विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

मैं अच्छा-भला चल रही थी। 
सहज गति से, उन्मुक्त रूप से, 
गाते हुए, प्रकृति का आनन्द लेते हुए, 
 
गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था, 
पर दिशाज्ञान अब भी शेष था। 
कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष, 
मन-बुद्धि पर था सम्यक्‌ नियन्त्रण। 
 
सहसा मैंने पाया कि
पता नहीं कब से 
मेरे समकक्ष ही 
कुछ लोग दौड़ रहे थे। 
 
और न जाने क्यों
स्वयं को उनके साथ 
प्रतियोगिता में खड़ा कर, 
मैं भी उनके साथ ही
दौड़ने लगी। 
 
गन्तव्य तो पहले से ही 
स्पष्ट न था, और अब
दिशाहारा होकर, 
 
मन, बुद्धि, सुख, सन्तोष
सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे। 
 
और बच रहे मात्र
दिग्भ्रमित दो पैर, 
और उनकी अनवरत गति। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ