विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

एक दिया जलाया

कविता | इन्दिरा वर्मा

आज मैंने भी एक दिया जलाया,
देखती रही उसे देर तक!
सोचती रही,
सब इसकी लौ में लपेट लूँगी।
और ले जाऊँगी कहीं दूर
एक छोटी सी पोटली में बाँध कर!


वही, ज़िन्दगी के सुनहरे लम्हें, 
जो उस दिन –
अलाव पर हाथ सेंकते हुये दिये थे तुमने, 
और देते ही रहे, 
हैं मेरे पास, आज भी।
उन्हीं से सुलगाती रहती हूँ... 
वह अनमने से, 
अकेले से पल, 
जो घने बादलों की भाँति 
ओढ़ लेते हैं 
मेरी खिड़की से आती हुई 
उस हल्की हल्की गरमाई को!


आज मैंने भी एक दिया जलाया!
देखती रही उसे देर तक!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ