निःशुल्क ऐप्प डाउनलोड करें (Allow all permissions) फिर ई-पुस्तकें डाउनलोड करें। सभी के लिंक हैं:

पुस्तक बाज़ार ऐप्प: https://play.google.com/store/apps/details?id=com.pustakbazaar.android

संभावनाओं की धरती - कैनेडा गद्य संकलन: http://pustakbazaar.com/books/view/39
सपनों का आकाश - कैनेडा पद्य संकलन: http://pustakbazaar.com/books/view/37

गगन सा निस्सीम,  धरा सा विस्तीर्ण,  अनल सा दाहक,  अनिल सा वाहक,  सागर सा विस्तार,  तुम्हारा प्यार!     विश्व में देश,  देश में नगर,  नगर का कोई परिवेश,  उसमें, मैं अकिंचन!     अपनी लघुता से विश्वस्त,  तुम्हारी महत्ता से आश्वस्त,  निज सीमाओं में आबद्ध,  मैं हूँ प्रसन्नवदन!     परस्पर हम प्रतिश्रुत,  पल-पल बढ़ता प्यार,  शब्दों पर नहीं आश्रित,  भावों को भावों से राह!     तुम्हारी महिमा का आभास पाकर मैंने अनायास,  दिया सौंप सारा अपनापन चिन्तारहित मेरा मन!  आगे पढ़ें
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा।  चहुँ दिशि जब देखती हूँ, काम बिखरा बहुत सारा॥   स्वप्नदर्शी मन मेरा, चाहता छू ले गगन को,  मन की गति में वेग इतना, मात कर देता, पवन को,  क्लान्त है शरीर, पर मन है अभी तक नहीं हारा।  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   जो जिया जीवन अभी तक, मात्र अपने ही जिया है,  अमृत मिला चाहे गरल, अपने निमित्त मैंने पिया है।  कर सकूँ इससे पृथक कुछ, बदलकर जीवन की धारा,  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   कुछ नया करने की मन में कामना मेरी प्रबल है,  अर्थमय कुछ कर सकूँ, यह भावना मेरी सबल है।  व्यक्ति से समष्टि तक जा सकूँ, मन का यही नारा,  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   लालिमा प्राची में है, बादल घनेरे छँट रहे हैं,  अस्पष्टता और दुविधा के… आगे पढ़ें
जितना मैं झुकती हूँ,  उतना झुकाते हो।  जितना चुप रहती हूँ,  उतना ही सुनाते हो॥ लचीली कोमल टहनी सी,  झुकना मुझे आता है।  चंचल, गतिशील,  पर रुकना मुझे आता है॥   दबाव का प्रभाव, यदि कुछ अधिक हुआ,  सूखी टहनी सी मैं टूट-बिखर जाऊँगी।    आत्मबल और विश्वास होने के उपरान्त भी,  तुम्हारे ही तो क्या,  किसी के काम न आऊँगी॥   बात समानता की तो सभी कर लेते हैं,  समानता का अधिकार फिर भी क्या देते हैं?    पति-परमेश्वर की तो बात अब पुरानी है,  आधुनिक युग में तो बिल्कुल बेमानी है।    सदियों पे सदियाँ दासता में बीत गयीं,  उसके पश्चात् अब ताज़ी हवा आयी है।    नारियों का जागरण देश-देश हो रहा,  यह जागॄति कुछेक अधिकार ले आई है।    इस परिवर्तन से नवजीवन मिलेगा,  हमारे व्यक्तित्व का नवप्रदीप जलेगा।    होगा घर-आँगन तुम्हारा ही तो ज्योतिर्मय,  जीर्ण-शीर्ण परम्परा का प्राचीर ढहेगा।  आगे पढ़ें
जीवन में है मिला बहुत कुछ इससे कब इन्कार किया? जो भी पाया, जितना पाया, सबसे मैंने प्यार किया॥   कभी नहीं चाहा मैंने हाथ बढ़ाकर छू लूँ नभ। और धरा को मापूँ मैं, करी कामना ऐसी कब?   सहज मार्ग से जब जो आया, उससे ही पाया संतोष। मुस्कानों के जल से प्रक्षालित करती मैं रोष॥   कुछ खट्टे, कुछ मीठे अनुभव, सानन्द जिये मैंने इस पार। कभी नहीं सोचा क्या होगा, जब जाऊँगी मैं उस पार॥   प्यार मिला भरपूर, मेरे आँगन में छायी हरियाली। फल-फूल रहा विटप मेरा हँसती-गाती डाली-डाली॥   इस बगिया की कलियों की किलकारी आँगन में गूँजी। जीवन की इस सन्ध्या में मेरा सर्वस्व यही पूँजी॥ आगे पढ़ें
सफ़र है कहीं, सुहाना।  पर कहीं अनुतरित्त प्रश्नों के साए में,  कहीं कोई आहत मन,  हर साँस में कुछ कहता, कुछ ढूँढ़ता  पोर-पोर बिखरता, कितनी ही परतों में,  फिर-फिर हो उमंगित, फिर-फिर विस्मित चहक-चहक उड़ता फिर-फिर।    सोच है, जोश है, कर्म हैं पास  है हर्षित मानस, उल्लसित अनगिनत उमंगित।  नित नव् उदित, उमंगित तरंगित लहरें  जो चकित सी तिरती, अधखुली आँखों के,  सपनों पर हो आच्छादित  कर जाती हैं अपने जादू का टोना।  रुलाकर-हँसाकर, नव-प्राण कर प्रवाहित  जिला जाती हैं बार-बार।  सफ़र है कहीं सुहाना।  पर कहीं अनुतरित्त प्रश्नों के साए में।  कहीं आहत मन,  हर साँस में कुछ कहता, कुछ ढूँढ़ता  पोर-पोर बिखरता, कितनी ही परतों में,  फिर भी उमंगित, फिर भी विस्मित चहक-चहक उड़ता फिर-फिर।    नित ताल मिला, तेज़ रफ़्तार के साथ  सब कुछ पीछे छोड़, फिर आगे की सोच,  जिनमें कुछ है नियत, कुछ है अनजान।  और कितनी बार, विध्वंस, आहत के ढेर… आगे पढ़ें
“कही-अनकही” शीर्षक अपने आप में बहुत कुछ कहता है; कहने के लिये कुछ न रह जाना, व्यक्ति के चुक जाने की निशानी है, कुछ न कुछ कहने के लिये छूट जाना ही जीवन का परिचायक है। आशा बर्मन की कवितायों में हमें यही जीवन्तता देखने को मिलती है।  यह आशा बर्मन का पहला काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह सदा ही भावनाओं का वह पुलंदा होता है जो छ्पाई से पहले, कवि के मन और डायरी में संगृहीत होता चलता है। पहले काव्य संग्रह में कविताओं की छँटाई, कटाई से लेकर छपाई और विमोचन, बिक्री और आलोचना के जगत से कवि अनजान होता है। इस समय कवि के मन में प्रथम प्रेम की-सी झिझक भरी लचकन होती है कि पाठक इस पुस्तक को कैसे लेंगे, एक पुलक भरी आशंका होती है कि सालों बाद मन की पोटली को एक सुन्दर कलेवर मिला है तो वह कैसी लगेगी, एक… आगे पढ़ें
सरस्वती माता के वरद पुत्र श्री आदेश जी टोरोंटो के हिन्दी साहित्य परिवार के एक अभिन्न अंग थे।  वे गत 35 वर्षों से यहाँ के स्थानीय कवियों के प्रेरणास्रोत रहे। भारतीय संस्कृति, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला, हिंदी भाषा एवं मानव सेवा के विभिन्न कार्यों में आदेश जी सदैव कार्यरत रहे। इनके निर्वाण, शकुंतला आदि आठ महाकाव्य, अनेक खंडकाव्य तथा कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। स्वयं एक प्रतिष्ठित कवि होते हुए भी उन्होंने सदैव सभी नवोदित कवियों को कवि सम्मेलनों में आमंत्रित किया, धैर्यपूर्वक उन्हें सुना, सराहा तथा प्रोत्साहित किया। इसके लिये हम उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहेंगे।  मेरा सौभाग्य है कि श्री आदेश जी ने स्वयं मुझे अपना काव्य-संग्रह ’निर्वेद’ पढ़ने के लिये दिया और इसकी समीक्षा करने के लिए कहा। इसमें अधिकतर भजन हैं, जिनमें जीवन की निस्सारता, क्षणभंगुरता के साथ-साथ ईश्वरप्रेम तथा सद्गुरू के महत्त्व की चर्चा है। ’निर्वेद’ को रचनाकार ने ‘सात लघु… आगे पढ़ें
अनुजावत श्रीमती आशा बहिन जी! सस्नेह नमस्ते,    आप का प्रथम काव्य-संकलन “कही-अनकही“ प्राप्त हुआ। पढ़कर प्रसन्नता का पारावार लहरा उठा। इस शुभ अवसर पर हम दोनों (आदेश दंपति) की बधाई स्वीकार कीजिए। कविता लिखना आपका पैतृक गुण भी है। आपकी गणना टोरोंटो की प्रतिनिधि काव्य सर्जकों में की जाती है। अतएव आपके काव्य संकलन की आवश्यकता थी। आपकी काव्य-साधना के पीछे आपके पतिदेव का भी प्रचुर सहयोग है। तदर्थ वे भी सराहना के पात्र हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप दोनों स्वस्थ एवं दीर्घायु हों तथा इसी प्रकार हिंदी की सेवा कार्य में संलग्न रहें। टोरोंटो में हिंदी सर्जक समाज में व्याप्त संकीर्णताओं का निराकरण करना हम सबका कर्तव्य है। कवि की दृष्टि में न कोई छोटा होता है न कोई बड़ा। कवि सबका मित्र होता है, हितेच्छु होता है। वह जन-मंगल में ही सवमंगल का अनुभव करता है। आप सबमें मैंने इस प्रकार की सद्भावना… आगे पढ़ें
अपने देश की सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले जाँबाज़ जगरूप सहगल को बचपन से ही जासूसी कहानियाँ पढ़ने का बड़ा शौक़ था। बड़ा हुआ तो उसे भारतीय सेना में जाने का अवसर मिल गया। जगरूप अब किसी बड़े ओहदे पर पहुँच चुका था और उसकी शादी बहुत सौम्य लड़की से हो चुकी थी। एक सुन्दर पुत्री फिर एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ।  जगरूप को जासूस के रूप में कार्य करने का भी अवसर मिल गया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसे पड़ोसी देश में भेजा गया जहाँ उसने कुछ वर्षों तक काम किया परन्तु अचानक उसकी कोई ख़बर आनी बन्द हो गयी। शायद वो पकड़ा गया और उसे लापता घोषित कर दिया गया।  चन्द्रमुखी, एक जवाँ पत्नी और ऊपर से दो छोटे बच्चे फिर कोई आमदनी का साधन नहीं। मजबूर हो चन्द्रमुखी ने बैठक किराए पे चढ़ा दी जिससे कुछ सहायता मिली। बच्चे… आगे पढ़ें
एक लम्बे अरसे के बाद विदेश से रघुबीर अपने शहर वापिस लौटा। बहुत उत्सुक था अपनी भूली-बिसरी यादों को फिर से जीने के लिए। जब वो अपने शहर टैक्सी द्वारा अपने घर पहुँचा तो रात बहुत हो चुकी थी। माता–पिता का स्वर्गवास हुए तो एक अरसा हो चुका था और अब घर में बड़ी बहन रहती थी। दरवाज़ा खटखटाया, बड़ी बहन ने दरवाज़ा खोला और रघुबीर को घर के अन्दर ले गई । रघुबीर को उसके पुराने कमरे में ठहराया गया जहाँ उसने अपना सारा सामान टिका दिया। लम्बा हवाई सफ़र फिर रेलगाड़ी से रेलवे स्टेशन और फिर टैक्सी से घर तक का सफ़र, रघुबीर बहुत थक चुका था। हाथ-मुँह धो के थोड़ी देर आराम करने के लिए रघुबीर बिस्तर पे लेट गया। आँखें आधी सी बन्द हुईं ही थी, उसे आभास हुआ जैसे किसी ने पुकारा हो, धीरे से सर के बालों को सहलाते पूछा, “सफ़र कैसा… आगे पढ़ें
कैनेडा के गद्यकारों के संग्रह का नामकरण ‘सम्भावनाओं की धरती’ उचित ही किया गया है। चूँकि कई लोग यह समझते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन तो भारतीयों के लिए रच-बस चुके हैं परंतु कैनेडा में अभी बहुत सम्भावना है। दूसरा आशय शायद यह है कि यह धरती अपनी सम्भावनाओं को प्राप्त करने के बहुत अवसर देती है। दोनों दृष्टियों से यह नामकरण समीचीन है। इस संकलन को पढ़ने के बाद यह लगता भी है कि कैनेडा भारतीयों के लिए एक महत्त्वपूर्ण सम्भावनाओं की धरती है। इसमें बीज डाला जा चुका है, जो पुष्पित और पल्लवित हो रहा है और जिसकी सुगंध भारतीय डायस्पोरा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।  अपने विस्तार और व्यापकता के चलते गद्य संग्रह का एक अलग महत्त्व है। यहाँ पर सुविचारित, सुचिंतित रूप से कैनेडा के जीवन के सूत्र मिलते हैं। जब तक आप किसी देश का गद्य नहीं पढ़ते हैं, आपको उस देश की… आगे पढ़ें
सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर . . .    होली, दिवाली के रंगों और  दीयों में बिखरती–झिलमिलाती  सुनहरी खनक सबको सुनाने।  अपनी मिट्टी की महक की ख़बर।  त्योहारों के पावन अवसर पर,  मन के कोनों को बुहार,  नए रंगों की सरगम फैलाने,  सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर।    सुरमई रंग और चिर-परिचित  ख़ुश्बू की याद दिलाने,  सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर . . .।  आगे पढ़ें
मज़बूत शरीर है यह जो दिखता  अंदर मेरे भी है— कोमल सा दिल, मेरा अपना।  है धुँधली सी, पर हैं गहरी यादें,  देखा है छुप–छुप चुपके से आँसू पोंछते।  भारी ज़िम्मेदारी है कंधों पर पर फिर भी सदा मुस्काता,  ज्यों पर्वत में रहता छिपा,  मीठे पानी का स्रोता।  मज़बूत शरीर में है मेरे भी,  कोमल सा दिल, मेरा अपना।  आगे पढ़ें
रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर पिता का वह प्यार॥   है अगर, पिता का आशीर्वाद सिर पर  कोई भी न आए आँच,  यह है उन दुआओं का असर।  बटोर लो क़ुदरत का अनमोल वरदान यह,  सहेज लो प्यार की इस धरोहर को।  रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर पिता का वह प्यार॥   जो इज़हार भी न कर पाता कई बार  काम की मजबूरी,  न व्यक्त पाने की झिझक,  या हो कारण कन्धों पर ज़िम्मेदारी की क़तार  पर लाता है जीवन में,  सही अर्थों में अर्थ की बहार।  युग की तरह समेट लो, पल-पल बिताया साथ,  ख़ुशनसीब है, जब तक  मस्तक पर है वरदान सा हाथ।  रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर वह प्यार॥   पीता है चुपचाप जो सबके ग़मों को,  पिता है यह न… आगे पढ़ें
नए साल के नए सूरज की, नई किरणें कह रही,  चुपके से आ हर द्वार– नई उमंगें, नए सपनों का इन्द्रधनुष,  हो यथार्थ में साकार . . .!!  शुभकामनाएँ आत्मसात हो बरसें, हरपल,  हर दिल ले ख़ुशियों का आकार . . .!!!    सुरभि, मकरंद युक्त पराग कण उड़ते,  भीनी-भीनी बयार के संग  निमंत्रण दे हर जन को,  बहारों को आत्मसात करने का!    सुनो, भूल जाओ सब शिकवे बीते साल के,  कर लो स्वागत अंजुरी में भर कर  इस नई अछूती सुबह, दिन और शाम का!    नयनों के कोरों में झलकते सपनों को तितलियों के सतरंगे परों पर बैठाकर डाल–डाल, फूल-फूल चहकाकर,  सूर्य किरणों के रथ पर चढ़ाकर आसमान में ऊँचे छा दो उन्नति के रंग में ढाल!    नए साल के नए सूरज की,  नई किरणें कह रहीं,  चुपके से आ हर द्वार— नई उमंगें, नए सपनों का इन्द्रधनुष,  हो यथार्थ में साकार . .… आगे पढ़ें
बसंत-ऋतु का जादू भरमाती,  प्रकृति इतराती, निखारती रूप  जगत में करती उमंग-बहार का पसेरा।  चकित हो देखा, अजान मानुस है बेखबर,  बन मशीनी पुतला, जी रहा है शून्य में, सिफर-सा।  पूछ बैठी उत्सुकता और तरस से भर– अरे सुनो! क्या बता पाओगे? कब देखा था पिछली बार–?  आमों का बौर, कोयल का कूकते हुए मँडराना,  उगते और डूबते सूरज की लालिमा से नभ का रंग जाना?  अरे सुनो! पिछली बार कब महसूस किया था?  फूलों की ख़ुश्बू चुराकर लाई बयार का स्पर्श।  ओस-कणों का बड़े नाज़ों से पंखुडियों पर तैरना,  बिखरे पराग की ताजगी से मन का खिल जाना।  स्मित-सा देखा प्रकृति ने, फिर पूछा –जी रहे हो क्या तुम?  सुन प्रकृति की बात,  जगत के जीवों में सर्व बुद्धिमान,  मनुष्यों की भीड़ का सैलाब-मन ही मन मुस्काया,  कैसी है मूरख, पगली यह,  किसके पास है समय, इन व्यर्थ बातों का?  मैं इतना आधुनिक, विकसित,  चौबीसों घंटे हूँ… आगे पढ़ें
अभी कल ही तो ये पत्ते शाख से जुड़े,  एक प्राण, एक मन,  एक जीव हो फले–फूले,  अपने चरम उत्कर्ष की ललक लिए जीए, अपनी पूर्णता से।  आज पीली चादर में परिणित,  शाख से अलग हो,  बिछ गए ज़मीन पर।    पीली, हरी और हरी-पीली  चितकबरी झालर से झर-झर झरे।  नष्ट होते हुए भी अपनी  सुन्दर गुणवत्ता की छाप  कर गए अवतरित, मिट्टी की उर्वरता के रूप में।  कल फिर एक नई जिजीविषा में हो अंकुरित,  फूट निकलेंगे ये पत्ते उसी शाख पर,  छोटी-छोटी हथेलियाँ खोले फिर से हरियाली ओढ़े,  खोने के ग़म और पाने की ख़ुशी से निर्लिप्त।  हरे पत्तों की चादर की सरसराहट,  स्वर्णिम पत्तों की मर्मराहट,  सूखी शाखाओं की खड़खड़ाहट,  अनवरत इसी क्रम की निरंतरता में  प्रकृति का अहम् हिस्सा बने ये पत्ते,  नश्वर होकर भी शाश्वत अस्तित्व की पहचान से  बहुत-कुछ बतियाते-कहते-सुनते जाते हैं।  आगे पढ़ें
ये एक कारवाँ  है एक अनवरत सिलसिला।  जो बाँध अपने साथ अपने शहर,  गली की यादों को  मन में एक उल्लास, हर्ष,  और थोड़ी सी लिए कसक  निकला है कोई, फिर घर से।    सहेज कर लाई  मुट्ठी भर अपनी संस्कृति,  विदेश की धरती पर दिल और मुट्ठी दोनों,  खोलकर दी बिखेर।  सारी आशाएँ, सारे ख़्वाब, मोतियों की तरह,  बिखेर क्या दिए, नहीं . . . रोप दिए इस नई मिट्टी में, अपनी मेहनत के रंग से।  छोटे–छोटे अपने तम्बू से ताने,  सुनहरे अंकुरित बीजों के पौधों में  उग आए एक नई संस्कृति के सतरंगी फूल।  इन फूलों की ख़ुश्बू महकाने,  निकला है कोई फिर घर से।    सालों, दशकों बाद आज वही  एक-एक मुट्ठी संस्कृति, भारत से बाहर  हर राज्य की छटा बिखेर–निखर,  फल–फूल रही अपने पूरे कलेवर में।  विदेशी आकर्षण और  अपनी संस्कृति की जीवन्तता में  उपजाने एक नई संस्कृति,  निकला है कोई फिर घर से। … आगे पढ़ें
कृषि धन-धान्य से परिपूर्ण,  सस्काचेवन और इसके आसपास के क्षेत्र की धरती  जहाँ असीमित आसमान इतना जीवंत, इतना सजीव।  ज्यों चित्रकार ने अपनी अत्यंत अनुभवी तूलिका से जैसे— यूँ ही उकेर दिया नीला, चाँदी सा चमकीला, स्लेटी रंग।  पड़ती जब उस पर डूबते सूरज की,  स्वर्णिम आभा की नारंगी, क़ुदरती मटमैली  और कभी सतरंगी धारियाँ-सी बनती,  रोज़ एक नवीन, विस्मित नज़ारा सूर्यास्त का,  मोह लेता है मन।  यूँ ही नहीं कहते इसे— जीवंत आसमान की धरती का जादू।    सहसा लगेगा, बादल ये चलते हैं,  सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम तक,  बदल-बदल कर स्वरूप अपना।  उगते सूरज की लालिमा से आच्छादित नभ पर,  सफ़ेद रुई के गोले, पारे से चमकते,  गहरे नीले पवित्र, स्वच्छ कैनवास पर।  गर्मियों की शाम में रेतीली नदी के किनारे,  संध्या में पश्चिमी आसमान का एक कोना,  कहीं सुनहरी नारंगी, कहीं चाँदी सा चमकता,  मानो असीमित नभ की सीमा मापने निकला हो,  तो… आगे पढ़ें
मैंने ख़ुद को जब भी दुविधाओं में पाया है,  न जाने क्यों तुम्हारा ही चेहरा मेरे सामने उभर आया है गहन अँधेरों ने जब भी  अपना विशाल रूप दिखाया है,  तुम्हारे आग़ोश में बीते  उन पुराने सवेरों से ही तो  मैंने ढाढ़स बँधाया है  धुँधले कुहासों ने जब  रास्ते के हर मोड़ को छिपाया है  तब तुम्हारे आदर्शों ने ही तो  मुझे आगे बढ़ाया है    और मन के सन्नाटों ने जब  हर साज़ को दबाया है जब तुम्हारी ही आवाज़ को मैंने  गूँजता हुआ पाया है ज़िन्दगी की उधेड़बुन ने जब जब  मेरे वुजूद पर प्रश्नचिन्ह उठाया है तब तुम्हारे ही वुजूद में मैंने  अपने अस्तित्व को समाया है सात समुंदर की दूरी से भी यक़ीन रखो तुमने मेरी राह का हर पत्थर हटाया है  आगे पढ़ें
मेरे मन में बोझिल मंज़र तेरे मन में गहरे साये  फिर भी सुबह के होने पर  हम दोनों ही तो मुस्काए   कुछ शब्दों ने व्यक्त किया,  कुछ काव्य ने दोहराया,  बाक़ी का घनघोर अँधेरा,  अभिव्यक्ति से घबराया   तुम टूटे काँचों के शीशों में अपना साया ढूँढ़ रहे हो नासूरों से बहता ख़ून  मरहम नहीं वह पाता है   बीते लम्हों के अफ़सानों में जा- एक बार फिर जम जाता है   मेरे मन की आशंकाएँ गहरे बादल सी घिर आयी हैं  बोझिल बादल भटक रहा है बरसात नहीं कर पाता है अपने मन के सूनेपन में एक बार फिर खो जाता है   फिर भी शाम के ढलने पर  हम दोनों ही तो घर आए बुझते दिए में लौ लगा एक बार फिर मुस्काए . . . आगे पढ़ें
विदेशों में रहकर नए-नए परिवेश, सरोकारों से अवगत कराने वाला साहित्यकार प्रवासी साहित्यकारों की श्रेणी में आता है। किसी रचना को अलग ख़ेमे में केवल इसलिए रख देना कि उसकी संस्कृति, परिवेश, स्थितियाँ अलग हैं, यह उचित प्रतीत नहीं होता। कुछ पुराने मानदंडों ने साहित्य के अलग-अलग खाँचे बना कर उसे मुख्य धारा से अलग कर दिया है। नए समय और नई परिस्थितियों की आवश्यकताएँ भी नई हैं। आवश्यकता है पुराने मानदंडों को तोड़ कर नया और कुछ अलग सोचा जाए। लंदन में वर्षों से साहित्य रचना कर रहे तेजेन्द्र शर्मा इस प्रवासी लेखन शब्द का समर्थन नहीं करते। उनका मानना है कि अमेरिका, कैनेडा, लंदन में लिखा जा रहा साहित्य मुख्य धारा का साहित्य है। प्रवासी जीवन पर प्रकाश डालते हुए वह कहते है कि प्रवासी जीवन का यथार्थ वापस लौटने के स्वप्न और ना लौट पाने की बाध्यता के बीच दोहरेपन की मानसिकता होती है। अतीतानुराग… आगे पढ़ें
पैराग्रीन बाज़ों के जोड़े ने शहर के मध्य एक ऊँची इमारत की खिड़की के बाहर कंक्रीट की शेल्फ़ को अपने अंडे देने के लिए चुना था। पता नहीं प्रकृति की गोद की चट्टान की बजाय शहर की चट्टानी इमारत उन्हें अपने बच्चे पालने के लिए क्यों अच्छी लगी थी? शहर के समाचार पत्रों में सुर्ख़ियाँ थीं, जीव वैज्ञानिकों में हलचल थी और शहर के पहले से फूले हुए मेयर और भी कुप्पा हुए जा रहे थे। उन्होंने तो कनखियों से मुस्कराते हुए वक्तव्य भी दे डाला था, “अगर मैं जार्विस स्ट्रीट की साईकिल की लेन को ख़त्म करके कारों के लिए खोल रहा हूँ तो पर्यावरण प्रेमी क्यों शोर मचाते हैं कि शहर में प्रदूषण बढ़ेगा? देखो प्रकृति तो स्वयं हमारे शहर को चुन रही है।”  शहर में उनके समर्थक, सनसनीखेज समाचार पत्र ने तो सुर्ख़ी ही दे डाली थी, “ओंटेरियो में पैराग्रीन बाज़ों की संख्या का विस्फोट—पूरे… आगे पढ़ें
शर्मा जी ने कार मेन सड़क से घरों की तरफ़ मोड़ी ही थी कि मिसेज़ शर्मा बोल उठीं, “सुनो, बड़े घर हैं—अच्छे लोग ही होंगे!” मि. शर्मा चुप रहे, वह वैसे ही खिन्न मन से इस काम में शामिल हुए थे। अपने ख़्यालों में खोये हुए . . . वह अपने इकलौते बेटे को दोषी ठहरा रहे थे। सोच रहे थे, ‘बत्तीस से ऊपर का हो गया है . . . इस देश में पैदा होने के बाद भी अपने लिए कोई गर्ल-फ़्रेंड नहीं ढूँढ़ पाया। नालायक़! अब शादी के लिए भी हम लड़की खोजने निकले हैं।’  अलबत्ता मिसेज़ शर्मा को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। बल्कि वह तो ख़ुश थीं कि अपनी बहू वह अपनी पसंद की लायेंगी! कह तो देती थीं कि बेटे की पसंद-नापसंद को वह भली-भाँति समझती हैं, पर बेटे और शर्मा जी को मिसेज़ शर्मा की पसंद पर संदेह तो था ही। मिसेज़… आगे पढ़ें
“ड्यूमारिए लाईट देना,” स्वर में अपरिपक्वता का आभास होते ही मैंने सर उठाया तो सामने मेकअप की पर्तों की असफलता के पीछे से झाँकता बचपन दिखाई दिया। कोई पंद्रह-सोलह बरस की लड़की अपनी उम्र से बड़ी लगने का भरपूर प्रयास कर रही थी।  “तुम्हारे पास कोई प्रूफ़ ऑफ़ एज है?”  “क्या मतलब?” उसकी अनभिज्ञता भी उसके प्रयास की तरह ही झूठी थी। मैं जानता था कि वह यही प्रश्न न जाने कितनी बार सुन चुकी होगी।  “मतलब क्या? ड्राईवर लाईसेंस, बर्थ सर्टीफिकेट . . . कुछ भी . . . तुम जानती तो होगी?”  मैंने उसके चेहरे को टटोला।  उसने कन्धे से लटके बड़े पर्स में ढूँढ़ने का बहाना किया और फिर से मेरे चेहरे पर नज़रें टिका कर भोलेपन से बोली,” मिल नहीं रहा, मेरा विश्वास करो . . . कोई समस्या नहीं होगी, सब ठीक है।” उसने मुझे झूठा आश्वासन दिया।  “कुछ भी ठीक नहीं, जानती… आगे पढ़ें
विश्व के अनेक देशों में हिंदी में सृजनात्मक लेखन की समृद्ध परंपरा विद्यमान है। कुछ समय पूर्व तक मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य से भारतीय पाठक परिचित थे परंतु संचार साधनों की सुगमता के कारण आज अन्यान्य देशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य के प्रति हिंदी-जगत परिचित होता जा रहा है।  कैनेडा में हिंदी लेखन की समृद्ध परंपरा विद्यमान है, साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य-सृजन हो रहा है। कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, डायरी, संस्मरण, निबंध आदि में कैनेडा से हिंदी साहित्य रचा जा रहा है और हिंदी जगत में उनका स्वागत भी हो रहा है। कैनेडा में हिंदी के सृजनात्मक लेखन में अनेक हिंदी प्रेमी सक्रियता से कार्य कर रहे हैं, इनमें—डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव, डॉ. शिवनंदन यादव, प्रो. हरिशंकर आदेश, डॉ. स्नेह ठाकुर, अरुणा भटनागर, डॉ. बृजकिशोर कश्यप, विजय विक्रांत, आशा बर्मन, अचला दीप्तिकुमार, डॉ. ओंकार प्रसाद द्विवेदी,… आगे पढ़ें
इस लेख में ओटवा के क्षेत्र में हिंदी भाषा और साहित्य की बाल्यावस्था से यौवन तक की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा सम्भवतः वर्ष 1971 में प्रारंभ हुई जब यहाँ हिंदी भाषा और साहित्य का बाल्यकाल था। आज वे दोनों अपने यौवन तक आ पहुँचे हैं। संयोगवश 1971 ही वर्ष था जब मैंने और मेरे परिवार ने भारत से विदा लेकर ओटवा को अपना घर बनाया, वह आज भी हमारा घर है। इन वर्षों में मैं एक दृष्टा और कर्ता के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य की यात्रा से संलग्न रहा। यह लेख उन्हीं वर्षों की स्मृतियों पर आधारित है। ओटवा के निवासी, मेरे तीन मित्रों ने इस लेख को पूर्ण करने में मेरा सहयोग दिया है। वे हैं श्रीमती रश्मि गुप्ता, श्री वीरेन्द्र कुमार भारती एवं श्री रणजीत देवगण। ये सब मित्र साहित्यकार, लेखक, और कवि होने के साथ साथ अनेक अन्य प्रतिभाओं के धनी… आगे पढ़ें
अग्नि के सात फेरे  साथ-साथ जीने मरने की क़समें  और सात जन्मों का साथ  माता पिता का आशीर्वाद  दोस्तों और सगे सम्बंधियों का प्यार    समय का चक्र चलता गया  रस्में पूरी होती गयीं  एक प्रश्न उठा था मेरे मन में  जो पूछ न सका उस पल में  ग़र मिलते वो पंडित तो पूछता ज़रूर  कि क्यों कराते हैं सात जन्मों का साथ  फिर ख़्याल आया  दिमाग़ ने गणित लगाया  कि निश्चित है अगले छह जन्मों का मिलना  क्योंकि बंधन तो सात जन्मों का है    अब जब अगले जन्म में आएँगे  रस्में भी करवाएँगे  जीने मरने की क़समें भी खाएँगे  लेकिन पंडित जी से अग्नि के फेरे  सात जन्मों वाले नहीं  जन्मों जन्मों के साथ वाले ही पढ़वाएँगे  आगे पढ़ें
प्रार्थना किया करता था  रोज़ मैं अपने भगवान से,  मुझको ऐ मालिक मिलवा दे  मेरी प्यारी माँ से।    वह माँ जिसकी पलकों का तारा हूँ मैं,  वह माँ जिसके जीने का सहारा हूँ मैं,  कभी जिसकी ऊँगली पकड़ के चला था मैं,  उसकी गोद में सोकर,  उसकी लोरियाँ सुनकर,  उसके मातृत्व प्रेम में,  पला बढ़ा था मैं।  वह मूरत है ममता और दुलार की,  वह सूरत है एक निश्छल प्यार की,  वह मेरे जीवन का आधार है उससे ही मेरा जीवन साकार है    कर ऐसा कोई चमत्कार  ओ दुनिया के पालनहार  माँ की सेवा कर  मैं भी करूँ अपना जीवन साकार     प्रार्थना करते करते,  निकल गए कई वर्ष,  लगता था जैसे अब  ज़िन्दगी में नहीं है कोई हर्ष,  अब तो सब्र भी टूटने को था,  आँसुओं का समंदर जैसे फूटने को था।    क्या करूँ क्या न करूँ,  असमंजस की स्थिति में  मेरे विश्वास को… आगे पढ़ें
विश्व में सर्वाधिक बोली/समझी और प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में हिंदी दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती साख और उपभोक्ताओं की संख्या ने विश्व के हर देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह आकर्षण भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण बना रहा है। हमें इतिहास से जानकारी मिलती है कि भारतवासी प्राचीन समय से विश्व के अनेक देशों की यात्रा करते थे, उनका उद्देश्य किसी देश में साम्राज्य स्थापित करना नहीं था वरन्‌ उनका प्रवास मैत्री भाव से प्रेरित रहा जिसके मूल में मानव कल्याण की भावना थी। धर्म-प्रचार और व्यापार भी मूल घटक रहे। समय और काल के साथ स्थितियाँ/परिस्थितियाँ बदलती गईं और 19 वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में शासन कर रही उपनिवेशवादी व्यवस्था, भारतीय मज़दूरों को एग्रीमेंट सिस्टम के अंतर्गत जिसे गिरमिटिया प्रथा के नाम से भी जाना… आगे पढ़ें
समीक्षित पुस्तक: प्रवासी कथाकार शृंखला – शैलजा सक्सेना (कहानी संकलन) लेखक: डॉ. शैलजा सक्सेना प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन प्रा. लि. पृष्ठ संख्या: 176 ISBN-10 ‏: ‎ 9390500206 ISBN-13 ‏: ‎ 978-9390500208 मूल्य: ₹299.00 (हार्डकवर) / ₹198.00 (पेपरबैक) ख़रीदने के लिए क्लिक करें    डॉ. शैलजा सक्सेना का प्रवासी साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है। अपनी साहित्यिक रचनाओं और साहित्यिक गतिविधियों से इन्होंने प्रवासी साहित्य को समृद्ध किया है। शैलजा सक्सेना का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनका लेखन भी बहुआयामी है। उन्होंने कविता, कहानी, लेख, संस्मरण सभी विधाओं में लिखा है। लेबनान की एक रात उनका पहला कहानी संग्रह है। इससे पहले इनका कविता संग्रह क्या तुमको भी ऐसा लगा प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में तेरह कहानियाँ-आग, उसका जाना, एक था स्मिथ, दाल और पास्टा, दो बिस्तर अस्पताल में, निर्णय, नीला की डायरी, पहचान की एक शाम, लेबनान की वो रात, वह तैयार है, शार्त्र, अंदर मदर-हैं।  शैलजा जी के… आगे पढ़ें
डॉ. शैलजा सक्सेना और श्री सुमन घई द्वारा संपादित कैनेडा के कवियों और कवयित्रियों का संकलन ‘सपनों का आकाश’ स्वागत योग्य है। यह संकलन एक सुखद आश्चर्य से भर देता है कि कैनेडा जैसे देश में, इतनी गुणवत्ता वाले, इतनी गहरी सोच रखने वाले, हिंदी में अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करने वाले इतनी बड़ी संख्या में मौजूद है। इन सभी कवियों, रचनाकारों का अभिनंदन है। इस सम्बन्ध में दोनों संपादकों और सह–संपादकों की कर्मठता भी प्रशंसायोग्य है जिन्होंने इतना श्रमसाध्य कार्य किया। लगभग 300 पृष्ठों की कविताओं की पुस्तक और इतने सारे कवि! एक तरीक़े से हिंदी साहित्य की दृष्टि से कैनेडा के कवि विश्व के अन्य देशों से आगे दिखाई देते हैं। संकलन के विस्तार से भ्रम होता है कि इस संकलन में शायद कुछ कविताएँ उतनी गुणवत्तापूर्ण न हों। परंतु कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कविता के इतिहास में… आगे पढ़ें
टोरोंटो के हिंदी समाज में जिनका नाम अत्यंत श्रद्धा तथा प्यार के साथ लिया जाता है, वह नाम है श्रीमती अचला दीप्ति कुमार का। वे भारतवर्ष के इलाहाबाद शहर के एक अत्यंत साहित्यिक समृद्ध परिवार से हैं। उनकी मौसी श्रीमती महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्री रही हैं। उनके पिता श्री बाबूराम सक्सेना जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे। उनके ससुर जी श्री धीरेंद्र वर्मा हिंदी साहित्य के एक श्रेष्ठ भाषा विशेषज्ञ थे। इतने महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लोगों के बीच अचला जी लालन-पालन हुआ इसलिए आरम्भ से उनको हिंदी का एक साहित्यिक वातावरण मिला और ज्ञान भी।  अचला जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई और इतिहास को लेकर उन्होंने एम.ए. किया। विवाह के बाद कैनेडा आने पर हिंदी समाज से युक्त होने के पश्चात् उन्होंने कविताएँ लिखना आरम्भ किया। उसी समय एक मासिक हिंदी गोष्ठी में मेरा उनसे परिचय हुआ। 1985 में जब काव्य लेखन… आगे पढ़ें
कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे    कभी तो छटेंगे ये बादल ग़मों के कभी तो ये मौसम सुहाने बनेंगे कभी तो लबों पे नये गीत होंगे कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे,    भले हम चले हैं अभी तक अकेले रहे हम सदा चाहे गिरते सँभलते ये आगे न होगा लगे मुझको ऐसा नये फिर हमारे फ़साने बनेंगे,    ये दुनिया किसे जीने देती यहाँ पे जहाँ देखो शिकवे गिले हैं ज़ुबाँ पे मिलन के जो क़िस्से रहे हैं अधूरे दोबारा वो मिलकर तराने बनेंगे,    ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें मुहब्बत की आती रहेंगी सदायें सीमायें जो बांधी वो टूटेंगी इक दिन बनेंगे तो आख़िर, हमारे बनेंगे कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे॥ आगे पढ़ें
1. तब बात कुछ और थी तब रास्ता लम्बा ज़रूर लगता था मगर,  रास्ते के तमाम मंज़र बड़े ही लुभावने, तसल्लीदार और मज़ेदार लगते थे,  ख़्वाहिशों के ख़ुशबूदार फूल रास्ते के दोनों तरफ़ बेहिसाब बिछे हुए थे,  आसमान भी बिल्कुल साफ़ और रंगीन नज़र आता था जिस पर उम्मीदों के अनगिनत सपने सदा टिमटिमाते रहते थे,  सो, बचपन के वो कहकहे वो चुलबुलापन, वो चटपटापन नये-नये स्वाद के साथ-साथ वक़्त के हर लम्हे को मस्ती के साथ निगल जाया करता था,  सचमुच,  कुछ पता ही नहीं चलता था वक़्त का,  क्योंकि,  तब बात कुछ और थी 2. फिर,  फिर बात कुछ बदली रास्ता तो वही था मगर,  कई जगहों से उठाया गया सामान कंधों पर लद जाने से चाल कुछ धीमी होने लगी,  सूरज की गर्मी से पिघलता लहू आँखों से होकर दिल में समाने से सम्बन्धों को तपने का अवसर मिलने लगा,  मुहब्बत की वो पुरसुकून घड़ियाँ… आगे पढ़ें
1.  तोड़े ना टूटे ये रिश्ता तेरा मेरा माँ तू महान   2. प्रेम का रिश्ता वक़्त कैसा भी आये सदा टिकाऊ   3. बचा के रखें अपनों की दुनिया रिश्ते ज़रूरी   4. रिश्तों के रंग  बदलते रहते  वक़्त के साथ   5. रिश्तों के घर बचपन गुज़रा भूलें ना हम   6. रिश्तों के साये सारी उम्र बितायें काश, ऐसा हो   7. जब से रिश्ता बना किसी के साथ झूमे है मन   8. पिता से पुत्र रिश्ता विरासत का चलता जाये   9. सात फेरों का रिश्ता जन्म-जन्म का कितना सच   10. कौन मिटाये रिश्ता हम दोनों का है ना, बहना   11. प्यार है जहाँ भले कोई रिश्ता ना रिश्ता बनाओ आगे पढ़ें
वह,  पुरातन ग्रन्थ सी,  सिर्फ़ बैठक की शेल्फ पर सजती हैं।  वह,  सस्ते नॉवेल सी,  सिर्फ़ फुटपाथ पर बिकती हैं।  वह,  मनोरंजक पुस्तक सी उधार लेकर पढ़ी जाती हैं।  वह,  ज्ञानवर्धक किताब सी,  सिर्फ़ ज़रूरत होने पर पलटी जाती हैं।  गन्दी, थूक, लगी उँगलियों से,  मोड़ी, पलटी, और उमेठी जाती हैं।    पढ़ो हमें सफ़ाई से,  एक-एक पन्ना एहतियात से पलटते हुए,  हम सिर्फ़ समय काटने का सामान नहीं,  हम भी इन्सान है, उपहार में मिली किताब नहीं। आगे पढ़ें
हथेली पे मेहँदी नहीं,  महल सजाया था . . .  तेरे संग मैंने,  नया जग बसाया था . . .  आँखों में काजल नहीं,  अरमान लगाया था,  तेरे संग जीवन का,  रिश्ता निभाया था . . . माँग में सिंदूर नहीं,  ख़्वाब बसाया था,  तेरे संग उम्र भर,  साथ का वादा निभाया था,  मंत्रोचारण की अग्नि में,  अपना अतीत जलाया था . . .  भूल सब अपनों को कुछ नयों को गले लगाया था . . . मेरे क़दमों की आहट ने,  तेरा आँगन महकाया था,  परिक्रमा तो थी ली दोनों ने साथ,  फिर क्यों जलती हूँ मैं एकाकी . . . उदास . . .  तुम कहाँ खो गए . . . प्राण . . . मेरे प्राण।  आगे पढ़ें
कुछ यादें कुछ बातें रत्ती भर मोहब्बत माशा भर प्यार छूट गया उस गली के मोड़ पे मिले गर उठा कर रख लेना।  बड़ा बेपरवाह सी हूँ,  कुछ न कुछ छूट जाता है . . . हर बार . . .    वो गोलगप्पे की खटाई लस्सी की मलाई चौक के बीच कहीं शायद छलक गयी वो भाई का स्नेह माँ का आँसू चौखट पर कहीं छोड़ आयी हूँ मिले तो रख लेना यूँ ही सिरफिरी सी हूँ न,  कुछ न कुछ छूट जाता हर बार . . . हर बार . . .।  आगे पढ़ें
इस बार का तेरा आना,  यह भी हुआ क्या आना?  न रही ठीक से,  न ठीक से पिया, न ही खाया,  न कुछ सुना,  न ही कुछ सुनाया,  तू कब आई और कब चली भी गयी,  पता भी न चला।  इस बार का तेरा आना,  यह भी क्या हुआ आना?  क्या कहूँ, कैसे कहूँ,  मेरी अपनी मजबूरी का रोना,  माँ अब कहती कम,  दोहराती है ज़्यादा।  मुस्कराती अब टुकड़ों में,  रोती है कुछ ज़्यादा,  माँ अब बोलती कम,  भूलती है ज़्यादा।  माँ अब ज़्यादा ही भूलने लगी है,  उनकी यह व्यथा,  आँखों से टपकने लगी है।  पल्लू का सीलापन,  कोरों का गीलापन,  होठों की थरथराहट पहले से ज़्यादा।  अब फ़ोन करने से पहले,  ख़ुद को कड़ा सा लेती हूँ कर,  उनकी हर बात पर कुछ हँसती हूँ ज़्यादा,  नाराज़ सी हो जाती है अक़्सर,  मेरी शीतल जलधारा सी माँ,  अब चुनमन बच्ची सी हो गयी है ज़्यादा।   … आगे पढ़ें
गर्मी की दोपहर में जल कर जो साया दे वो दरख़्त हो   बच्चों की किताबों में जो अपना बचपन ढूँढ़े वो “उस्ताद” हो तुम पिता हो तुम . . . पिता हो . . .    दुनिया से लड़ने का . . . रगों में ख़ून बन कर बहने का “जज़्बा” तुम हो . . . अपने खिलौनों को हर वक़्त तराशने के लिए . . . हाथों में गीली मिट्टी लिए रहता है वो “कुम्हार” हो तुम पिता हो तुम . . . पिता हो . . .   अपने अधूरे ख़्वाबों को पूरा जीने के लिए . . . ख़ुद की नींद को . . .बाँध कर जो फेंक दे वो “हौसला” . . . तुम हो पिता हो तुम . . . पिता हो . . .   ख़ुद से भी ज़्यादा ऊँचाई से देख पायें . . . इस दुनिया को . .… आगे पढ़ें
माँ हिन्दी  तुम मात्र मेरी आवाज़ की  अभिव्यक्ति नहीं हो  तुम वो हो  जिसे सुनने के बाद  दुनिया मुझे पहचान जाती है  मैं कौन हूँ  कहाँ से हूँ  ये जान जाती है    जब मैंने काग़ज़ पर  अपनी भावनाओं के रूप में  लिखा तुम्हें  तुमने बढ़ कर मुझे  कवि की संज्ञा दे दी    तुम्हारे ही साँचे में ढल कर  दिनकर और निराला की रचना हुई  साहित्य को साहित्य तुमने ही तो बनाया है  तुम ही वो  जो वीरों की दहाड़ बन कर  सरहदों पर  दुश्मनों को दहलाती है   तुम वो ही हो  जो लोरी बन कर  किसी बालक को  मीठी नींद सुलाती है    जब मन के भीतर  कोई रचना बन कर  टहलती हो तुम  मेरे चेहरे का नूर  कुछ और ही होता है    हिमालय के गर्भ से जन्मी हुई नदी को 'गंगा'  तुमने ही बनाया है   ब्रह्माण्ड स्वर ॐ  जब तुम्हारी सूरत बन… आगे पढ़ें
अध्यात्म की ओर बढ़ो राजन,  मोह का त्याग करो  इन वचनों के साथ मुनिराज विश्वामित्र  का  अयोध्या से प्रस्थान हुआ  राजा दशरथ को आज  समय बीतने का ज्ञान हुआ  दशरथ आज दर्पण के सामने हैं – श्वेत केश दुर्बल काया और झुके कंधों को देखते हैं  अयोध्या भूमि पर अब, नव पुष्प खिलने चाहिएँ राज मुकुट और सिंहासन को,  अब राम मिलने चाहिए!    राज गुरु वसिष्ठ से मिले राजन,  अपनी अभिलाषा व्यक्त की  राम को राजा रूप में देखूँ,   चरणों में इच्छा रख दी।   सुनकर कर हर्षित हो गुरु ने,  राजा को साधुवाद किया  हे राजन! मंत्री परिषद् का आह्वान करो  इस विचार को राज्य सभा में, तुरन्त रख दो  विलम्ब न हो इस काज में, ऐसा आदेश किया।   राज्य सभा बुलाई गई, राम राज तिलक का प्रस्ताव हुआ  सारी सभा के जयघोष से  इस शुभ कारज का आरम्भ हुआ  घोषणा हुई अयोध्या में, … आगे पढ़ें
नभ धरा दामिनी नर नारी रास रंग राग  भाव विभोर हो सब कृष्ण संग खेलें फाग      सूर्य किरण सलोने से छन कर      भूमि पर करे सुन्दर अल्पना      बृज धरा केशव रंग में रँगकर      देखो स्वर्ण भई आज  ग्वाल बाल गोविन्द संग नृत्यकला सीखें  पाताल हर्ष विभोर हो जब  हरिचरण दें थाप      गैयाँ रम्भाकर गल घंटियाँ छनकाएँ      ताल मिलाकर ध्वनि से मिलाएँ थाप से थाप  मनमोहक मधुर छवि श्याम को सुन्दर बनाएँ  हर गोपी ख़ुद मदन भई सुधबुध सारी बिसराई  मुरली ध्वनि ने देखो वो मोहपाश फेंका आज     मनोहर की छवि से चकित केवल नर-नारी ही नहीं      जमुना-तट गोवर्धन पर्वत पुष्प तरू लता मोरपंख      कोई भी स्वयं के बस में नहीं आज  राधिका माधव संग बैठ झूला झूलें  प्रेम पेंग बढ़ा कर गगन छू लें आज     नन्दगोपाल यादवेन्द्र मुरली… आगे पढ़ें
साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर तो श्याम बन जाते हैं   बाँसुरी अधरों का स्पर्श पाने को व्याकुल है  वो ख़ुद से ही कहती है  जाने अब साँवरी घटाओं में क्या ढूँढ़ रहे हैं  राधिका के आने तक मुझे क्यों नहीं सुन लेते  काफ़ी गीत याद किये हैं मैंने उनके लिए  एक मैं ही हूँ जो सदा साथ रहती हूँ   तब ही कुछ कहती हूँ  जब वो सुनना चाहते हैं  पवन तुम ही किंचित बहो ना   तुम्हारे स्पर्श से ही वो मुझे हाथों में ले लेंगे  ये क्या साँवरी घटाओं से सूर्य भी दर्शन देने लगे  वो भी दर्शन के प्यासे हैं  ओह कितना सुन्दर दृश्य है    स्वर्ण जैसी किरणों ने श्याम को छुआ  और देखते ही देखते   श्याम साँवरे “सलोने” हो गए  ये मनमोहक दृश्य सिर्फ़ मेरे लिए  सिर्फ़ मेरे लिए . . .   साँवरी घटाएँ पहन कर… आगे पढ़ें
प्रत्येक देशवासी अपने देश, अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा आदि से बहुत प्रेम करता है। हम देखते हैं कि जीविकोपार्जन हेतु भारत से बाहर जाने वाले प्रवासियों में से ऐसे अनेक प्रवासी है जिन्होंने अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक विरासत के रूप में हिन्दी को जीवित रखते हुए साहित्य सृजन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अपने उम्दा साहित्य सृजन के द्वारा इन सर्जकों ने प्रवासी हिन्दी साहित्य को काफ़ी समृद्ध किया है।  लाख छू आएँ  चिड़ियाँ आकाश को प्यार नीड़ से।      (कृष्णा वर्मा) इन चंद शब्दों में मानो एक तरह से प्रत्येक प्रवासी की भावना और विशेषतः प्रवासी सर्जकों की सृजनात्मक संवेदना की बुनियादी पहचान कराने वाली कृष्णा वर्मा ने विगत एक दशक में कैनेडा के सृजनात्मक हिन्दी साहित्य में अपनी एक विशेष जगह एवं पहचान बनाई। आज प्रवासी हिन्दी सर्जकों की लम्बी सूची में कृष्णा वर्मा का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। कृष्णा जी की… आगे पढ़ें
तारों की छाँव में विदाई का महूर्त था, सो नियमित समय पर एक बार फिर, सब सक्रिय हो गए—अंतिम चरण के रस्म-रिवाज़ निभाने के लिए। सीमा की उम्र यूँ तो इक्कीस वर्ष थी, पर शायद उसका अल्हड़ बचपन, यौवन की देहरी पर क़दम रखने के लिए एक दो बरस और माँग रहा था . . .  ख़ैर . . .  भारी लहँगे, ज़ेवर, और दिन भर की रस्मों से बोझिल तन लिए वह फूलों से सजी गाड़ी में जाकर बैठ गई-एक अनजान सफ़र की ओर, एक अनजान व्यक्ति के साथ . . .!  सब कुछ ठीक वैसे ही चल रहा था जैसे उसने सिनेमा में अक़्सर देखा था।  तभी उसने देखा उसके पिताजी भीड़ को चीरते हुए, एकदम खिड़की के पास आकर, रुआँसी आवाज़ में उसे पुचकार रहे हैं, उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा रहे हैं . . .।  सीमा अवाक्‌ रह गई . . . पापा रो रहे… आगे पढ़ें
आज नेहा के ऑफ़िस का वार्षिक उत्सव था। उसने अपने आप को एक बार फिर से आईने में निहारा-गुलाबी बनारसी साड़ी और उसपर सोने मोती का हार व झुमके-वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी! एक संतुष्टि भरी साँस लेकर, बड़े आत्मविश्वास के साथ उसने पर्स उठाया और तेज़ क़दमों से कमरे के बाहर निकली।  देहरी पर पहुँच कर न जाने क्यों उसके क़दम ठिठक गए, 'एक बार औरत के पाँव देहरी के पार गए, तो . . . ’ वो हड़बड़ा कर तेज़ क़दमों से चलकर गाड़ी में बैठ गई, पर सात साल पहले का मंज़र भी उसके साथ हो लिया।  बी.ए. का नतीजा हाथ मेंं लेकर वो मुस्कुराती, गुनगुनाती घर मेंं दाख़िल हुए थी। पिताजी ने गले लगाकर चाव से कहा, “अब होगा मेरी बिट्टो का एमबीए में दाख़िला और फिर किसी बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर . . ., ”और माँ ने बीच में ही… आगे पढ़ें
जाने क्यों और कैसे रोज़ ही अपने को कटघरे में खड़ा पाती,  वही वकील,  वही जज,  और वही  बेतुके सवाल होते,  मेरे पास न कोई सबूत और न गवाह होते,  कुछ देर छटपटा कर चुप हो जाती,  मेरी चुप्पी  मुझे गुनहगार ठहराती,  वकील और जज दोनों हाथ मिलाते,  मैं थककर लौट आती अपने घर को समेटने में फिर से लग जाती . . .!    सिलसिला चलता रहा . . .  फिर एक दिन  न जाने क्या हुआ बहुत थक गई थी शायद . . . ज़िन्दगी से नहीं,  उसकी कचहरी से,  सोचा— यदि मैं कटघरे में खड़े होने से इनकार कर दूँ तो . . .!  बस तुरन्त अपने को साबित करना बंद कर दिया,  हर काम डंके की चोट पर आरंभ कर दिया,  मैं सही करती रही और वही करती रही  जो मन भाया,  और वक़्त . . .  वह मेरी गवाही देता चला गया .… आगे पढ़ें
कई दिनों बाद अपने आप को आज आईने में देखा,  कुछ अधिक देर तक कुछ अधिक ग़ौर से!    रूबरू हुई— एक सच्ची सी सूरत और उसपर मुस्कुराती  कुछ हल्की सी सलवट,  बालों में झाँकती कुछ चाँदी की लड़ियाँ,  आँखों में संवेदना  शालीनता की नर्मी,  सारे मुखमंडल पर एक मनोरम सी शान्ति!    फिर, अनायास ही ख़ुद पर बहुत प्यार आया,  आज, मुझे मैं,  अपनी माँ सी लगी!!  आगे पढ़ें
नहीं है, तो न सही फ़ुर्सत किसी को,  चलो आज ख़ुद से,  मुलाक़ात कर लें . . .   वो मासूम बचपन,  लड़कपन की शोख़ी,  चलो आज ताज़ा,  वो दिन रात कर लें . . .   वो बिन डोर उड़ती,  पतंगों सी ख़्वाहिशें,  बेझिझक, ज़िन्दगी से,  होती फ़रमाइशें . . .   चलो ढूँढ़े उनको कभी थे जो अपने,  पिरो लाएँ, मोती-से,  कुछ बिखरे सपने . . .   यूँ तो, बुझ चुकी है,  आग हसरतों की,  कुछ चिंगारियाँ, पर  हैं अब भी दहकती . . .   दबे, ढके अंगारों की क़िस्मत सजा दें,  नाउम्मीद चाहतों को  फिर से पनाह दे!    न गिला, न शिकवा,  सब कुछ भुला दें,  दिल के, ख़ुश्क  आँगन में,  बेशर्त, बेशुमार,  नेह बरसा दें . . .!!    चलो  आज, ख़ुद से,  मुलाक़ात कर लें . . .!  आगे पढ़ें
“शंकर दा नहीं रहे मुनिया।” “ओह“ शंकरदा की उम्र हो चुकी थी। अभी-अभी मिल के आ रही थी उनसे चन्दननगर के इस बार के विज़िट के दौरान। शंकर दा मेरे पिताजी से दो-तीन साल बड़े थे। मेरे परदादा जी एक डॉक्टर थे और प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था उन्होंने। उनकी बाद में झेलम में पोस्टिंग हुई थी। बाद में जब वे चन्दननगर आ कर रहने लगे, तो शंकर दा हमारे घर काम पर लगे थे। शंकर दा अपने भाई-बहनों के साथ सामने ही एक मिट्टी की कुटिया में रहते थे। हमारे घर में उस वक़्त गायें हुआ करती थीं। गायों की देख-रेख से ले कर घर-आँगन बुहारने तक का काम शंकर दा ही करते थे। बाद में दादाजी और दादीजी और फिर आख़िरी तक हमारे घर वे काम करते रहे।  गर्मी की छुट्टियों में मैं हर साल दादा-दादी जी से मिलने चंदननगर जाया करती थी। कोरबा से… आगे पढ़ें
सात दिन बहुत ज़्यादा थे . . . शायद नहीं, बहुत कम। लिखने के लिए क्या था उसके पास? अभी कल ही सम्पादक का फ़ोन आया था। पिछले सप्ताह उसके उपन्यास की अगली कड़ी नहीं छप पाई थी। एक साप्ताहिक पत्रिका से उसने मेहनताना तो ले लिया था, मगर समय से यह कड़ी लिखने मेंं उसे देर हो गयी। सम्पादक ने एक छोटे से नोट मेंं पत्रिका मेंं पाठकों से क्षमा माँग ली थी। पर अब ऐसा न हो, यह भी चेता दिया था उसे कल फ़ोन पर।  पतझड़ के रंग-बिरंगे झरते पत्तों को देख कर उसे हमेशा ही अपने जीवन की कहानी याद आती है। चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, कहीं न कहीं किसी न किसी तरह उसके उपन्यासों मेंं उसे अपनी कहानी छिपी मिलती है। पाठक क्यों न पसंद करें, पुरुष वर्ग ख़ासकर? उसकी कहानी में एक माँ, एक आदर्श पत्नी, एक प्रेमिका, एक सुन्दर… आगे पढ़ें
मन कहाँ को चल चला तू,    छोड़ आया बाग़ सारे आसमाँ भर के सितारे चाँद हाथों से फिसल कर  गिर गया सागर किनारे  ढूँढ़ता क्या अब भला तू  मन कहाँ को चल चला तू    बहुत देखे प्रेम-बंधन,  मोह मेंं फँस झुलसता तन,  दौड़ता मन दिग्भ्रमित सा  और फिर ढल गया यौवन।  अब गिने क्यों कब जला तू,  मन कहाँ को चल चला तू॥   रात हो जब बहुत काली फूटती तब भोर-लाली  आस जब मुरझा रही हो,   विहँस आती बौर डाली  हारता क्यों हौसला तू,  मन कहाँ को चल चला तू॥ आगे पढ़ें
कैसे कह दूँ आँखों मेंं अब बाक़ी कोई स्वप्न नहीं है।    जब आँधी ने ज़ोर पकड़ ली तब भी हार नहीं मानी थी,  बारिश, तूफ़ाँ रात घनेरी सब से लड़ने की ठानी थी,  ध्वस्त क़िले मेंं बना खंडहर सो रहा है, मगर अभी भी सुंदर क़िस्से बाँच रहा है  थका नहीं है स्वप्न कभी भी    मिली नहीं हो जीवन भर की ख़ुशियाँ लेकिन बिखरी-बिखरी इधर-उधर मिल जायेंगी टुकड़ों मेंं, साथी, ढूँढ़! यहीं हैं . . .    यूँ तो जीवन बीत गया पर  अभी अधूरा सा लगता है,  क्या पाया क्या खोया बस यह गिनने में ही दिन कटता है  आँखें आँसू से धोती जब मेंरे दुख के मुर्झाये पल बच्चों की किलकारी से खिल उठता आँखों मेंं पलता कल   शाम ढले फिर हो जाता है दिल बोझिल पत्थर सा कोई वह जो छूट गया पीछे फिर मिलता क्या अब दोस्त कहीं है?    कैसे… आगे पढ़ें
माँ तेरी यादों के आगे जग के सारे बंधन झूठे।    जिस उँगली को हाथों थामें जीवन पथ पर चलना सीखा,  प्राण ऋणी हैं, जिस अमृत के उस अमृत बिन जीवन फीका,  याद नहीं करने को कहते बंधु-बांधव, हित मेंं मेंरे,  किन्तु भूलकर हर्ष मनाऊँ  इससे अच्छा जीवन छूटे।    बहुत कठिन है सूखे मरुथल मेंं पानी बिन प्यासे चलना,  मरीचिका से आस लगाये अपने को ही ख़ुद से छलना,  मेंरा हृदय बना है तेरी  स्मृतियों से सज्जित इक आँगन,  जैसे चौबारा तुलसी का  पूजा का यह क्रम ना टूटे   माँ तेरी यादों के आगे जग के सारे बंधन झूठे।  आगे पढ़ें
पेड़ ये ऐसे हरियाये फिर जैसे कभी झड़े न थे,  खा पछाड़ ओलों से  धरती पर पड़े न थे।  मुस्काते पत्तों के होंठ मोड़,  खिलखिलाते पतझड़ की याद छोड़।    पेड़ ये,  बस पेड़ नहीं,  चिड़ियों के घर हैं बच्चों का बचपन,  चहक-चहक चढ़ जिन पर विजयी से हर्षाए,  यौवन की प्रेम पाती तने-तने लिख आए।    वृक्षों की ठंडी साँसें  तपते तनों पर पंखा झलतीं हैं,  ग़रीबों का महल हैं मन्नत के धागे पहन खड़े विपदाओं के प्रहरी हैं।  तने तले बैठे मुस्काते हैं सालिगराम,  स्वीकारते सबका प्रणाम वर्ग और वर्ण भेद बिना।    एक पूरी दुनिया है इस पेड़ में  जड़ से फुनगी तक . . सब कुछ . . . मंत्र है, तंत्र है,  सबसे प्यार जताने को पॆड़,  पूर्णत: स्वतंत्र है।  आगे पढ़ें
मैं,  उलटती-पलटती रही इस अनुभूति को बहुत देर,  दिल और दिमाग़ के बीच की रेखा पर तौलती रही इसे,  शब्दों को पकाती रही सम्वेदना के भगौने में,  तब सोचा कि स्वीकार किये बिना अब कोई चारा नहीं है,  कि माँ,  मैं तुम सी न हो पाई।  मैं तुम सी न हो पाई!!    तुम,  अपनी नींद,  टुकड़ा-टुकड़ा हमारी किताबों में रख,  भोर की किरणों को परीक्षा पत्र सा बाँचती आई मैं, न कर पाई!    तुम,  हमारे स्वाद,  थालियों में सजा,  अपनी पसंद सिकोड़ती आई मैं, न कर पाई!    तुम्हारी,  प्रार्थनाओं की फैली चूनर में केवल हमारे सुखों की आस थी तुम कहीं नहीं थीं उसमें!  मैं,  न कर पाई!    तुमने बोलना सिखाया हमें और ख़ुद चुप होती चली गई!  तुमने कभी कहा नहीं परेशानियों में भी कि “अब तुम से होता नहीं”  और तुम्हारी हिम्मत मुक्त करती रही हमें अपराध बोध से!  तुमने कभी यह… आगे पढ़ें
पेड़ पर फुदकती है चिड़िया पत्ते हिलते, मुस्कुराते चिड़िया पत्तों में भरती है चमक,  डाली कुछ लचक कर समा लेती है चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,  और हरहरा उठता है पेड़ पेड़ खड़े हैं सदियों से,  चिड़िया है क्षणिक पर चिड़िया का होना ज़रूरी है॥    चिड़िया के गान पर गा उठता है पूरा जंगल,  चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को,  तान देती है पेड़ों के सिरों पर  धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में  जो वंचित है सूरज की ममता से,  चोंच से खोदती है मिट्टी में,  उजाले के अक्षर,  बोती है उनमें जीवन के कुहुकते बीज परों से सहला देती है दबी, कुचली घास को,  जिनको नहीं अपने महत्त्व का भान चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान!  जंगल है सदियों से चिड़िया है क्षणिक  पर चिड़िया का होना ज़रूरी है॥   ठीक वैसे ही,  जैसे,  कीचड़ सनी, धान रोपती औरतों… आगे पढ़ें
दिन की शतरंजी बिसात पर  हर बार रखा मैंने अपने मूड को उठा कर  तुम्हारे मूड की चाल के अनुसार और पूरी कोशश करी  अपने मूड को बचाने की।     पर तुम्हारा मूड बदलते ही पिट जाते हैं  मेरी युक्तियों के हाथी और वज़ीर!  बचती फिरती है मेरे उमंगों की रानी,  धैर्य के प्यादों के पीछे छिपता है,  मेरे अस्तित्व का राजा!     तुम्हारा ध्यान हटाने की कितनी भी कोशिश करूँ,  पर हर बार तुम्हारा मूड जीतता है और मात खा जाता है मेरा मूड . . . आगे पढ़ें
1. टूटे जीवन कोरोना से हारते तन औ मन!    2.  घर में बंदी चूल्हे सिसकते हैं काम में मंदी!    3. दुनिया डरे कब होगा ख़त्म ये जिए ना मरे!    4. मौत का डर मास्क-मनौती बाँधे रहना घर!    5.  ऋतु न माने लॉकडाउन रूल खिलते फूल   6.  प्रमथ्यु बन ग़लतियों को अपनी कर वहन!    7. शब्द नहीं ये  मन की सिलवटें काग़ज़ पर!  8. घने बादल बिजली की स्याही से लिखते हाल!  9.  घास के तन फूलों के दुपट्टे सा आया बसंत!    10.  याद बारात सपनों की आँखों में उतरी रात।  आगे पढ़ें
’बिना किसी सरनामें यानी भूमिका के मैं अपनी बात आप जैसे समझदारों के सामने रखना चाहती हूँ। आजकल मैं एक कहानी में हूँ। मैं नहीं जानती कि मैं कहानी लिख रही हूँ या यह कहानी मुझे पढ़ रही है। मेरे ज़ेहन पर यह एक साथ अनेक पायदानों पर चल रही है। यह ज़रूरी नहीं कि पहले ऐसा नहीं हुआ था पर इस समय यह अहसास एक ज़िंदा इंसान की तरह मेरे साथ चल रहा है कि मैं एक साथ अनेक जगहों पर हूँ। टूटी हुई नहीं, पूरी-पूरी!! एक ही इंसान पूरा-पूरा हर जगह कैसे हो सकता है? आप सोच सकते हैं, पर इस बात का जबाब मेरे पास नहीं है। कुछ लोग मिल जाएँगे कहने वाले कि यह नामुमकिन है, वो जो चाहें जो कहें पर मेरे पास वाक़ई इस बात की समझ नहीं है कि मैं एक साथ कई जगहों पर कैसे हूँ।  मैं, जैसे अपना बीते… आगे पढ़ें
गुरुदेव तुम्हारे चरणों में करती हूँ अर्पित,  मन के भाव सारे आज तुझे है समर्पित।    तृष्णा, लालसा और मनके सारे क्लेश,  अहंकार, वासना और क्रोध ईर्ष्या द्वेष।    पुष्पों की नहीं इन भावों की ले आयी हूँ माला,  कैसे करूँ आराधना जब मन में इतनी ज्वाला।    दुनिया की यह चमक, तुम कहते थे है माया,  कर्मों का है अनूठा खेल, श्वासों से बँधी काया।    मन में उठती नित तरंगें, लेती नित नए संकल्प,  कैसे रोकूँ इस प्रवाह को, क्या है मेरा विकल्प।    तुझ पर ही हूँ गुरुदेव अब पूर्णतः आश्रित,  अपनी दयादृष्टि से करो मेरा मन परिष्कृत।    फिर भर दो उसमें तुम थोड़ी करुणा थोड़ी भक्ति,  मोह माया को करके भंग, दे दो थोड़ी धैर्य शक्ति।    हृदय के विकार मिटा कर तुम दे दो ऐसे दृष्टि,  समत्व भाव से देख़ सकूँ ये प्रभु की अनुपम सृष्टि।  आगे पढ़ें
पूजा के थाल का चंदन हो तुम फूलों की ख़ुश्बू, रंगत हो तुम   जैसे भजनों की भावना हो तुम जैसे ईश की उपासना हो तुम!    हो सर्दी की धूप का उजियारा है रोशन तुमसे ये जग सारा   ईश्वर का मधुर वरदान हो तुम माता-पिता का सम्मान हो तुम   हो होठों पे ठहरी मुस्कुराहट हो जीवन में ख़ुशियों की आहट   हर छल दंभ से नादान हो तुम मन का स्वप्न, अरमान हो तुम   तुम्हारी बोलियों में बसता है जग तुम्हारे क्रंदन में रोता है सब   कंठ में खनकता गान हो तुम परिवार की अब पहचान हो तुम   दुनिया में मेरी छोटी दुनिया हो तुम मेरी बिटिया, मेरी मुनिया हो तुम आगे पढ़ें
जाने की उन्हें ज़िद थी, वो मुलाक़ात अधूरी रह गई होठों तक आयी तो मगर वो बात अधूरी रह गई।    साथ कुछ पल मिले, मगर वक़्त का तकाज़ा रहा गए ज़माने में किया, इक रात का बिसरा वादा रहा चाँदनी कुछ मद्धम पड़ी तो मगर रात अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    आगे बढ़ते जाने के उसूल कुछ हैं दुनियादारी के घिर रहना बीते यादों में हैं विपरीत समझदारी के संग मरने की थी क़सम ली साथ, अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    बहार कभी जहाँ खिले, दो फूल को वो तरसे चमन नैनों में जिनके थे बसे, उन्हें देखने ये तरसे नयन पलकें पुर नम हो रहीं पर बरसात अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    अक़्सर चाहत के फ़साने क़िस्मत को न… आगे पढ़ें
जीवन के दीर्घ विस्तार समान फैले इस अनंत आसमान की इस मधुमय सावन-संध्या में शायद मुझ सी बिन साथी हो चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    पावस का मेघमय सान्ध्य गगन मानों नीरव उर का सूना प्रांगण दूर क्षितिज निहाराते थके नयन मधु-स्मृतियों में तुम खो जाती हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    जाने क्यूँ हैं निश्चल अम्बर अवनी तमस चादर ओढ़े विकल है रजनी अंतर क्यूँ व्यथित विरहाकुल सजनी विरह व्यथा में जलती कोई बाती हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    मन के तारों को छू रहती ख़ामोशियाँ अँधेरी रातों में संग बस तनहाइयाँ गमगीन चेहरे को ढक लेती परछाइयाँ लगे चाँदनी रात काश अब न बाक़ी हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    प्रतीक्षा शेष अभी, क्या बाक़ी कोई तलाश है वीराने में क़दमों का मद्धम यह एहसास है?  वादों के पतझड़ में वसंत की क्या आस है?  सपनों की… आगे पढ़ें
निकल कर पहाड़ों की गोद से मैं लहराती, इठलाती,  अल्हड़ बाला सी मस्ती में उछलती पत्थरों पर कूदती वृक्षों की टहनियों पर झूलती शिखरों पर पले सपनों को  हृदय की गुफा में छुपा ज़मीन से जुड़ी रहती गाँव-गाँव, शहर-शहर विचरण करती दिशा भ्रमित होकर भी अपना पथ स्वयं बनाती अपने अस्तित्व से प्यासों की प्यास बुझाती गर्मी की तपिश दूर कर ठंडक भी पहुँचाती ऊपर से नीचे गिरने का साहस ले, झरना बन गिरती संबंधों की डोरी पकड़े वनस्पतियों संग बहती वन्य जीवों का जीवन बनती अग्नि से मेरा नहीं दूर-दूर का नाता जंगलों में लगती आग तो मेरा जल ही उसे बुझाता  निरंतरता का सबक़ ही सीखा है मैंने,  वही मुझमें विश्वास जगाता कभी शिवलिंग पर चढ़ाई जाती और मैं धन्य हो जाती आँगन बीच खड़े,  तुलसी के बिरवे में जल बन, औषधि उपजाती मेरी राह में जब-जब भी बाधाएँ आतीं महाकाली का रूप धर मैं उदण्ड… आगे पढ़ें
एक दिन लेखनी कवयित्री से बोली— क्यों रख छोड़ा है मुझे एक कोने में उठा लो मुझे कुछ कसरत करा दो तभी कवयित्री ने कहा— थक गयी हूँ बहुत अब जीवन से उठने का भी साहस नहीं है टूट चुकी हूँ दिन भर की जद्दोजेहद से शरीर भी दर्द का मारा है कैसे उठूँ! ना कोई सहारा है अब तो ये हाल है कि हर समय सहारे को ही पुकारा है   लेखनी— एक बार उठ, हिम्मत ना हार मुझे उठाकर काग़ज़ पर उतार भूल जाएगी तू सारे दर्द हो जायेगा सभी दर्दों का उपचार झाड़, अपनी दबी यादों की परत मस्तिष्क में जो दबे बैठें हैं शब्द उन शब्दों का मरहम बना घावों पर लेपकर और सहला खोलकर मन की गगरी एक काग़ज़ पर उँडेल हल्का हो जायेगा मन तेरा पायेगी नवचेतना और सवेरा अकेली पड़ी रहती है तू इसलिए तुझे विपदाओं ने है घेरा   कवियित्री… आगे पढ़ें
विमला आठ भाई बहनों में सबसे छोटी थी। माता पिता के पास धन का अभाव होने के कारण चाहते हुए भी विमला को बारह कक्षा पूरी होने के बाद पढ़ाई करने का कोई साधन नहीं मिल पाया। वह घर के काम-काज में ही लग गयी। चाहते हुए भी विमला को वह सब नहीं मिल सका जो हर युवती अपनी अट्ठारह वर्ष की उम्र में पहनना ओढ़ना चाहती है। एक डेढ़ वर्ष निकल गया। विमला के पिता, स्वरूप को अपनी बेटी की शादी की चिंता होने लगी। पैसा पास नहीं था इसलिए अच्छे घर वालों की माँगें पूरी नहीं कर सकते थे। माँ, पारो को एक दिन कोई पड़ोसिन मिली और उसने पारो से उसकी बेटी विमला के लिए एक रिश्ता बताया। लड़का अच्छे घर का था, अमरीका में था। उम्र ज़्यादा थी। वह चालीस वर्ष का था। पारो ने अपने पति से बात की। पिता ने भी सोचा,… आगे पढ़ें
भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम—अंग्रेज़ों के अत्याचारों से तंग आकर भारत में एक आन्दोलन शुरू हुआ जो १८५७ के गदर के नाम से प्रचलित हुआ। दिल्ली और मेरठ बड़ा सैनिक अड्डा होने के कारण वहाँ आन्दोलन की गतिविधियाँ बहुत ज़ोर पकड़ रहीं थीं। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। मेरठ में क़रीब २३५७ भारतीय सैनिक और २०३८ ब्रिटेन के सिपाही थे। पूरे मेरठ में अशान्ति का वातावरण था। बाज़ार में विद्रोह प्रदर्शन और आगजनी की घटनाएँ हो रही थीं। ”अँग्रेज़ों भारत छोड़ो“की भावना ने भारतीयों के मन में स्थान बना रखा था। सामान्य व्यक्तियों को घरों से निकलने की अनुमति नहीं थी। अनेकों घर बर्बाद हो रहे थे। सिपाहियों की पत्नियाँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ रही थीं। अनेक घरों में मातम छाया हुआ था। बालकों और औरतों को मौत के घाट उतारा जा रहा था। घर-घर में बैठक हो रही थीं। समय समय पर कर्फ़्यू लग जाता था। कभी… आगे पढ़ें
हमारे बड़े कहीं जाते नहीं वो यही रहते हैं . . .  हमारे मध्य . . .  वो झलकते हैं कभी किसी के चेहरे से,  और कभी किसी की बातों के लहजे से  कभी किसी बच्चे के तेवर में,  कभी किसी के संस्कार में,  कभी किसी की मुस्कान में,  कभी किसी के अभिमान में  कभी किसी के स्नेही स्वाभाव में  कभी किसी के निश्छल अनुराग में  वो यही हैं . . .    वो दीवारों में टँगी तस्वीरों में नहीं हैं  वो हमारे मानस में हैं  हमारी ऊर्जा, हमारी विश्वास में  हमारे संकल्प, हमारे साहस में हैं  हमारी प्रेरणा, हमारे प्रयास में हैं  वो यही है . . .    हमारे आचारों में, हमारे विचारों में।  हमारी भावनाओं में . . .  हमारे मूल्यों में . . .  हमारे रीत रिवाज़ों में . . .  हमारे रसोई के स्वाद में  वो यही है,  स्थूल देह में नहीं,  मगर… आगे पढ़ें
स्मृति पटल पर अंकित है,  आज भी,  मेरा प्यारा ननिहाल,  गर्मी की छुटियों का बस होता था  यही एकमात्र ख़्याल,  पेटियों में कपड़े, भर मन में उत्साह,  न कोई फ़िक्र, न कोई परवाह,  राजधानी या कोलफील्ड में लदना,  और नानी के घर धमकना    नानी— श्वेत साड़ी में बड़ी साधारण सी लगती थी,  मगर बरगद के वृक्ष सा विशाल उनका व्यकतित्व  पूरे घर पर छाया रहता था,  हवन के मंत्रों से करती थी सवेरा  घर के हर सदस्य पर रखती थी पहरा,  नानी,  मानो एक धागा थी  और हम सब मोती,  जिन्हें पिरो कर वह एक सुन्दर कण्ठहार बना रही थी . . .    मेरी मामियाँ- हाल में बैठी,  कभी क़ुछ चुगती, कभी कुछ बिनती, कभी कुछ चुनती  सहमी सहमी सी रहती थीं,  कुछ संकोच कुछ लज्जा की,  घूँघट ओढ़े रहती थी,  छोटी उम्र में ही बड़े दायित्व उठाना सीख रही थी नानी उनमे, अपनी कार्य कुशलता… आगे पढ़ें
निर्भय श्वास ले रहा, आज लाल चौक पर तिरंगा,  सशक्त करों में झूम रहा, जैसे शिव जटा में गंगा।    केसर उपजती जो घाटी, है केसरिया उसका मान,  न भूलों हमें मिली धरोहर, गुरु द्रोणाचार्य के बाण।    धैर्य सिखाया हमको बुध ने, महादेव ने तांडव,  मातृ भूमि के लिए हैं, हम मधुसूदन के पांडव।    सहिष्णुता को हमारी, समझ लिया अक्षमता,  विनाश काल में सदा विवेक ही पहले मरता।    कीट कीटाणु, प्राणी, जंतु में, हमने देखी अभिन्नता,  युग-युग से पाठ पढ़ाया, प्रेम सद्भावना और एकता।    बाधा विघ्न न डालो तुम, हमारा मार्ग प्रशस्त है,  एक हाथ में गीता है, दूजे में चामुंडी के शस्त्र है।  आगे पढ़ें
१९६८ में भारत से कैनेडा आने पर यकायक वह नन्ही बच्ची कहीं गुम सी हो गई जो माँ के पास बैठकर कभी शरतचंद्र की पुस्तकें पढ़ती तो कभी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' से नेह लगा बैठती। उर्दू और अँग्रेज़ी के विद्वान पिता से शेरो-शायरी सुनती तो कभी माँ की संगत में रामायण-पाठ करती। गुम हो गई वह युवती जो साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी काशी में एक साहित्य-स्नेही संभ्रांत परिवार में ब्याह कर आई। इस वय तक साहित्य भीतर अँखुआया ज़रूर लेकिन पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पाया था। परदेसी धरती पर इस आगमन और नए सिरे से जीवनयापन की चुनौतियों ने कुछ समय के लिए सृजन की मनोभूमि की उर्वरता ही अवरुद्ध कर दिया था लेकिन प्रवासी भारतीय हिंदी सेवी संस्थाओं और छोटी-छोटी संगोष्ठियों ने नए सिरे से सृजन के बिरवे को सींच दिया और इंदिरा जी की आंतिरक लय लिपिबद्ध हो उठी: “क्या मैं वही हूँ?  बताओ, क्या मैं अभी भी… आगे पढ़ें
ओ मेरी बिरहन रूह कैसी तेरी भटकन कैसी तेरी जिज्ञासा,  ले गई मुझे किन रास्तों पर तेरी अद्भुत आकांक्षा!    रेगिस्तानी जगह एक जंगल एक सुनसान  यहाँ पर था वो साधना-स्थान काफ़ी देर से सोचों में उभरता रहा जिसका नाम . . .    सज्दा इसे करने को  मैंने राहें कंधे धर लीं सैंकड़ों कोस के सफ़र की अंगुलियाँ मैंने पकड़ लीं . . .    वहाँ पहुँची तो  ख़ूबसूरत! सवारोओं1 ने बाँहें मेरे लिये खोल दीं कँटीली झाड़ियों ने ख़ैरियत-सुख पूछ ली  उड़-उड़ कर मिट्टी मुझे आलिंगन में भरने लगी  अपनी सी लगती थी जब आँखों में पड़ने लगी . . .    कोसी-कोसी धूप की ऊष्णता को पहली बार माना मैंने  क़ुदरत के इस रहस्य को पहली बार जाना मैंने . . .  कँटीले-काँटों की मुहबबत को पहली बार पहचाना मैंने . . .  चाहता था दिल  चलती जाऊँ . . . बस यूँ ही चलती… आगे पढ़ें
ओ अनादि सत्य  ए क़ुदरत के रहस्य  तू चाहे चिलकती धूप बन मिलना या गुनगुनी दोपहर की हरारत बन,  घोर अँधेरी रात बन मिलना  या श्वेत दूधिया चाँदनी भरा आँगन बन   मैं तुम्हें पहचान लूँगी,  खिड़की के शीशे पर पड़तीं  रिमझिम बूँदों की टप-टप में  दावानल में जलते गिरते  पेड़ों की कड़-कड़ में    मलय पर्वत से आती  सुहानी पवन की  सुगंधियों में मिलना  या हिम-नदियों की  धारों में मिलना    धरती की कोख में पड़े  किसी बीज में मिलना  या किसी बच्चे के गले में लटकते  ताबीज़ में मिलना  मैं तुम्हें पहचान लूँगी . . .    लहलहाती फ़सलों की मस्ती में या ग़रीबों की बस्ती में मिलना तू मिलना ज़रूर  मैं तुझे पहचान लूँगी   पतझड़ के मौसम में किसी चरवाहे की नज़र में उठते  उबाल में मिलना या धरती पर गिरे सूखे पत्तों के उछाल में मिलना!    मैं तुझे पहचान लूँगी किसी भिक्षु… आगे पढ़ें
कितना शुभ रहा होगा वो पल  जिस पल लिया गया था निर्णय कैनेडा तुम्हें अपनाने का यह किन्हीं पुण्य कर्मों का फल था या पुरखों का आशीर्वाद जो तुमसे मिलते ही होने लगी थी  प्रेम और श्रद्धा की अनुभूति पुलक उठा था मेरा रोम-रोम  बर्फ़ से अटा ठिठुरता तुम्हारा तन  पर भीतर ग़ज़ब की उष्णता  जो आए लगा लेते हो गले  जीत लेते हो मन अपने रवैयों से कितने प्यार से समो लेते हो  सबकोअपनी सशक्त बाँहों में  तुम्हारे विशाल हृदय पर कई बार भ्रम भी हुआ  पर फिर कभी लगता  कोई तो होगा जिसने  थाम लिया बढ़कर हाथ नई धरा पर न मन डोला  न लड़खड़ाए कभी पाँव कहीं ऐसा तो नहीं सोए पड़े हों  यहीं किसी क़ब्र में हमारे पूर्वज  जिन्हें चिरकाल से हो हमारा इंतज़ार वरना कब मिलता है सौतेली माँ से किसी को इतना अपनापन और सुकून माज़ी को याद करती हूँ  तो खो… आगे पढ़ें
बहुत ख़ूबसूरत दिन है, बारिश होकर निपटी है। धरती गीली-गीली दिख रही है, मानों जैसे नहाकर आई हो। मैं कभी खिड़की से बाहर पेड़ों और पक्षियों को देखती हूँ, तो कभी अपने ही ख़्यालों के समुंदर में गोते लगाने लग जाती हूँ। बैठे-बैठे ख़्याल आया कि क्यूँ ना कुछ ख़्यालों को शब्दों में ढाल कर काग़ज़ पे उतारूँ और फिर शुरू कर दिया मैंने यही सिलसिला।  इसको लिखने में मुझे कोई शब्दावली की पुस्तक नहीं देखनी पढ़ रही है, ना ही कोई उपन्यास पढ़ना पढ़ रहा है, बस मेरे मन में जो विचार आ रहे हैं उनको मैं शब्दों में ढाल रही हूँ।  लिख रही हूँ और विचार कर रही हूँ एक बहुत अनमोल तत्त्व की, जो इस धरा पर हर जगह है पर शायद काल के साथ, मशीनों और अत्याधुनिक तकनीकों में खो गया है:“प्यार” जी! जिसे हम और कई नाम से भी जानते हैं—प्रेम, स्नेह या… आगे पढ़ें
इतवार की ख़ूबसूरत सुबह थी, सूरज ने पलकें खोलीं और एक नयी दिन की शुरूआत हो गयी। और इस दिन के साथ शुरू हुआ यादों का सिलसिला। खट्टी-मीठी यादें। समय के साथ साथ हम ढल तो जाते हैं, पर एक चीज़ है जो कभी नहीं बदलती वे हैं—यादें। प्रकृति का नियम है की जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी हम में बदलाव आएगा, आना भी चाहिये तभी तो हम मनुष्य रुपी जीवन का भरपूर आनंद हर मायने में उठा सकते हैं। इन्हीं कुछ विचारों के साथ आज मैंने एक बार और क़लम उठा ली।  अपने देश से कोसों दूर बैठे कई बातें, कई छायाएँ अनायास ही आँखों के सामने आ जाती हैं, जैसे नानी का घर, दादी की सीख, संक्राति की पतंगबाज़ी, पोष-बड़ों का आनंद, धुलैंडी (होली) के रंग इत्यादि। वाह! क़ुदरत तेरा भी जवाब नहीं, मस्तिष्क में समाये, अपनों के साथ बिताए हज़ारों पल किस तरह एक चलचित्र के… आगे पढ़ें
वह औरत भी उसी अपार्टमेंट का हिस्सा है। कभी-कभार दोपहर के बाद यहाँ गोल घेरे के चक्कर लगाती, बेंच पर बैठ फोटो खींचती मुस्कुराती रहती है। चुस्त-दुरुस्त पेंट, जैकेट और स्नोबूट पहने पैरों को सँभलकर आहिस्ता-आहिस्ता रखती सैर करती है। यहाँ की नहीं लगती वह।  कॉफ़ी हाउस में ऊँची टेबल-कुर्सी पर बैठी पारदर्शी शीशे में से आती-जाती कारों को देखती कॉफ़ी के घूँट भरती है। बाहर कार में से उतर एक गोरी लड़की अपनी गोद में बच्चे को उठाये अंदर प्रवेश करती है। क़रीब चार साल का बच्चा उछल-उछलकर चीज़ों की माँग करता है। कॉफ़ी सर्व करने वाली लड़की जिसके ब्लोंड सुनहरी बाल हैं, बच्चे की ओर हो जाती है।  एक लंबा गोरा बूढ़ा, लंबी सी मोटी जैकेट पहने अंदर प्रवेश करता है। घुसते ही जैकेट को उतार कुर्सी पर रखकर ऑर्डर देता है, “वन मीडियम एक्सप्रैसो कॉफ़ी एंड गिव स्पेस फ़ॉर क्रीम।”  “विल यू लाइक अमेरिकन कॉफ़ी?”… आगे पढ़ें
यहाँ विदेश में  मेपल दरख़्त पत्तों की खड़खड़ाहट लदे फूल खिलखिलाती क़ुदरत घरों के अन्दर खिले फूल हरियाली से भरी कायनात थी।    मैं देखती रही आसमाँ भरा भरा बादलों का ग़ुबार  टप् टप् पिघलती बूँदें  लोगों का ग़ायब हुजूम    मँडरा रहा सूनी सड़कों में वायरस का साया था  क़रीने से पार्क की हुई कारें पहले जैसा जो था  वैसा ही हरा भरा था   कहीं कहीं इक्का-दुक्का लोग  बदहवास से सायों से डरते बर्फ़ से ढकी वादियों में साँ-साँ पत्ते लड़खड़ाते l गिरते बिखरते ख़ौफ़ से जूझते  धीमे से दर बन्द कर  अन्दर दुबक जाते  यह विदेशी लोग।    कल मेरे देश में बन्द था शाम होते होते  शंख नाद, मन्दिर की घंटियों का संगीत  थाली चम्मच कटोरी की आवाज़ से करोना  से महा जंग था    आओ जो कल था आज भी वही सुकून लाएँ घर परिवार संग बैठे और बतियाएँ . . . ‘कहा… आगे पढ़ें
हवा में उड़ते चमकते बिछलते टूटते  आकाशीय तारे कब बिखरे  मेरी धरती पर,  बन कीड़े मकोड़े  लाठियाँ खाते नाम शाहीन बाग़ का देते।    कचरा जीवन जीते दागी गोलियों में जनरल डायर का नाम खोजते भगत सिंह का नाम तोलते  शैक्सपीयर के नाटक में अदाकारी जोड़ते  और . . . ‘लाईक ए स्वाइन आन द सोइल’ जीवन जीने का नाम खोजते।    मेरे लोग हीरे जैसा जीवन गँवाते ज़ुबाँ से कर देते  उड़न-छू ग़ालिब  बसीर फिरते दफ़नाते  भुखमरी लाचार ज़िन्दगी ढोते कर्म कहीं  भ्रम कहीं पालते जड़ें पाताल में खोजते घर वापसी पर बेघर हो लुटे-पिटे से अपने पिंजर  आप ढोते  अथक चलते जाते आगे पढ़ें
एक लिफ़ाफ़े में घर की ख़बर आयी हैं सौंधी मिट्टी सी यादें बन घटा छाई हैं सिलवटों में पन्नों के आँखें टटोलें उन्हें पुराने चेहरों पे झुर्रियाँ जो नयी आयी हैं   ढूँढ़ो माँ की छुअन का सुकून ढूँढ़ लो मौन बाबा की आँखों की चुभन ढूँढ़ लो ढूँढ़ लाओ वो चैन जिसको कहते हैं घर वो जो ख़ुशियों में छुट्टे हैं कम, ढूँढ़ लो   दोस्तों संग थी नापी वो गलियाँ सड़क ढूँढ़ लो मोड़ छूटे, छूटे क़िस्से, वो छूटी नज़र ढूँढ़ लो  पाओ लीटर पे स्कूटर भगती जो मीलों तलक सरफिरों के वो दिल की धड़क ढूँढ़ लो   जो कहानी सुनी चाँद तारों तले ढूँढ़ लो जो टपके नानी की चंपी में वो सुकून ढूँढ़ लो दादी बुनती थी लेकर मेरे बचपन की ऊन प्यार वो, वो भरोसा, वो जतन ढूँढ़ लो   एक लिफ़ाफ़े में घर की ख़बर आयी हैं सौंधी मिट्टी सी यादें… आगे पढ़ें
मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब डिजिटल हो गया। नया आईफ़ोन लिया तो टेक्नीशियन ने पूछा क्या सेटिंग करूँ? सेटिंग के मामले में मैं अशिक्षित हूँ। पापा-मम्मी पचास साल पहले जो सेटिंग करवा गए वह अभी तक चल रही है। मैंने उससे भोलेपन में कह दिया, तुमको जैसी ठीक लगे वैसी सेटिंग कर दो। मेरे और फ़ोन के बीच टेक्नीशियन 'वह' जैसा था। फ़ोन प्रश्न पूछता तो वह मुझसे पूछता। मैं उत्तर देता तो वह फ़ोन में डाल देता।  पूरी गति से मैं खर्राटे भर रहा था और शायद ऊँची उठती अर्थव्यवस्था के सपने देख रहा था कि फ़ोन टर्राने लगा। मैंने उसे उठाया तो वह चालू हो गया, अब पासवर्ड की ज़रूरत नहीं थी। मेरा डिजिटल चेहरा फ़ोन में दर्ज़ था जो फ़ेस आईडी का काम कर रहा था। दनादन संदेश आ रहे थे। जो लोग मुझसे पहले उठकर सक्रिय हो गए थे उन्होंने डिजिटल… आगे पढ़ें
मैं हर तरह का संपादक रहा हूँ, इसलिए आत्म-कथ्य लिख रहा हूँ। सुधि पाठकों का मैं आभारी हूँ कि वे संपादक को महाज्ञाता समझते हैं, मोबाइल विश्वकोश समझते हैं और गूगल के सर्च इंजिन का आदिम संस्करण समझते हैं। पाठकों के दिमाग़ में संपादक की छवि, दुबले-पतले, दाढ़ी-धारी, चप्पल के साथ पैर घसीटते पुरुष की होती है। स्त्री-विमर्श के क्रान्तिकारी दौर में भी वे महिलाओं को संपादक के रूप में नहीं देखते। महिला अपने सामान्य रूप में सुन्दर मानी जाती है पर संपादक अपने असामान्य रूप में भी सुंदर नहीं होते।  साहित्यकार नहीं होते तो संपादक नहीं होता। जैसे आवश्यकता आविष्कार की जननी है, क्रिकेट अंपायर का जनक है, वैसे ही साहित्यकार, संपादक का जन्मदाता है। संपादक का सबसे ज़्यादा वक़्त और दिमाग़ कवि खाते हैं। न हो तो भी खाते हैं। रोज़ की डाक और ई-मेल से संपादक के पास औसतन दो-तीन कहानियाँ, चार-पाँच लेख और तीन… आगे पढ़ें
[पेरिस की कार्टून पत्रिका चार्ली हेब्दो को जहाँ 2015 में आतंकियों ने 12 लोगों को मार डाला था]    अख़बार के दफ़्तर  न संसद होते हैं  न सुप्रीम कोर्ट  न वेटिकन।  वे आईना होते हैं  टूटे-फूटे, तड़के और चटके  फिर भी वे बताते रहते हैं  जनता के हिस्से का सच।    वहाँ बैठे लोग  सामना कर रहे होते हैं  बरसों से तनी मशीनगनों  हैंड बमों, टैंकरों का  काग़ज़ और पेन पकड़े  आड़ी-टेड़ी रेखाएँ खींचते हुए।    आतंकियों सुनो चार्ली हेब्दो की इमारत  कह रही है  अख़बार की जीभ काटोगे करोड़ों शब्द निकल आएँगे अपने शब्दकोशों से।  अख़बार की आँखें फोड़ोगे  अरबों लोगों की आँखें  देखने लगेंगी उनकी जगह।    चार्ली हेब्दो में बहा ख़ून  अभिव्यक्ति को सींचेगा पैनेपन से  देखना तुम  वह हर बार सिद्ध कर जाएगा  तलवार पर भारी पड़ती है  क़लम की धार।  आगे पढ़ें
मशीनी हाथ  पेड़ को ज़मीन से काट  कर देते हैं अलग  मशीनी हाथ तने को उठा  छाँट देते हैं डालियाँ मशीनी हाथ घड़ देते हैं  लकड़ी का आकार  मानक लंबाई, चौड़ाई में  मशीनी हाथ समेट देते हैं  जंगल रातोंरात  पोंछ देते हैं धरती का राग।  मशीनी हाथ एक दिन मशीनी मुँह तक जाने लगेंगे  आदमी को दबोच कर।  आगे पढ़ें
अध्ययन कक्ष में  अपने आसपास घना अँधेरा रच कर  टेबल लैंप की केंद्रित रौशनी में  खुली आँखों से एकाग्र होने की मेरी कोशिश  और फिर टेलिस्कोप से  आकाश की सीमाओं में झाँकना  बहुत अजनबी बना देता है मुझे ख़ुद से।  यूँ भी निहारिकाओं और  आकाशगंगाओं के बारे में पढ़ते हुए अपनी दीवार के उस पार के लोग  अजनबी लगने लगे हैं मुझे।    कसैली कॉफ़ी की सिप के साथ  मैं पुनः खो जाना चाहता हूँ  ब्रह्मांड और उसके उल्कापिंडों में  प्रकाशवर्षों की दूरियों को मापते हुए जिन्हें कभी मैंने महसूस नहीं किया अरबों तारों और उनके सौर मंडलों के बारे में सोचना बेमानी लगता है अब।    पेंसिल की नोक भोथरी हो गई है ग्रहों और तारों का  रेखीय पथ खींचते हुए।  अपने हाथों से  पहियों वाला पटिया धकेलते हुए  वो रोज़ रोटी की आस में आता है इधर बाहर से आ रही चरमराहट जानी पहचानी है जो… आगे पढ़ें
नहीं है आवश्यकता,  किसी ज्योतिषी की मुझे,  क्यों कि,  जो समझ रही हूँ,  “कि मैं हूँ”  वह मैं हूँ ही नहीं,  एक विभ्रम है।  क्यों कि,  जिस सबको अपना,  समझ रही हूँ,  कि“यह मेरा है,”  वस्तुत: वह मेरा है ही नहीं,  सौग़ात है प्रभु की।    वास्तव में जीवन,  एक अभिनय है,  जगत एक रंगमंच,  और मैं, एक अदना सा पात्र।    जिस देश में,  परिवेश में,  जिस वेश में,  विधाता ने, है मुझे भेजा,  वह, नियति है मेरी।    जिस भी जगह मैं हूँ,  वहाँ, उस रंगमंच पर,  अभिनय करना है मुझे।     मेरा कुटुम्ब व सब रिश्ते नाते,  अन्य पात्र हैं,  इस नाटक के।  न कोई स्क्रिप्ट है,  न मिलेगा अवसर एक भी,  रिहर्सल के लिये,  इस नाटक का।    मिला है रोल जो मुझे,  अदा करना है उसे,  बहुत ध्यान से,  चुनने है स्वयं मुझे अपने,  आवेग, संवेदनायें व भाव भंगिमायें,  कुशलता से, विवेक से,… आगे पढ़ें
आ गया बसंत है उत्सुकता से, आतुरता से,  अपलक नयन बिछाये,  जग कर रहा प्रतीक्षा जिसकी,  वह आ गया बसंत है।    दिव्य प्रकृति की ऋतुयें सारी,  पर वसंत ऋतु सबसे न्यारी।  क्यों कि, ऋतुराज बसंत है,  ऋतुओं का राजा वसंत है,  सब ऋतुओं में सबसे प्यारा,  मुझको बसंत है।    हौले-हौले, चुपके-चुपके,  आ गया बसंत है।  नाचो-गाओ, धूम मचाओ,  आ गया बसंत है।  अनुपम आल्हाद लेकर,  सुनहरा प्रकाश लेकर,  मलयज बयार लेकर,  सुरभित बहार लेकर,  फूलों का शृंगार कर के,  रिमझिम फुहार लेकर,  रुपहरी चाँदनी बिखेरता,  आ गया बसंत है।    तरुवर सब हैं धुले धुले,  हरित, मोहक मुस्कान धरे,  नूतन परिधान पहर,  शीतल नयनों को करें,  क्योंकि आ गया, बसंत है,  आ गया बसंत है।    जीव जंतु जगे सभी,  रच रहें हैं मधुर नाद, जैसे ऑर्केस्ट्रा चिड़ियाँ हैं चहक रही,  कोयले हैं कुहुक रही,  गिलहरियाँ फुदक रहीं और मयूर नाच रहे,  ख़ुशियों की थिरकन लिये, … आगे पढ़ें
गहन भारी-भरकम अत्याधिक दारुण समस्याएँ जीवन कष्टकर दिन पर दिन बनाएँ रोज़ी-रोटी लेन-देन दवा-दारू साफ़-सफ़ाई  सूक्ष्म सूक्ष्मतर प्लास्टिक हवा-पानी-मिट्टी में,  पशु-पक्षी-प्राणी हर में   फ्रेकिंग समुद्र तल खनन (डीप-सी माइनिंग)  पिघलते ध्रुव दोनों धुआँ-धूँ जलते वन छोर छोर कार्बन पदचिन्ह का बढ़ता ज़ोर अब लो कोविड वायरस फैला हर ओर    पेड़  पेड़ों से है आशा  सिर तने से लगा अंक में ख़ुद को छुपा शाखा का झूला बना   निहारें फूल  खाएँ फल चाहे पिएँ  नीरा औ' ताड़ी   इनकी छाया तले ठंडक बयार मिले पंछी कुहू करें   हम वन स्नान करें बस चैन की साँस भरें आगे पढ़ें
कविता की किताब पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई मैरी ओलिवर ने पूछा  क्या करोगी अपनी इकलौती उत्कृष्ट ज़िन्दगी के साथ  तुम्हें अच्छा होने की आवश्यकता नहीं तुम्हें घुटनों के बल चलने की आवश्यकता नहीं कुछ तुम अपना दर्द सुनाओ, कुछ मैं अपना   पेंटिंग देखते-देखते उसमें जैसे खो गई  मॅरी प्रॅट ने कहा इमेज ही बन जाओ, रंग भावना है  जो सामने है उसमें छिपे छोटे-छोटे यथार्थ हैं साधारण में है अपनापन, गहराई है ज्यों अंगूरों के गुच्छे में, सृष्टि समाई है   काउच पर बैठ उँघते-उँघते आँख लग गई मेरी अंतरात्मा ने कहा अनुभव ही लिख जाओ, मन की बात दिखाओ  मैरी ओलिवर की सुन लो, मॅरी प्रॅट की समझ लो मेरी समझ आया यह—मेरी माया मुझ से विस्तृत   शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम आगे पढ़ें
अवसादों की भीड़भाड़ में,  और विषाद के परिहास में,  प्राणों के सूने आँगन में,  अश्कों के बहते प्रवाह में,  मधु स्मृति!  तुम थोड़ा मन बहला दो,  तुम थोड़ा मन बहला दो।    आज बहकती सी यादों में,  आज थमे मेरे सपनों में,  अश्क धुले मेरे अंतर में,  एक दीप जला दो!  मधु स्मृति!  तुम एक दीप जला दो!    यादों की बढ़ती बाढ़ों में,  अश्कों के चुपचाप गुज़रते  इस अविरल बहते प्रवाह में,  थोड़ी सी गति ला दो!  तुम थोड़ी सी गति ला दो!    अरी, प्रतीक्षा के बन्धन पर,  शत शत मुक्ति लुटा दूँ,  मैं शत शत मुक्ति लुटा दूँ,  प्रणय अश्रु के दो कण पर  शत शत मुस्कान लुटा दूँ,  मैं शत शत मुस्कान लुटा दूँ!  प्रिय लौटेगें कल,  मधु स्मृति!  तुम आज मधुर बना दो!  तुम आज मधुर बना दो!  आगे पढ़ें
अश्रु, तुम अंतर की गाथा  चुपके चुपके कहते  अंतरतम को खोल,  जगत के आगे रखते,  तुम बिन, गरिमा, प्यार, व्यथा  की गाथा कौन भला कहते?    अनुभावों की कथा आज  बोलो यूँ कौन कहा फिरते,  आज छिपा असमंजस मन में  वफ़ादार कैसे कह लूँ,  बोलो मीत अरे, ओ मेरे  वफ़ादार कैसे कह लूँ?    तुम अंतर को खोल जगत के आगे मेरा रखते,  अंतर में रहते तुम मेरे  पर जग से साझी करते,  यह अधिकार मीत ओ मेरे  बोलो तुमने कैसे पाया?  याद नहीं कब मैंने तुमको  यह अधिकार दिलाया?    फिर भी मीत मान, अरे  अंतर में तुमको रखती  और पुनः अंतर से मेरे  यह आवाज़ निकलती  तुम बिन गरिमा, प्यार, व्यथा की गाथा कौन भला कहते,  अनुभावों की कथा आज  बोलो यूँ कौन कहा फिरते?  बोलो यूँ कौन कहा फिरते?  आगे पढ़ें
तुमने मुझे  धरती पर  इस उत्सव में  आने का निमंत्रण  दिया था,  और मैं अपने गीत  गाने आ गई,  मेरे गीतों को सुन कर  क्या तुम बताओगे  कि मेरे गीत  इस उत्सव में  माधुर्य घोल सके?    समुद्र की लहरों  की तरह,  मेरे उन्मुक्त गीत  किनारे से टकरा कर  तुम्हें ढूँढ़ रहे हैं,  क्या तुम मेरे गीतों को  शब्दों के बंधन से  मुक्त कर,  अपनी बाँसुरी में ढाल  मुझे सुनाओगे?  आगे पढ़ें
सम्भावनाओं की धरती: कैनेडा गद्य संकलन  समीक्षक: डॉ. अरुणा अजितसरिया एम बी ई  प्रकाशक: पुस्तक बाज़ार.कॉम  सम्पादक मंडल मुख्य सम्पादक: डॉ. शैलजा सक्सेना, सुमन कुमार घई सह सम्पादक: आशा बर्मन, कृष्णा वर्मा  ग्राफ़िक्स: पूनम चंद्रा ‘मनु’ साहित्य की इंद्रदनुषी विधाओं में कैनेडा के स्थापित और उदीयमान रचनाकारों की विविध रचनाओं को संकलित करके हिंदी की वरिष्ठ लेखिका, डॉ. शैलजा सक्सेना और सुमन कुमार घई जी ने कैनेडा निवासी प्रवासी हिंदी लेखकों की रचनाओं का महोत्सव मनाया है। भारत के अलग-अलग प्रांतों में जन्मे और शिक्षित हुए ये लेखक कैनेडा की धरती में बस कर विभिन्न व्यवसायों में सक्रिय हैं। उनके कार्यक्षेत्र और जीवन के अनुभव एक दूसरे से भिन्न हैं, पर उनमें एक सामान्य विशेषता है जो उन्हें एकसूत्र में बाँधती है और वह है हिंदी के प्रति उनका अगाध प्रेम! उनका लेखन उनकी उस मानसिकता को इंगित करता है कि वे भारत से जितनी दूर हैं दर्पण… आगे पढ़ें
वह रोज़ सुबह काम पर जाती थी। कभी आठ बजे तो कभी आठ बजकर पाँच मिनट पर। शाम चार से सवा चार बजे के बीच बिल्डिंग में उसकी वापसी हो ही जाती थी। समय की इतनी पाबंद कि चाहो तो उसके आने-जाने से अपनी घड़ी का समय मिला लो। सुबह-सवेरे टिक-टिक करता घड़ी का काँटा इधर आठ के आसपास पहुँचा नहीं कि उधर घड़ी के काँटों से क़दम मिलाती उसकी हड़बड़ाती चाल पट-पट करती दरवाज़े से बाहर। पिछले दस सालों से यही है उसकी दिनचर्या। उसकी ढलती उम्र को देखकर तो लगता है जैसे रिटायर हुए दस-पंद्रह साल तो हो ही गए होंगे, लेकिन नहीं वह काम कर रही है अभी, बेहद चुस्ती से, पाबंदी से कर रही है। जिस तरह से वह दरवाज़े से बाहर निकलती है लगता है एक पल की भी देर हो गयी तो उसे उसके काम वालों द्वारा फाँसी पर लटका दिया जाएगा। … आगे पढ़ें
सब लोग मुझे ‘स्पॉइल्ड चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं, मेरी नानी ‘स्पॉइल्ड नानी’ हैं, ‘प्राब्लम नानी’ हैं। कोई भी मेरी आपबीती सुने तो उसे पता चले कि सचमुच मेरी हालत कितनी ख़राब है। सबको तरस आएगा, मुझ पर भी और मेरी परेशानियों पर भी। कोई एक बात हो तो बताऊँ, सुबह से शाम तक ऐसी हज़ारों बातें हैं जहाँ पर नानी मेरे लिये परेशानियाँ खड़ी करती रहती हैं। नानी के इमोशनल अत्याचार की मैं आदी हूँ वह मुझ पर काम नहीं करता पर उनके जो भाषण के अत्याचार लगातार कानों में कीले ठोकते हैं वे मेरी उम्र लगातार कम करके मुझे बच्ची बना देते हैं।  कभी-कभी मुझे लगता है कि किसी ने उनके अंदर एक कैसेट डाल दी है जो मुझे देखते ही बजने लगती है। रोज़ एक जैसी हिदायतें, एक जैसी बातें, एक जैसे सवाल। सवालों के जवाब नहीं मिलने पर रिकॉर्डेड… आगे पढ़ें
पुस्तक: कुछ सम कुछ विषम (कविता संग्रह)  लेखक: धर्मपाल महेन्द्र जैन  प्रकाशक: आईसेक्ट पब्लिकेशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल मूल्य: ₹200, पृष्ठ–152, वर्ष–2021   सामजिक संचेतना के जागरूक कवि धर्मपाल महेंद्र जैन के नए काव्य संकलन (कुछ सम कुछ विषम) को पढ़ते समय याद आए कुबेरनाथ राय: ‘हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी देह में नहीं, चित्त में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही मानविकी के शास्त्रों का, विशेषतः साहित्य का मूल धर्म है’।  कुबेरनाथ राय की बात संकलन में संगृहीत (इक्यानवे) कविताओं में शब्दशः परिलक्षित होती है। इसलिए कि ये आज के आदमी की अस्मिता से जुड़ी हैं। फिर वह सुबकियाँ भरती स्त्री हो, या खंडित देह जीता पुरुष। आदमी के देह में सिमट जाने का अर्थ है कि वह अन्य जीव-जंतुओं से श्रेष्ठ नहीं है। भागवतकार वेदव्यास कहते हैं ‘यहाँ मनुष्य… आगे पढ़ें
सोचते हुये बहुत समय हो गया कि बाबूजी के जीवन के विषय में कुछ लिखूँ परन्तु कहाँ से आरंभ करूँ और क्या-क्या बताऊँ उनके बारे में, यह समझ ही नहीं पा रही थी। अनेक महान आत्माओं की कथायें लिखी गईं हैं व हम सभी उनसे कुछ न कुछ सीखते भी हैं; परन्तु वे आत्माएँ हमारे निजी जीवन से दूर होती हैं। हम उन्हें दूसरी दृष्टि से ही देखते हैं। मेरे बाबूजी, मेरे श्वसुर, तो मेरे विवाह के बाद पास ही रहे, यह मेरा कितना बड़ा सौभाग्य रहा, शब्दों में बताना कठिन है और लिखना तो और भी कठिन। फिर भी प्रयास तो करूँगी। मेरे बाबूजी जिनका पूरा नाम था, डॉ. मुकुंद स्वरूप वर्मा, ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय १९२३ में, लखनऊ से मेडिकल पास करके जायन किया, जहाँ वे महामना मदन मोहन मालवीय जी के सानिध्य में व उनके बाद उनके पुत्र गोविंद मालवीय के साथ रहे व काम… आगे पढ़ें
मैं हवा हूँ बड़ी दूर की,  महकती, चहकती सुन्दर बयार।  आप जानते हैं मुझे,  आस पास ही रहती हूँ आपके,  कभी सोते से जगा देती हूँ,  स्वप्न में भी बहुधा आ जाती हूँ।    वह प्यार दुलार जो  आपके साथ सदा रहता है,  मैं ही तो ले आती हूँ  और सुगन्धित कर देती हूँ आपके चारों ओर।    वह जल की कल-कल,  स्वस्ति गान मन्दिरों के,  सुनते रहते हैं हम सब जिन्हें झटपट अपने पंखों पर पसार लाती हूँ मैं!    संगीत की वह स्वर लहरी,  रास लीला की मधुर गूँज  जिसे सुनकर आप विभोर हुए थे कभी,  मैं ही चुरा लाई थी, नंद गाँव बरसाने से।    वह गुदगुदाती लपकती लहरें  जिनसे सराबोर हो जाते हैं मन प्राण,  और कोई नहीं मैं ही ले आती हूँ आपके पास,  और हाँ तिरंगे के रंग तो मेरे पास ही रहते हैं,  जो मैं हरे खेतों में देखती हूँ,  केसर… आगे पढ़ें
मुझे मेरी उम्र से मत आँको,  मेरे बालों के रंग से भी नहीं,  न मेरे नाम, न मेरे भार से, मेरे पहनावे से,  मेरे चेहरे पर जो तिल है,  वह भी मेरी पहचान नहीं हैं।  मुझे पहचानो मेरी आवाज़ से,  जो सुबह उठ कर बोलती हूँ तो  भारी लगती है जैसे गला रुँधा हुआ हो,  जो शब्द मैं बोलती हूँ,  उन किताबों से, जो मैं पढ़ती हूँ,  उस मुस्कान से,  जो कभी कभी मैं छुपा जाती हूँ,  उन गीतों से जो मैं अकेले में गाती हूँ,  मेरे आँसुओं से, मेरी खिलखिलाती मीठी हँसीं से,  मैं किन स्थानों में घूमती रही?  मेरा घर कहाँ है? मेरे कमरे में कौन सी तस्वीरें लगी हैं?  मेरा प्यार, मेरा विश्वास कहाँ है,  वह मेरी असली पहचान है,  उस से आँको मुझे!  मेरे चारों ओर सुन्दरता है परन्तु लगता है— वह सब भुला दिया तुमने और जो मैं नहीं हूँ  उन्हीं आँकड़ों से… आगे पढ़ें
आज मैंने बहुत सारी चिट्ठियाँ फाड़ डालीं,  बरसों से फ़ोल्डर में रखी हुई थीं,  कभी कभी निकाल कर पढ़ लेती, रो लेती हँस लेती।  आज फिर पढ़ने लगी, माँ की बीमारी,  बहन की शादी, भाई की पिता जी से बहस,  पति का प्यार मनुहार, बच्चों की ज़िद  सभी कुछ मिला उन सहेजे हुए ख़तों में,  बार बार पढ़ कर मन में रख लिया सब कुछ!  ख़तों का काग़ज़ भी पुराना होकर  तार तार सा होने लगा था,  स्याही हल्की हो गई थी,  पढ़ पाना भी कठिन हो रहा था।  वैसा ही जैसे जीवन में होता है, यादें धुँधली,  वे कहानियाँ जो उन चिट्ठियों में बुनी गईं थी— बेसहारा सी लगीं,  जैसे झूल रही हों किसी झंझावात में— बिना पतवार के,  माता पिता, भाई बहन बच्चों की  पुरानी बातों ने तो नये आकार ले लिये थे,  मन में, तस्वीरों में, कविता कहानी के पन्नों में।  अब उनमें दर्द नहीं… आगे पढ़ें
अब मैं उस कोने वाले मकान में नहीं रहती हूँ, अब उस मकान में कोई और ही रहता है। उस मकान में आकर उसे घर बनाया, सजाया सँवारा, धीरे धीरे वहाँ अच्छा लगने लगा, वह शीशे की गोल मेज़, मैं दुकान में देखा करती थी, रसोई के एक कोने में लगाई, कितनी ही तस्वीरें जो अख़बारों में लिपटी पड़ी थीं, निकालीं और दीवारों पर सजाईं। किताबों और चित्रकारी के लिये नीचे का बड़ा कमरा ठीक किया, वहाँ कभी कभी संगीत का कार्यक्रम भी होता था। फिर रहते रहते वहाँ शहनाइयाँ गूँजीं, नये मेहमान आये, किलकारियाँ सुनाई पड़ी, हाँ, उनके लिये खिलौने रखने की जगह भी तो बनाई थी। फिर धीरे धीरे जाना भी शुरू हो गया, लाठी की खटखट जो ऊपर के कमरे से सुनाई पड़ती थी और जिसे सुन कर अच्छा लगता था, बंद हो गई, दोस्तों के ठहाके व खाने के लिये उनका ज़ोर से पुकारना… आगे पढ़ें
आज मैंने भी एक दिया जलाया, देखती रही उसे देर तक! सोचती रही, सब इसकी लौ में लपेट लूँगी। और ले जाऊँगी कहीं दूर एक छोटी सी पोटली में बाँध कर! वही, ज़िन्दगी के सुनहरे लम्हें,  जो उस दिन – अलाव पर हाथ सेंकते हुये दिये थे तुमने,  और देते ही रहे,  हैं मेरे पास, आज भी। उन्हीं से सुलगाती रहती हूँ...  वह अनमने से,  अकेले से पल,  जो घने बादलों की भाँति  ओढ़ लेते हैं  मेरी खिड़की से आती हुई  उस हल्की हल्की गरमाई को! आज मैंने भी एक दिया जलाया! देखती रही उसे देर तक! आगे पढ़ें
वह जल्दी से मेरे पैर छूकर चला गया,  आशीर्वाद के शब्द बोलती मैं उसके पीछे पीछे आई तो पर वह चलता गया मैं सोचती रही उसने सुनें तो होगें,  मेरे वे शब्द जो मन से निकलते है कभी कभी, कहीं धुँधलके में विलीन हो जाने के लिये मन की गहराइयों में पड़े रहने के लिये।    शब्द जो दिन रात, सोते जागते हम सुनते हैं, अनसुनी भी करते हैं फिर उन्हीं को स्मरण करने का प्रयत्न करते हैं कभी कभी।    काश मेरे आशीर्वाद के शब्द कोई सुनें ना सुनें, उनका प्रभाव उनके जीवन पर पड़े एक घने वृक्ष की छाया की भाँति, सुखद बयार की भाँति।    इन्हीं विचारों में खोई मैं बाहर तक पहुँच गई, तब देखा वह कार के पास खड़ा, हाथ जोड़े, धीमी सी मुस्कान लिये,  स्वीकार रहा था, मेरे आशीर्वाद को।  आगे पढ़ें
 (यह बातचीत 2020 के प्रारंभ में हुई थी)    डॉ. नूतन पाण्डेय— शैलजा जी सबसे पहले पाठकों को ये बताएँ कि चूँकि आपका जन्म दिल्ली में हुआ, आपकी समस्त शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई, आप दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में भी कार्य कर रही थीं? टोरोंटो आकर बसना किन परिस्थितियों के कारण हुआ और किन कारणों से आपको यहीं का होकर रह जाना पड़ा।  शैलजा सक्सेना—  जी, जन्म तो मथुरा में हुआ पर हम दिल्ली रहते थे। मथुरा में बाबा-दादी, ताऊजी-ताईजी का घर था सो आना-जाना लगा रहता था पर शिक्षा-दीक्षा यहीं दिल्ली में ही हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पढ़ी और यहीं पढ़ा रही थी। 1991 में विवाह के बाद भी हम लोग वहीं थे पर तब तक सन्‌ 2000 में (वाईटूके) कम्प्यूटर सिस्टम फ़ेल होने की आशंका का समय था तो 90 के दशक से ही अमरीका में कम्प्यूटर इंजीनियर्स की बहुत माँग थी,… आगे पढ़ें
 डॉ. दीपक पाण्डेय— हंसादीप जी आपका हिन्दी-लेखन के प्रति लगाव कैसे उत्पन्न हुआ और इसमें परिवार की क्या भूमिका है?  डॉ. हंसा दीप—  धन्यवाद दीपक जी, आपके साथ संवाद प्रारंभ करना मेरा सौभाग्य है। परिवार व हिन्दी-लेखन दोनों ही जीवन के दो अंग-से हैं। ऐसे स्तंभ हैं ये दोनों जो मज़बूत नींव भी देते हैं और अँधेरों में लाइट हाउस की तरह रौशनी भी देते हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्र मेघनगर, ज़िला झाबुआ, मध्यप्रदेश में जन्म लेकर पली-बढ़ी मैं बचपन से ही आसपास के माहौल से आंदोलित होती रही। एक ओर शोषण, भूख और ग़रीबी से त्रस्त आदिवासी भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते, एक ओढ़ी हुई ज़िन्दगी जीते हुए मध्यमवर्गीय परिवार थे। हर किसी का अपना संघर्ष था। रोटी-कपड़ा-मकान के लिये जूझते आसपास के लोग मन को दु:खी करते थे। मालवा की मिट्टी और मेघनगर का पानी संवेदित लेखनी को सींचते रहे। हालाँकि… आगे पढ़ें
डॉ. दीपक पाण्डेय— आप कैनेडा में रहते हुए अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रही हैं। आपके कैनेडा आने का क्या प्रयोजन और परिस्थितियाँ थीं?  स्नेह ठाकुर—  यह नहीं जानती कि मैं अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को कितना समृद्ध कर रही हूँ! हाँ, अपनी लेखनी द्वारा अनवरत बुद्धिदात्री, कल्याणकारी, वीणावादिनी, हँसवाहिनी, वागीश्वरी, माँ सरस्वती के चरण-कमलों में अपने शब्दों की पुष्पांजलि सदैव अर्पित करते रहने का प्रयास अवश्य कर रही हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे माँ सरस्वती, माँ भारती की वंदना करने का सौभाग्य बचपन से ही प्राप्त हुआ है। रहा कैनेडा आने का प्रयोजन, तो उसे नियति का पूर्व-नियोजन ही कह सकते हैं। 1965 में विवाहोपरांत लंदन, इंग्लैंड आई। मेरे पति श्री सत्य पाल ठाकुर पहले से ही वहाँ रहते थे और बी.ओ.ए.सी. एअर लाइंस में कार्यरत थे, जिस कारण हमें अनेक देशों में भ्रमण करने का आनंद प्राप्त हुआ। ठाकुर साहब… आगे पढ़ें
डॉ. नूतन पाण्डेय— आपका जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में हुआ, कृपया बताएँ आपका बचपन किस परिवेश में बीता, आस पास का वातावरण कैसा था?  राधेश्याम त्रिपाठी—  बहुत बहुत धन्यवाद नूतन जी। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव जेवाँ में हुआ था। जब मैं एक या दो साल का था, मेरे पिता जी की अकाल मृत्यु हो गई थी। मेरी माता ने किस प्रकार मुझे और मेरी छोटी बहन को सँभाला और पाला, मुझे कुछ पता नहीं। इसके बाद मैं गाँव के प्राइमरी स्कूल में जाने लगा और उसके बाद दूसरे क़स्बे पुवायां में मिडिल स्कूल तक पढ़ाई की। इसके बाद वहीं के दयानन्द हाईस्कूल में ग्रेड 8 में पढ़ रहा था और वहीं पर ही मैंने अँग्रेज़ी पढ़ना शुरू किया। आठवीं कक्षा में मेरे एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि हम लोग प्राइवेट हाईस्कूल की परीक्षा दे सकते हैं। मैंने… आगे पढ़ें
डॉ. नूतन पाण्डेय— आपको विश्व हिन्दी सम्मान के लिए बहुत बहुत बधाई।  रत्नाकर नराले—  नूतन जी, बहुत-बहुत धन्यवाद, मैं आपके माध्यम से भारत सरकार को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि मुझे इस सम्मान के योग्य समझा गया। मैं आपको और अपने सभी मित्रों को भी अपने प्रति शुभकामनाओं के लिए आभार व्यक्त करता हूँ। यदि आपकी अनुमति हो, तो, इस प्रश्न का उत्तर मैं संगीतमय छंदोबद्ध कविता के माध्यम से देना चाहूँगा।  कैनेडा निवासी डॉ. रत्नाकर नराले से डॉ. नूतन पाण्डेय का संवाद जी अवश्य  रत्नाकर नराले— मेरा मानना है कि–- अश्वत्थस्य परं दिव्यं बीजं सूक्ष्ममणोरिवम्।  पतितं यत्रकुत्रापि महावृक्षस्य कारणम्॥ पद्मपुष्पं प्रफुल्लति पंकजं यच्च नीरजं।  माया गुणप्रभावस्य तमसोऽपि चकाश्यते॥ अतः सूक्ष्म बीज अश्वत्थ का, जिसमें दिव्य कमाल।  गिरा जहाँ, बढ़ कर वहीं, बनता वृक्ष विशाल॥ पुष्प फूलता कमल का, कीचड़ हो या नीर।  सात्त्विक गुण के ओज से, पार होत कर तीर॥ माता ने हमको कहा, रहो कहीं… आगे पढ़ें
दीपक पाण्डेय— धर्म जी आप कैनेडा में रहकर हिंदी सृजन कर रहे हैं, झाबुआ से अमेरिका और कैनेडा तक आपका हिंदी सफ़र कैसा रहा। विश्व-गाथा में प्रकाशित व्यंग्य 'गंगा गूंगी है' पढ़ा जो रोचक और वास्तविकता की बयानी करता है। हिंदी-लेखन में आपकी रुचि कैसे बनी?   धर्मपाल महेंद्र जैन— लेखन में रुचि स्कूल के दिनों में ही विकसित होना शुरू हुई और पहली कविता जल्दी ही स्वदेश (इंदौर) के मार्च 1966 के होली विशेषांक में छप गई। मेघनगर (झाबुआ) से अमेरिका और कैनेडा तक की यात्रा की कोई पूर्वयोजना नहीं थी। जो मिला वही मुकद्दर समझ लिया की तर्ज़ पर घर से निकला तो ठौर-ठौर दूर होता गया। 1972 में दैनिक स्वदेश के संपादक मंडल में शामिल हुआ, कुछ महीने काम किया और एम.एससी. करने उज्जैन चला गया। 1974 से बैंक ऑफ़ इंडिया की उज्जैन शाखा में काम करते हुए बैंक की मुंबई से प्रकाशित गृह पत्रिका 'द… आगे पढ़ें
अभी भी हाथ से कुछ नहीं फिसला! ज्यों का त्यों सब धरा है तेरी हथेली पे।  "ज़िद से नहीं बिटिया विवेक से काम ले, ज़िद से तो पछतावे ही हाथ आते हैं। समझ क्यों नहीं रही ऐसा निर्णय लेने का मतलब है जान-बूझकर ख़ुद को अँधेरों में ढकेलना। अपना नहीं तो इसका ही सोच ले। होते-सोते क्यों इसे पिता के प्यार से वंचित करना चाहती है। कहीं तेरी अक़्ल कोमा में तो नहीं चली गई? बोलती क्यों नहीं? ना बोलने की क़सम खाई है क्या? मेरा फ़र्ज़ था समझाना, समझ में आई हो तो ठीक वरना जो जी में आए कर!"  ना हूँ, ना हाँ, बस बुत बनी बैठी मैं सुनती रही थी माँ की बातें। कितना रोई थी माँ उस दिन। भाभी ने भी कितना समझाया था—जल्दबाज़ी ना करो विशाखा, समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। कुछ समय तो दो रिश्ते को पकने का। एक बार… आगे पढ़ें
बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें  लेकिन भींच लेता हूँ मुट्ठी में  कसकर सोच की लगाम  चाहे कितना भी दबा लूँ  अंतस की आग को  फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से  थक गए हैं मेरे हवास  लगा-लगा कर होंठों पर ताला  अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से  जिसे कब का बे-मायने कर दिया है तुम्हारी हठधर्मियों ने  चाह कर भी कस नहीं पाता मन  ढीली हुई रिश्तों की दावन को  सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द  तुम्हारे ग़ुरूर को बेधने को  मेरी चुप्पियाँ  तुम्हारी अना की जीत नहीं  अपितु गृह कुंड में शान्ति की आहुति है  अच्छा होगा जो अब भी थाम लो तुम  अपनी कुंद सोच के क़दम ऐसा न हो रह जाए कल तुम्हारी ज़िद की मुट्ठी में केवल पछतावा।  आगे पढ़ें
अम्मा के आँचल में था ख़ुश बचपन मेरा चन्दा के घर था परियों का डेरा  पलकों पर नींदें थीं  सपनों का फेरा  बाँहों के झूले थे  काँधे की सवारी  पीठ का घोड़ा था  थी मस्ती किलकारी  छोटी-सी चाहें थीं  भोली-सी बातें  तनिक रूठ जाते थे सारे मनाते  गलियाँ बुलाती थीं अपना बताती थीं संगी थे, साथी थे ख़ुशियों की थाती थी रूठी अब राहें हैं अपने पराए हैं सपने न नींदें हैं रातें जगाए हैं दिखावा छलावा है झूठ चालाकी है अपनापा क़ब्रों में प्रेम प्रवासी है नानी औ दादी अब बीती कहानी है बाँचे व्यथा किससे चहुँ दिश वीरानी है।  आगे पढ़ें
प्रेम से उद्वेलित हूँ तो विष से भी हूँ लबरेज़ राग-द्वेष-आक्रोश सब समाहित हैं मुझमें यूँ न देख मुझे नहीं हूँ मैं  निरीह निस्सहाय-सी सदियों से सींच रहा है मेरा अनुराग तेरे प्राण  संपूर्ण हूँ स्वयं में मैं किन्हीं दुआओं और मन्नतों का परिणाम नहीं और न ही किसी पीर की दरगाह के ताबीज़ का असर हूँ बेक़द्री और मलाल से सिंचा  बड़ा पुख़्ता वुजूद हूँ मैं ग़ज़ब की है जिजीविषा मेरी तभी तो पी लेती हूँ सहज ही  सारी तल्ख़ियाँ और कठोरता  यूँ भी कड़वा कसैला पीना किसी साधारण जन के बस की बात नहीं  जानती हूँ समय से आँख मिलाना  तभी तो जी लेती हूँ लम्बी उम्र तक  बिना किसी करवाचौथ के सहारे के।  आगे पढ़ें
मेरी कोमल देह पर पाँव रखकर सुकून पाने वालो भूल न जाना  मेरी तपन के तेवर  मुझे मुट्ठियों में भींचने की जी तोड़ कोशिश करने वाला स्वयं तोड़ बैठता है अपनी क्षमता का भ्रम समन्दर भी नहीं बाँध पाता मुझे जानता है आज़ाद ख़्याल रेत की फ़ितरत नहीं होती मुट्ठियों की क़ैद में रहना।  आगे पढ़ें
दोपहर का समय था और आनन्द ब्रेक में खाना खाने के लिये कैफ़ेटेरिया में जाने की तैयारी कर ही रहा था कि एकाएक दरवाज़े की घण्टी बजी। दरवाज़ा खोलने पर आनन्द ने अपने डैडी को सामने खड़ा पाया।  “अरे डैडी, आप अचानक कैसे? आज सुबह ही तो मैं घर से यहाँ आया हूँ। एकाएक क्या कोई बिज़नेस का काम आ पड़ा?"  “नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है। तुम्हारे यहाँ आने से पहले मैं तुम से मिल नहीं पाया था,” डैडी ने उत्तर दिया।  “अरे डैडी, आप तो बिला वजह फ़िकर करते हैं,” आनन्द ने हँसते हुए कहा। “मैं कोई छोटा सा बच्चा तो हूँ नहीं, और आप इतनी मामूली सी एक बात को लेकर परेशान हो गये हो,” इतना कह कर आनन्द हँस पड़ा।  आनन्द की बात सुनकर अनिल को कुछ अजीब सा लगा। अचानक कोई गुज़री हुई याद ताज़ा हो गई और इससे पहले कि वो… आगे पढ़ें
1962 में मैं उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत मण्डल के इलाहबाद सब-डिविज़न में एस। डी। ओ। लगा हुआ था। हमारे विवाह के कुछ महीने बाद श्रीमती जी के बड़े भैया का मॉन्ट्रियाल कैनेडा से पत्र आया। इसमें उन्होंने कैनेडा की कई इंजिनियरिंग कम्पनियों के नाम और पते लिखे थे, और साथ साथ मुझे एप्लाई करने का सुझाव भी दिया था। पत्र पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि मेरा बाहर जाने का जो स्वप्न था, उसके पूरा होने का समय आ गया है। बस, एक सप्ताह के अन्दर ही मैं ने सब कम्पनियों में जॉब के लिये पत्र डाल दिये। चाहे मुझे ’मुकद्दर का सिकन्दर’ कहिये या कुछ और, छह सप्ताह में ही मॉन्ट्रियाल की एक इंजिनियरिंग कम्पनी का नियुक्ति पत्र ’अपॉइन्टमैण्ट लैटर’ आ गया और मुझे चार महीने के अन्दर जॉइन करने को कहा। मेरा अगला क़दम कैनेडा की इमिग्रेशन लेने का था और इसके लिये मैं ने दिल्ली… आगे पढ़ें
दो बेटियों के बाद जब दिवाकर के यहाँ बेटा पैदा हुआ तो उसकी ख़ुशियों का अन्दाज़ा लगाना बहुत मुश्किल था। ’दो बेटियाँ और एक बेटा, चलो अब अपना परिवार पूरा हुआ’ यह सोच कर दिवाकर और उसकी पत्नि सुनीती बहुत प्रसन्न हुए।  बच्चे के जन्म के सात दिन बाद दिवाकर जन्मकुण्डली बनवाने के लिये पण्डित बैजनाथ से मिलने गये। पण्डित जी ने नक्षत्रों को देख कर प्रदीप नाम सुझाया। फिर बोले, “सेठजी, और सब तो ठीक है, बच्चा बहुत होनहार होगा परन्तु इस बालक का आपको कोई सुख नहीं मिलेगा।”  यह सुनकर दिवाकर विचलित तो बहुत हुआ परन्तु अपने मन के भावों को पण्डित जी पर भी प्रकट नहीं होने दिया। बात ऐसी थी कि इस बालक के जन्म से पहले उसके एक पुत्र और एक पुत्री की बाल्य अवस्था में मृत्यु हो गई थी। अब तो दिवाकर के दिमाग़ में यह बात घर कर गई कि ये… आगे पढ़ें
समीक्षित पुस्तक: क्या तुमको भी ऐसा लगा? (काव्य संकलन) लेखक: शैलजा सक्सेना वर्ष: प्रथम संस्करण २०१४  प्रकाशक: अयन प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ संख्या: मूल्य: लगभग बीस बरस पहले भारत से विदेश प्रवास कर गई कवयित्री शैलजा को जो सम्बन्ध एक बार फिर हिन्दुस्तान की ज़मीन और हिंदी की दुनिया में खींच लाया वह है कविता से उनका सम्बन्ध। पिछले तीस वर्षों के अंतराल में, समय-समय पर सिरजी जाती कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इन रचनाओं का पहला संकलन हाल ही में ‘क्या तुमको भी ऐसा लगा?’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं की भावप्रवणता पाठक को एक अलग स्तर पर प्रभावित करती है। सर्दियों में पत्तों से छनकर आती धूप जिस तरह रोशनी और गरमाहट देती है शैलजा की ये कविताएँ विचारधारा और विमर्शों की टकराहट से लैस आज की कविता के माहौल में अपनी कोमल संवेदनशीलता से उसी तरह का मासूम अनुभव बाँटती हैं।  इन… आगे पढ़ें
मार्च का आरंभ था। दूसरा सत्र समाप्त होने वाला था। इस कारण स्कूल में पढ़ाई का ज़ोर बढ़ चला था। मार्च की छुट्टियों से पहले बच्चों की रिपोर्ट देनी होती है। उसके लिए हम अध्यापकों को अपनी कक्षाओं को कई टैस्ट देने थे, हम सभी उसमें व्यस्त थे।  उस दिन, कक्षा में पहुँच कर मैंने बच्चों को गणित का प्रश्नपत्र बाँट दिया। जो भी सवाल उस प्रश्ननपत्र में पूछे गए थे, बच्चे उनसे अच्छी तरह अवगत थे। कई सप्ताहों से इन्हीं पर काम किया जा रहा था। प्रश्नपत्र से सम्बंधित ज़रूरी बातें समझा कर मैंने निश्चिन्तता की साँस ली और मेज़ पर रखा कागज़-पत्रों का ढेर अपनी ओर खिसका लिया। पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ाई का स्तर बढ़ा हो या नहीं, काग़ज़ी लिखा-पढ़ी का बोझ बहुत ही बढ़ गया है। इतने दिनों में न जाने कितनी चीज़ें जमा हो गई थीं, जिन पर ध्यान… आगे पढ़ें
ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।    शर्त व्यापी जगत में वह जीत में है, हार में है।  दो जनों के सख्य,  सारी प्रकृति के व्यवहार में है।  शर्त पूरी यदि न हो, उत्तप्त साँसों की धरा से,  देख कर तुम ही कहो, वह श्याम घन झरता कहीं है?  ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।    साथ की है शर्त क्या?  बस प्यार को तुम मान दोगे।  थक चलूँगी मैं जहाँ,  बढ़, बाँह मेरी थाम लोगे।  बिन सहारा नेह-बाती का मिले, तुम स्वयं देखो,  लौ लिये निष्कंप दीपक, प्यार का जलता नहीं है।    दे सके तुम प्रेम तो,  उस स्नेह का प्रतिदान दूँगी।  है अपेक्षा कुछ न तुमको,  बात कैसे मान लूँगी?  मनुज हैं सामान्य हम और सत्य तुम यह जान लो प्रिय,  एकतरफ़ा प्यार से यह मन सहज भरता नहीं है,  ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।  आगे पढ़ें
बेटे का मुँह भर माँ कहना,  बेटी का दो पल संग रहना,  मेंरे सुख की छाँह यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    बहुत बढ़ गया मानव आगे,  चाँद नाप आया पाँवों से।  मेंरी परिधि बहुत ही सीमित,  बाँधे हूँ, बस, दो बाँहों से।    बच्चों का यों खुल कर हँसना,  गले अचानक ही आ लगना,  मेरा सब कुछ आज यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    जीवन के ये बड़े-बड़े सुख,  मिलें सदा छोटी बातों से।  डरता है मन, फिसल न जाएँ,  अनजाने में निज हाथों से।    इनका यह बिन बात मचलना,  पल में मनना, फिर आ मिलना।  मेरा सुख-साम्राज्य यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    हो साधारण, प्यार बहुत है,  मुझको निज अमोल सपनों से।  घिरी रहूँ जीवन संध्या में,  स्नेह ज्योति से, बस, अपनों से।    जाड़ों की हो धूप गुनगुनी,  साथ-संग मिल बैठें हम सब।  चुप कुछ सुनना, हँस… आगे पढ़ें
दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    कट गई है आयु काफ़ी नाचते विधि की धुनों पर,  आ लगी है नाव जीवन- सरित के नीरव तटों पर।  समय आया, डाँड़ छोड़ें,  धार से अब ध्यान मोड़ें।  किन्तु फिर-फिर मन हठी यह,  थामता पतवार क्यों है?  दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    मोह की आँधी प्रबल है कठिन है इससे उबरना,  हम भला कब चाहते हैं,  सत्य में ही “विदा” कहना?  मन अटकता है अभी भी,  इस जगत के बन्धनों में,  नेह-निर्मित नीड़ जिसको  छोड़ने की सोचते ही,  उठ पड़ा मन-प्राण में,  यह तुमुल हाहाकार क्यों है?  दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    हुए पूरे, कुछ अधूरे,  चित्र जो मन आँकता है।  रंग भर दूँ और थोड़े,  समय इतना माँगता है।  एक क्षण भी अधिक अपने  प्राप्य से मिलना नहीं है।  ज़िद से, मनुहार से,  इस नियम को… आगे पढ़ें
क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    लेख में मेरे जगत की कौन सी उपलब्धि संचित?  अनलिखा रह जाय तो होगा भला कब, कौन वंचित?  कौन तपता मन मरुस्थल काव्य मेरा सींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    भाव शिशु निर्द्वन्द्व सोया हुआ है मन की तहों में।  क्यों जगा कर छोड़ दूँ,  खो दूँ जगत की हलचलों में?  है प्रलोभन वह कहाँ  जो इसे बाहर खींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    छू सके जग हृदय को,  कब लेखनी ने शक्ति पाई?  कब, कहाँ, इससे, किसी के  भाव ने अभिव्यक्ति पाई?  कौन इससे पा सहारा,  नयन दो पल मींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    लिखूँ, और, अपने लिए,  यह बात मन भाती नहीं है,  क्योंकि अपने लिए जीने की कला आती नहीं है।  निज… आगे पढ़ें
मैं अच्छा-भला चल रही थी।  सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,  गाते हुए, प्रकृति का आनन्द लेते हुए,    गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,  पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।  कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,  मन-बुद्धि पर था सम्यक्‌ नियन्त्रण।    सहसा मैंने पाया कि पता नहीं कब से  मेरे समकक्ष ही  कुछ लोग दौड़ रहे थे।    और न जाने क्यों स्वयं को उनके साथ  प्रतियोगिता में खड़ा कर,  मैं भी उनके साथ ही दौड़ने लगी।    गन्तव्य तो पहले से ही  स्पष्ट न था, और अब दिशाहारा होकर,    मन, बुद्धि, सुख, सन्तोष सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।    और बच रहे मात्र दिग्भ्रमित दो पैर,  और उनकी अनवरत गति।  आगे पढ़ें
कभी कभी मुझे ऐसा होता है प्रतीत,  कि मेरी कविताओं का भी  बन गया है अपना व्यक्तित्व।    वे मुझे बुलाती हैं,  हँसाती हैं, रुलाती हैं,  बहुत दिनों तक उपेक्षित रहने पर मुझसे रूठ भी जाती हैं।    करती हुई ठिठोली,  एक दिन एक कविता मुझसे बोली “तुम मुझे कभी नहीं पढ़ती हो,  दूसरी कविता को मुझसे ज़्यादा प्यार जो करती हो।”    एक कविता ने तो हद ही कर दी,  जब वह एक सिरचढ़ी किशोरी सी हठात् घोषणा सी करने लगी “तुम्हें करना होगा कोई उपाय,  मेरे साथ नहीं हुआ है न्याय।”    मैं आश्चर्य से उसे देखती रही।  और वह अपनी धुन में कहती चली गयी।  “मेरे कुछ शब्दों को बदल दो,  तो मैं और निखर जाऊँगी,  अभी मेरा स्वर धीमा है,  कुछ और मुखर हो जाऊँगी”    मैंने उसे समझाया,  “मेरे जीवन में मेरे सिवाय और भी बहुत कुछ है।  मेरा घर, मेरे बच्चे,  मेरे… आगे पढ़ें
आरम्भ से अबतक दूसरों की अपेक्षाओं को सुनने-समझने तथा पूरा करने के प्रयास में लगी-लगी, मैं भूल ही गयी कि स्वयं से भी मेरी कोई अपेक्षा भी है क्या?    पहले माता-पिता की,  उसके पश्चात् पति की अपेक्षाओं से अवकाश मिला ही न था कि समय आ गया है कि समझूँ, हमारे बच्चे हमसे क्या चाहते हैं?    तीन पीढ़ियों की अपेक्षाओं से जूझते हुए मुझे क्या मिला?  मुझे मिला सुरक्षाओं का  एक ऐसा सुदृढ़ कवच कि उसमें जकड़ी-जकड़ी मैं निरन्तर भूलती चली गयी कि आख़िर मैं स्वयं से भी क्या चाहती हूँ?    अब तो स्थिति यह है कि मेरा सारा अपनापन, मेरे अपनों में इतना विलय हो चुका है कि उससे पृथक्‌ मेरा अस्तित्व ही कहाँ रहा है? तो अब मैं क्या, और मेरी अपेक्षायें भी क्या?  आगे पढ़ें
यह प्रश्नचिन्ह क्यों बार-बार?  क्यों उसे जीत, क्यों मुझे हार?  यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?    जीवन में जो भी किये कर्म,  तत्समय लगा था, वही धर्म।  यदि अनजाने ही हुई भूल,  लगता जीवन से गया सार॥   यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  इच्छाओं का तो नहीं अन्त,  मन छू लेता है दिग-दिगन्त।  इस मन को ही यदि कर लूँ जय,  हो जाये कष्टों से निस्तार॥   यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  क्यों मुझको बनना है विशिष्ट?  क्यों नहीं काम्य है सहज शिष्ट?  सब सौंप उसे यह कठिन भार,  निश्चिन्त रहूँ, पा सुख अपार।    यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  क्यों उसे जीत, क्यों मुझे हार?  यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  आगे पढ़ें
कहानी: पगड़ी लेखक: सुमन कुमार घई   आजकल प्रवासी हिन्दी साहित्य में कहानियाँ ख़ूब लिखी जा रही हैं और वे हिन्दी कहानी की मुख्य धारा के समांतर क़दम से क़दम मिलाकर चल भी रही हैं। ये कहानियाँ बदले हुए सामाजिक परिवेश में प्रवासी भारतीयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को उनके परिवर्तित सोच-संस्कार के साथ प्रस्तुत करती हैं। विदेश की धरती पर बसे हुए भारतीय मूल के लोगों की बदली हुई जीवन शैली, टूटते-बिखरते भारतीय संस्कार हमें चौंकाते नहीं; क्योंकि वही वहाँ का आम जीवन है और देश-काल की माँग भी यही है। यह सब पढ़ते हुए हम इस आधुनिक यथार्थ को सहजता से स्वीकारते चले जाते हैं। लेकिन एक सकारात्मक विस्मय तो तब होता है जब हम प्रवासी हिन्दी साहित्य के सुपरिचित कथाकार सुमन घई की कहानी 'पगड़ी' से रूबरू होते हैं।  आधुनिक देहवादी सभ्यता को बहुत धीमे स्वर में, पर मुँहतोड़ जवाब देती है यह कहानी।… आगे पढ़ें
कहानी: पगड़ी  लेखक: सुमन कुमार घई    हम हर दिन कई कहानियाँ सुनते है, कई कहानियाँ पढ़ते हैं और अगर रचनाकार हैं तो कई कहानियाँ लिखते भी हैं। कुछ कहानियाँ दिल को छू जाती हैं, कुछ से हम अभिभूत हो जाते हैं, कुछ रुला देती हैं लेकिन कुछ एक-आध कहानियाँ हमें उनके बारे में लिखने के लिए विवश कर देती है। ऐसी ही एक कहानी 15 जनवरी 2022 में वातायन-यूके, हिंदी राइटरर्स गिल्ड, कैनेडा और वैश्विक हिंदी परिवार के मंच पर आयोजित ‘दो देश-दो कहानियाँ’ के अंतर्गत सुनी थी जिसने उसकी समीक्षा लिखने को मजबूर कर दिया। कहानी का नाम है ‘पगड़ी’ और लेखक हैं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार और संपादक सुमन कुमार घई जो पिछले कई दशकों से कैनेडा की भूमि में हिंदी की अनवरत सेवा कर रहे हैं।  समुचित शीर्षक, बोधगम्य भाषा, सरल शब्दावली, संवेगों का धारा प्रवाह और सुगठित कथानक . . . सभी अत्यंत सराहनीय… आगे पढ़ें
रचना समीक्षा: पगड़ी का दार्शनिक चिंतन – डॉ. पद्मावती रचना समीक्षा: धीमे स्वर में गहराई से बोलती कहानी – अंजना वर्मा   हरभजन सिंह बेचैन थे। उनकी बेचैनी उनके कमरे की दीवारों को भेदती हुई पूरे घर में पसर रही थी। यहाँ तक नीचे रसोई में काम कर रही उनकी बहू गुरप्रीत भी उसे महसूस कर सकती थी। गुरप्रीत भी सुबह से सोच रही थी कि ऐसी कौन सी बात है जो कि दारजी को इतना परेशान कर रही है और वह उसे कह नहीं पा रहे हैं। घर में भी तो कुछ ऐसा नहीं घटा जो दारजी को बुरा लगा हो। वैसे भी उनकी आदत तो इतनी अच्छी है कि कोई भी ऊँची-नीची बात हो जाए तो वह बड़ी सहजता से उसे एक तरफ़ कर देते हैं और अपने परिवार की शान्ति में कोई अन्तर नहीं आने देते। आज तो अभी तक नाश्ता करने के लिए भी नीचे… आगे पढ़ें
प्रत्येक वर्ष मातॄदिवस के अवसर पर मेरे स्मृतिपटल पर मेरी स्नेहमयी माता के साथ-साथ एक और चेहरा अंकित होता है और वह है मेरी दादी का, जो मेरी माँ से सर्वथा भिन्न है। रंग-रूप में अत्यन्त साधारण होते हुए भी वे एक असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी थी।  श्यामवर्ण, घने-घुँघराले बाल, अत्यन्त साधारण नयन-नक़्श और उनके मुख पर कभी-कभार ही खिलती मुस्कुराहट–ऐसी थी हमारी दादी। वे जब हँसती तो हम बच्चे अवाक्‌ होकर उन्हें देखने लगते कि आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया? उसके पश्चात हम बच्चे जहाँ सतर्कता त्याग, सहजता से किलकना व शोर मचाना आरम्भ करते, वहीं वे धीर-गम्भीर स्वर में अपनी गर्जना आरम्भ कर देतीं। हम बच्चे उनके कमरे से दूर भागने का बहाना ढूँढ़ने लगते। उन बच्चों में होते–हम दो बहनें, एक भाई और हमारी बुआ के दो बेटे और दो बेटियाँ। अपनी दादी से हम डरते तो थे पर उनसे दूर रहना भी… आगे पढ़ें
वह सचमुच एक अत्यंत साधारण सी औरत थी। लोगों की आँखों के सामने से गुज़र जाए तो कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता। अधिकतर लोगों को उसका नाम भी नहीं पता था। पड़ोस भर में वह मुन्ना की माँ के नाम से ही जानी जाती थी। मुन्ना की माँ के माँ-बाप का पता नहीं था एक अनाथ आश्रम में बड़ी हुई थी इसीलिए प्यार की बहुत भूखी थी। अनपढ़ भी थी, केवल प्रेम की भाषा में पारंगत थी। कुछ ऐसी स्मृतियाँ उसके साथ जुड़ी हैं कि आज कई दशकों के बाद भी उसे मैं कभी भूल न सकी, जब तब उसका ध्यान आ ही जाता है।  उसके पति एक साधारण से टैक्सी चालक थे, साधारण सी आय थी, जितना कमाते, उतना घर गृहस्थी में ख़र्च हो जाता। कलकत्ते जैसे शहर में रहकर भी उनके घर में एक पंखा तक न था। अभाव का जीवन था। पति-पत्नी और… आगे पढ़ें
सन्नाटे चीखते हैं मेरी चारदीवारी मेंं  मरघट से लौटती साँसें,  थम गयी हैं नक़ाबों मेंं  रुकी साँसों को मुँह मेंं दबाए,  डरे चेहरों के काले अक़्स  छिपे हैं,  शक़ से तौलते हैं हर पास आते साए को   दूर . . . बस दूर रुक कर  देखते हैं  एक गुफा मेंं क़ैद मेरी रूह  चाहती है गले मिलना, लगाना, खिलखिलाना  दर्द के समंदर पर तैरती आँखों में  उम्मीद जगाना,  दबे पाँव सूरज की रौशनी  का पीछा करती  मै उग रही हूँ  ज़िन्दगी की कोपलों मेंं॥ आगे पढ़ें
रोज़ सुबह  किरणों के जागने से पहले  घर होता जाता है ख़ाली  जाते हो तो एक टुकड़ा मुझे भी साथ लिए जाते हो।    शाम को मिलने का वादा तो रहता है  हर दिन  मगर फिर भी  रोज़ जब जाते हो  कुछ मैं कम होती जाती हूँ।    हौले-हौले ख़ुद को तब सँभालती हूँ बिखरे घर की तरह!    जब सुबह दोपहर से बातें करती  संध्या से मिलने आएगी  ये घर  शाम को मिलने के वादों से भर जायेगा।  आगे पढ़ें
बस रहने दें, अब बस भी करें,  धम्म से पसरें धरती पर,  हाथों पर हाथ धरे,  कुछ न करें . . .!    घूरें–उस दूर उड़ती चिड़िया की चहचहाट कानों में भरें,  उसकी बोली, उसकी बातें—समझें तो ठीक  वरना मौन धरें . . .!    एक बार, बस एक बार  ख़ाली बर्तन सा आँगन में लुढ़कें,  तेज़ बूँदों, बारिश में जिसे  अम्मा भूल गयी थी ढँकना  भीगते चूल्हे की राख और  मिट्टी में पैरों को भीजते छोड़ दें . . .!    ऊपर से झाँकते चाँद से आँखें  चार कर  झप्प से टूटते तारे को  लपक लें गोदी में  अँधेरे में लरजते झींगुर की झिक-झिक  मच्छर की बाँसुरी को गुनें . . .!    या कभी,  नवम्बर की दुपहरी  गुनगुनी चाय और धूप  अलसती शाम को ताकें ऊन के गोलों, सलाइयों के  फंदों के बीच उलझती, उधड़ती  पड़ोसिनों की बातों को बुनें . . .!    धूप में… आगे पढ़ें
मन की आँखें खोल रे बन्दे,  अपने मन को तोल रे बन्दे,  बोल प्यार के बोल रे बन्दे,  भर मन में झनकार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥1॥   याद करो जब तुम थे बच्चे,  सरल हृदय थे, तुम थे सच्चे,  बंद किया कपाट हृदय का,  खोलो मन का द्वार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥2॥   देश-विदेश में कितनी भाषा,  धर्मों की कितनी परिभाषा।  ढाई आखर प्रेम समझ लो,  जो धर्मों का सार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥3॥   क्यों करते हो सबसे झगड़ा?  झूठ-म़ूठ का है ये रगड़ा,  भेदभाव को भूलभाल,  छोड़ो सारी तकरार।  बोलो प्यार प्यार प्यार॥4॥   रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,  गुलदस्ते में ख़ूब सजे हैं।  हम सब मिल सारे जग को  बना लें इक परिवार।  बोलो प्यार-प्यार-प्यार॥5॥   शान्ति, अमन और भाईचारा,  यदि हो, तो संसार तुम्हारा,  जैसा तुम दूजों से चाहो,  वैसा हो व्यवहार।  बोलो प्यार-प्यार-प्यार॥6॥ आगे पढ़ें
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