हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब डिजिटल हो गया। नया आईफ़ोन लिया तो टेक्नीशियन ने पूछा क्या सेटिंग करूँ? सेटिंग के मामले में मैं अशिक्षित हूँ। पापा-मम्मी पचास साल पहले जो सेटिंग करवा गए वह अभी तक चल रही है। मैंने उससे भोलेपन में कह दिया, तुमको जैसी ठीक लगे वैसी सेटिंग कर दो। मेरे और फ़ोन के बीच टेक्नीशियन 'वह' जैसा था। फ़ोन प्रश्न पूछता तो वह मुझसे पूछता। मैं उत्तर देता तो वह फ़ोन में डाल देता।  पूरी गति से मैं खर्राटे भर रहा था और शायद ऊँची उठती अर्थव्यवस्था के सपने देख रहा था कि फ़ोन टर्राने लगा। मैंने उसे उठाया तो वह चालू हो गया, अब पासवर्ड की ज़रूरत नहीं थी। मेरा डिजिटल चेहरा फ़ोन में दर्ज़ था जो फ़ेस आईडी का काम कर रहा था। दनादन संदेश आ रहे थे। जो लोग मुझसे पहले उठकर सक्रिय हो गए थे उन्होंने डिजिटल… आगे पढ़ें
मैं हर तरह का संपादक रहा हूँ, इसलिए आत्म-कथ्य लिख रहा हूँ। सुधि पाठकों का मैं आभारी हूँ कि वे संपादक को महाज्ञाता समझते हैं, मोबाइल विश्वकोश समझते हैं और गूगल के सर्च इंजिन का आदिम संस्करण समझते हैं। पाठकों के दिमाग़ में संपादक की छवि, दुबले-पतले, दाढ़ी-धारी, चप्पल के साथ पैर घसीटते पुरुष की होती है। स्त्री-विमर्श के क्रान्तिकारी दौर में भी वे महिलाओं को संपादक के रूप में नहीं देखते। महिला अपने सामान्य रूप में सुन्दर मानी जाती है पर संपादक अपने असामान्य रूप में भी सुंदर नहीं होते।  साहित्यकार नहीं होते तो संपादक नहीं होता। जैसे आवश्यकता आविष्कार की जननी है, क्रिकेट अंपायर का जनक है, वैसे ही साहित्यकार, संपादक का जन्मदाता है। संपादक का सबसे ज़्यादा वक़्त और दिमाग़ कवि खाते हैं। न हो तो भी खाते हैं। रोज़ की डाक और ई-मेल से संपादक के पास औसतन दो-तीन कहानियाँ, चार-पाँच लेख और तीन… आगे पढ़ें