मन कहाँ को चल चला तू,
छोड़ आया बाग़ सारे
आसमाँ भर के सितारे
चाँद हाथों से फिसल कर
गिर गया सागर किनारे
ढूँढ़ता क्या अब भला तू
मन कहाँ को चल चला तू
बहुत देखे प्रेम-बंधन,
मोह मेंं फँस झुलसता तन,
दौड़ता मन दिग्भ्रमित सा
और फिर ढल गया यौवन।
अब गिने क्यों कब जला तू,
मन कहाँ को चल चला तू॥
रात हो जब बहुत काली
फूटती तब भोर-लाली
आस जब मुरझा रही हो,
विहँस आती बौर डाली
हारता क्यों हौसला तू,
मन कहाँ को चल चला तू॥ आगे पढ़ें
कैसे कह दूँ आँखों मेंं अब बाक़ी कोई स्वप्न नहीं है।
जब आँधी ने ज़ोर पकड़ ली
तब भी हार नहीं मानी थी,
बारिश, तूफ़ाँ रात घनेरी
सब से लड़ने की ठानी थी,
ध्वस्त क़िले मेंं बना खंडहर
सो रहा है, मगर अभी भी
सुंदर क़िस्से बाँच रहा है
थका नहीं है स्वप्न कभी भी
मिली नहीं हो जीवन भर की ख़ुशियाँ लेकिन बिखरी-बिखरी
इधर-उधर मिल जायेंगी टुकड़ों मेंं, साथी, ढूँढ़! यहीं हैं . . .
यूँ तो जीवन बीत गया पर
अभी अधूरा सा लगता है,
क्या पाया क्या खोया बस यह
गिनने में ही दिन कटता है
आँखें आँसू से धोती जब
मेंरे दुख के मुर्झाये पल
बच्चों की किलकारी से खिल
उठता आँखों मेंं पलता कल
शाम ढले फिर हो जाता है दिल बोझिल पत्थर सा कोई
वह जो छूट गया पीछे फिर मिलता क्या अब दोस्त कहीं है?
कैसे… आगे पढ़ें
माँ तेरी यादों के आगे
जग के सारे बंधन झूठे।
जिस उँगली को हाथों थामें
जीवन पथ पर चलना सीखा,
प्राण ऋणी हैं, जिस अमृत के
उस अमृत बिन जीवन फीका,
याद नहीं करने को कहते
बंधु-बांधव, हित मेंं मेंरे,
किन्तु भूलकर हर्ष मनाऊँ
इससे अच्छा जीवन छूटे।
बहुत कठिन है सूखे मरुथल
मेंं पानी बिन प्यासे चलना,
मरीचिका से आस लगाये
अपने को ही ख़ुद से छलना,
मेंरा हृदय बना है तेरी
स्मृतियों से सज्जित इक आँगन,
जैसे चौबारा तुलसी का
पूजा का यह क्रम ना टूटे
माँ तेरी यादों के आगे
जग के सारे बंधन झूठे। आगे पढ़ें
कौन, कितना
देखकर होता द्रवित है
टूटती हैं लाठियाँ जब भी दलित की
पीठ पर,
ज़ालिम दबंगों के क़हर की
गा रहे समभाव को
ऊँचे स्वरों में
क्या उन्हें समता
कहीं देती दिखायी
क्रूरता का वीडियो
सोशल पटल पर
डालकर निर्भीक हो
करते ढिठाई
नहीं देते जगह
शव तक के दहन को
कौन आता है कहाँ प्रतिरोध में तब
बिन किये
परवाह फैले क्रूर डर की
लोग किस स्वाधीनता की
बात करते
आज भी बेगार के
बरगद खड़े हैं
जन्म के बन्धन
विकट कसकर बँधे जब
आस्था के प्रश्न तब
कितने बड़े हैं
जाति-गौरव ,
दम्भ की परिकल्पनाएँ
हैं खड़ी इतिहास लेकर श्रेष्ठता का
और सेनाएँ
लिए कल्पित समर की
ओढ़कर निष्पक्षता की
केंचुली को
मीडिया कितना
विमर्शों से घिरा है
शुद्ध प्रायोजित जहाँ
चर्चा पटल पर
सूत्र का मिलता नहीं
कोई सिरा है
बौद्धिकों को
वंचना दिखती नहीं क्यों
देखकर अनदेख,… आगे पढ़ें
मैं रिझाने के लिए
तुमको लिखूँ जो
हैं नहीं वे शब्द
मेरे कोश में भी
दोपहर की
चिलचिलाती धूप में जो
खेत-क्यारी में
निराई कर रहा है
खोदता है घास-चारा
मेंड पर से
बाँध गठ्ठर ठोस
सिर पर धर रहा है
है वही नायक
समर्पित चेतना का
मैं उसी को गा रहा
उद्घोष में भी
जो रुके सीवर
लगा है खोलने में
तुम जहाँ पर
गंध से ही काँपते हो
दूरियों को नापकर
चढ़ता शिखर तक
तुम जहाँ दो पाँव
चलकर हाँफते हो
मैं उसी की
मौन भाषा बोलता हूँ
प्राणपण से
दनदनाते रोष में भी
घाव, टीसें, आह, आँसू
छोड़कर मैं
किस तरह उल्लासमय
उत्सव मनाऊँ
या किसी की यातनामय
चीख सुनकर
मैं रहूँ चुप, और
रो-रोकर रिझाऊँ
जब असंगत हैं
सभी अनुपात तो फिर
ताप मैं भरता रहूँ
आक्रोश में भी आगे पढ़ें
पेड़ पर लटके हुए
शव लड़कियों के
सिर्फ़ मादा जिस्म, या
कुछ और हैं
कौन हैं ये लड़कियाँ
रौंदी गयी हैं
देह जिनकी
क्यों प्रताड़ित है
दलित अपमान को
पीते हुए भी
कौन हैं वे
गर्व जिनको
लाड़लों की क्रूरता पर
क्यों समय निर्लज्ज
बैठा मौन को
जीते हुए भी
सांत्वना के शब्द भी
हमदर्द होकर
गालियों के बन रहे
सिरमौर हैं
यह दबंगों की
सबल, संपन्न
सत्ता-अंध क्रीड़ा
जब तुम्हारे बीच से
उठकर, तुम्हें
धिक्कार देगी
आज के असहाय
जन की कसमसाहट
मुखर होकर
संगठित हो
एक दिन संघर्षमय
प्रतिकार लेगी
रोक सकते क्रूरता
तो रोक लो यह
आ रहे बदलाव के
अब दौर है आगे पढ़ें
भीड़ में भी
तुम मुझे पहचान लोगे
मैं निषिद्धों की
गली का नागरिक हूँ
हर हवा छूकर मुझे
तुम तक गई है
गन्ध से पहुँची
नहीं क्या यन्त्रणाएँ
या किसी निर्वात में
रहने लगे तुम
कर रहे हो जो
तिमिर से मन्त्रणाएँ
मैं लगा हूँ राह
निष्कंटक बनाने
इसलिए ठहरा हुआ
पथ में तनिक हूँ
हर क़दम पर
भद्रलोकी आवरण हैं
हर तरह विश्वास को
जो छल रहे हैं
था जिन्हें रहना
बहिष्कृत ही चलन से
चाम के सिक्के
धड़ाधड़ चल रहे हैं
सिर्फ़ नारों की तरह
फेंके गए जो
मैं उन्हीं विख्यात
शब्दों का धनिक हूँ
मैं प्रवक्ता वंचितों का,
पीड़ितों का
यातना की
रुद्ध-वाणी को कहूँगा
शोषितों को शब्द
देने के लिए ही
हर तरह प्रतिरोध में
लड़ता रहूँगा
पक्षधर हूँ न्याय
समता बंधुता का
मानवी विश्वास का
अविचल पथिक हूँ आगे पढ़ें
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर -बहिष्कृत हम
रहें प्रतियोगिता से,
रोकता हमको
तुम्हारा हर क़दम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
मानते हैं हम,
नहीं सम्भ्रांत, ना सम्पन्न,
साधनहीन हैं,
अस्तित्व तो है
पर हमारे पास
अपना चमचमाता
निष्कलुष,निष्पाप सा
व्यक्तित्व तो है
थपथपाकर पीठ अपनी
मुग्ध हो तुम
आत्मा स्वीकार से
सकुचा रही है
जब तिरस्कृत कर रहे
हमको निरन्तर
तब विकल्पों को तलाशें
या नहीं हम
बस तुम्हारी जीत पर
ताली बजाएँ
हाथ खाली रख
सजाकर मौन संयम
अब नहीं स्वीकार
यह अपमान हमको
चेतना प्रतिकार के
स्वर पा रही है आगे पढ़ें