सन्नाटे चीखते हैं मेरी चारदीवारी मेंं
मरघट से लौटती साँसें,
थम गयी हैं नक़ाबों मेंं
रुकी साँसों को मुँह मेंं दबाए,
डरे चेहरों के काले अक़्स
छिपे हैं,
शक़ से तौलते हैं हर पास आते साए को
दूर . . . बस दूर रुक कर
देखते हैं
एक गुफा मेंं क़ैद मेरी रूह
चाहती है गले मिलना, लगाना, खिलखिलाना
दर्द के समंदर पर तैरती आँखों में
उम्मीद जगाना,
दबे पाँव सूरज की रौशनी
का पीछा करती
मै उग रही हूँ
ज़िन्दगी की कोपलों मेंं॥