कितना शुभ रहा होगा वो पल
जिस पल लिया गया था निर्णय
कैनेडा तुम्हें अपनाने का
यह किन्हीं पुण्य कर्मों का फल था
या पुरखों का आशीर्वाद
जो तुमसे मिलते ही होने लगी थी
प्रेम और श्रद्धा की अनुभूति
पुलक उठा था मेरा रोम-रोम
बर्फ़ से अटा ठिठुरता तुम्हारा तन
पर भीतर ग़ज़ब की उष्णता
जो आए लगा लेते हो गले
जीत लेते हो मन अपने रवैयों से
कितने प्यार से समो लेते हो
सबकोअपनी सशक्त बाँहों में
तुम्हारे विशाल हृदय पर
कई बार भ्रम भी हुआ
पर फिर कभी लगता
कोई तो होगा जिसने
थाम लिया बढ़कर हाथ
नई धरा पर न मन डोला
न लड़खड़ाए कभी पाँव
कहीं ऐसा तो नहीं सोए पड़े हों
यहीं किसी क़ब्र में हमारे पूर्वज
जिन्हें चिरकाल से हो हमारा इंतज़ार
वरना कब मिलता है सौतेली माँ से
किसी को इतना अपनापन और सुकून
माज़ी को याद करती हूँ
तो खो सी जाती हूँ उन पलों में
कितना व्यथित था मन
जब छूट रही थी जन्मस्थली
अपनों के हाथों की उष्णता
कट रहीं थीं अपनी माटी से जड़ें
जम रहा था धमनियों में रक्त
ऐसा टूटा था पलकों का बाँध
कि बरसों नम रही थी आँखों की कोरें
फीके रहे तीज त्योहार रस्मो-रिवाज़
उदास रहता था मन
अपने याद आते थे
आँसू पीए नहीं जाते थे
पर स्वयं को आज़माने और
प्रमाणित करने के हठ ने
मुड़ने नहीं दिया कभी पीछे
आज नई मिट्टी में जड़ों को
गहर जमा देखकर
कई बार होने लगता है गर्व
स्वयं के लिए फ़ैसले पर।