प्रत्येक वर्ष मातॄदिवस के अवसर पर मेरे स्मृतिपटल पर मेरी स्नेहमयी माता के साथ-साथ एक और चेहरा अंकित होता है और वह है मेरी दादी का, जो मेरी माँ से सर्वथा भिन्न है। रंग-रूप में अत्यन्त साधारण होते हुए भी वे एक असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी थी।
श्यामवर्ण, घने-घुँघराले बाल, अत्यन्त साधारण नयन-नक़्श और उनके मुख पर कभी-कभार ही खिलती मुस्कुराहट–ऐसी थी हमारी दादी। वे जब हँसती तो हम बच्चे अवाक् होकर उन्हें देखने लगते कि आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया? उसके पश्चात हम बच्चे जहाँ सतर्कता त्याग, सहजता से किलकना व शोर मचाना आरम्भ करते, वहीं वे धीर-गम्भीर स्वर में अपनी गर्जना आरम्भ कर देतीं। हम बच्चे उनके कमरे से दूर भागने का बहाना ढूँढ़ने लगते। उन बच्चों में होते–हम दो बहनें, एक भाई और हमारी बुआ के दो बेटे और दो बेटियाँ। अपनी दादी से हम डरते तो थे पर उनसे दूर रहना भी सम्भव नहीं था। इसका एकमात्र कारण थे–हमारे दादाजी, जिनका व्यक्तित्व था दादी जी से सर्वदा विपरीत। गौरवर्ण, अत्यन्त सुन्दर नयन-नक़्श, घने शुभ्र केश, जो उनकी भव्यता को बढ़ाते और सबसे बढ़कर थी उनकी सदाबहार मुस्कुराहट। वे न केवल हम बच्चों को प्यार करते वरन् पास-पड़ोस, गली-कूचे के सभी बच्चों पर अपना अनन्त प्यार उड़ेलते रहते। दादाजी रोज़ सुबह जब सब्ज़ी ख़रीदने जाते तो लौटते समय जो भी रेज़गारी बचती, गली के बच्चों में बाँट आते। दादी के हिसाब माँगने पर बालसुलभ भोलापन लिये उत्तर देते-“क्या करते, राजू का बेटा छोटू बोला, बाबू आज जलेबी खाने का मन है, तो खिला दी।” दादी निर्विकार भाव से सुनती, पर उन्हें भी पता था कि जलेबी एक छोटू को ही नहीं खिलायी गयी है, पड़ोस के कई छोटू जलेबी की इस दावत में सम्मिलित थे।
हम बच्चों को एक दिन शंका हुई कि दादाजी तो इतने दर्शनीय हैं, फिर उन्होंने दादी से ब्याह क्यों किया? वैसे तो हम बच्चों को दादी के चेहरे पर नहीं, उनके ग़ुस्से पर ग़ुस्सा आता था। मन चाहता था कि कभी तो वे हमसे प्यार से बातें करें, पर नहीं। उनका ग़ुस्सा तो जैसे ख़त्म ही नहीं होता। कई बार उनकी डाँट से खेल का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाता। एक दिन दादी की अनुपस्थिति में मैंने हिम्मत करके दादाजी से पूछ ही लिया, “दादाजी, तुमको ब्याह करने के लिये क्या दादी से अच्छी लड़की नहीं मिली?”
दादाजी ने मुस्कुराकर पूछा, “क्यों बेटी?”
मैंने कहा, “तुम तो दादी से बहुत सुन्दर हो, फिर दादी तो हमें सारा दिन डाँटती भी तो रहती है।”
दादाजी ने हँसकर उत्तर दिया, “बेटी, बात यह है कि उन दिनों कोई लड़की देखता नहीं रहा। मुझे देखने आई रही मेरी सास, तेरी दादी की माँ और वे थीं भी बहुत सुन्दर। सोचा, जब माँ इतनी सुन्दर है, तो बेटी तो और भी सुन्दर होगी। बस, हाँ कर दी और वहीं धोखा खा गये।”
एक और प्रसंग याद आता है। हम बच्चों में सबसे छोटा मेरा भाई था। उससे पूछने पर कि घर में सबसे बड़ा कौन है, उसका संक्षिप्त उत्तर होता, दादी। वह क़तई यह मानने को तैयार नहीं होता था कि दादाजी दादी से बड़े हैं। उसका तर्क यही होता कि यदि दादाजी बड़े हैं तो वे दादी से डरते क्यों हैं? दादी की नाराज़गी की बात तो बहुत हो गयी, अब ज़रा उनके प्यार की भी चर्चा भी हो जाये। कभी-कभी तो उन्हें भी पोते-पोतियों पर बच्चों पर प्यार आ ही जाता था। तब वे अपने हाथ से स्वादिष्ट पकवान बना कर खिलातीं, “ले खा।”
“अच्छा बना है और दो ना,” सुनने पर कहतीं, “क्यों तेरी मइया ने बनाकर नहीं खिलाया क्या?” यह सुनकर हम निर्वाक् से रह जाते।
इस प्रकार उनका प्यार भी हमें सहमा कर रख देता। जब हम बड़े हुए तो दादीजी के रूखे व्यवहार का कारण समझ में आया। उनका बचपन अत्यन्त कठिन परिस्तिथियों में व्यतीत हुआ था। जन्म से ही पूर्व पिता का देहान्त, विधवा माँ द्वारा छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण तथा एक बार पति की एक वर्षीय कठिन बीमारी ने उन्हें कर्मठ, निर्भीक तथा आत्मविश्वास से पूर्ण बना दिया था। मैंने उन्हें कभी भी परेशान होते नहीं देखा। मेरी माँ या बुआ जब भी चिन्तित होतीं, दादी चट्टान की तरह उन्हें सहारा देतीं। दादी केवल अपने परिवार के लिये ही नहीं वरन् पास-पड़ोस में भी सहायता के लिये सर्वदा आगे रहतीं। चाहे वह शादी-ब्याह का काम हो, किसी की बीमारी में रात जागना हो या किसी का कोई घरेलू कोई काम हो। न केवल वे उन लोगों के घर का काम सम्भालतीं, उन्हें दिलासा भी देती जातीं।
मेरी माँ को पर्यटन का बहुत शौक़ था। पिताजी व्यवसाय की व्यस्तता के कारण हमारे साथ नहीं जा पाते पर वे दादी के साथ सारे परिवार को प्रत्येक गर्मी की छुट्टियों में विभिन्न स्थलों पर निश्शंक भेज देते। दादी साथ हों तो हमें किसी से डर नहीं लगता। उनके साथ हम राँची, दार्जिलिंग, पुरी, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार आदि कई स्थलों का भ्रमण कर आये। मुझे अच्छी तरह याद है कि १९८१ में जब मैं कलकत्ते गयी तो तिरासी वर्ष की अवस्था में भी दादी का स्वास्थ्य मेरी माँ के स्वास्थ्य से अच्छा था। कमर सीधी, दाँत सारे अपने थे, केवल दृष्टि कमज़ोर हो गयी थी। अन्तर केवल एक ही था। पहले वे स्वयं हिन्दी का अख़बार पढ़ती थीं पर अब वे दूसरों से पढ़वाती थीं और बीच-बीच में समाचारों के सम्बन्ध में अपने मन्तव्य भी देती जातीं।
जब मैंने अपनी माँ से कैनेडा चलने का अनुरोध किया तो उनसे पहले दादी बोल उठी, “बेटी मुझे ही बुला ले। मैं तेरे घर का सब काम कर दूँगी। बहुत सुना है–विलायत, विलायत। ज़रा वहाँ जाकर मैं भी तो देखूँ कि कैसा है तेरा कैनेडा।” दादी ने पैंसठ वर्ष की आयु में चंडीतल्ला (पश्चिम बंगाल का एक ग्राम) में रहकर बंगाली सीखी थी, तो सम्भवतः पच्चासी साल की आयु में अँगरेज़ी सीखने की चेष्टा करतीं तो आश्चर्य नहीं होता। मेरे कैनेडा लौटने के तीन हफ़्ते पश्चात ही समाचार मिला कि मात्र दो दिनों की बीमारी में ही वे देश-देशान्तर की सीमा से परे एक दूसरी दुनिया में जा चुकी हैं। अब रह गयीं हैं उनकी स्मृतियाँ, जो समय-समय पर सजगता, कर्मठता, निडरता, और आत्मविश्वास का पाठ पढ़ाती रहेंगी जिसकी हम सभी को बहुत आवश्यकता है।