ओ अनादि सत्य
ए क़ुदरत के रहस्य
तू चाहे चिलकती धूप बन मिलना
या गुनगुनी दोपहर की हरारत बन,
घोर अँधेरी रात बन मिलना
या श्वेत दूधिया चाँदनी भरा आँगन बन
मैं तुम्हें पहचान लूँगी,
खिड़की के शीशे पर पड़तीं
रिमझिम बूँदों की टप-टप में
दावानल में जलते गिरते
पेड़ों की कड़-कड़ में
मलय पर्वत से आती
सुहानी पवन की
सुगंधियों में मिलना
या हिम-नदियों की
धारों में मिलना
धरती की कोख में पड़े
किसी बीज में मिलना
या किसी बच्चे के गले में लटकते
ताबीज़ में मिलना
मैं तुम्हें पहचान लूँगी . . .
लहलहाती फ़सलों की मस्ती में
या ग़रीबों की बस्ती में मिलना
तू मिलना ज़रूर
मैं तुझे पहचान लूँगी
पतझड़ के मौसम में
किसी चरवाहे की नज़र में उठते
उबाल में मिलना
या धरती पर गिरे सूखे पत्तों के
उछाल में मिलना!
मैं तुझे पहचान लूँगी
किसी भिक्षु की चाल में से
किसी नर्तकी के नृत्य की लय में से
किसी वीणा के संगीत में से
किसी हुजूम के शोर में से!
तू मिलना बेशक
किसी अभिलाषी की आँख का आँसू बन
किसी साधक के ध्यान का चक्षु बन
किसी मठ के गुंबद की गूँज बन
या रास्ता खोजती कूँज बन
तू मिलना ज़रूर
मैं तुझे पहचान लूँगी!