मैं अच्छा-भला चल रही थी।
सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,
गाते हुए, प्रकृति का आनन्द लेते हुए,
गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,
पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।
कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,
मन-बुद्धि पर था सम्यक् नियन्त्रण।
सहसा मैंने पाया कि
पता नहीं कब से
मेरे समकक्ष ही
कुछ लोग दौड़ रहे थे।
और न जाने क्यों
स्वयं को उनके साथ
प्रतियोगिता में खड़ा कर,
मैं भी उनके साथ ही
दौड़ने लगी।
गन्तव्य तो पहले से ही
स्पष्ट न था, और अब
दिशाहारा होकर,
मन, बुद्धि, सुख, सन्तोष
सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।
और बच रहे मात्र
दिग्भ्रमित दो पैर,
और उनकी अनवरत गति।