मैं,
उलटती-पलटती रही इस अनुभूति को
बहुत देर,
दिल और दिमाग़ के बीच की रेखा पर
तौलती रही इसे,
शब्दों को पकाती रही सम्वेदना के भगौने में,
तब सोचा
कि स्वीकार किये बिना अब कोई चारा नहीं है,
कि माँ,
मैं तुम सी न हो पाई।
मैं तुम सी न हो पाई!!
तुम,
अपनी नींद,
टुकड़ा-टुकड़ा हमारी किताबों में रख,
भोर की किरणों को
परीक्षा पत्र सा बाँचती आई
मैं, न कर पाई!
तुम,
हमारे स्वाद,
थालियों में सजा,
अपनी पसंद सिकोड़ती आई
मैं, न कर पाई!
तुम्हारी,
प्रार्थनाओं की फैली चूनर में
केवल हमारे सुखों की आस थी
तुम कहीं नहीं थीं उसमें!
मैं,
न कर पाई!
तुमने बोलना सिखाया हमें
और ख़ुद चुप होती चली गई!
तुमने कभी कहा नहीं परेशानियों में भी
कि “अब तुम से होता नहीं”
और तुम्हारी हिम्मत
मुक्त करती रही हमें अपराध बोध से!
तुमने कभी यह भी कहा नहीं कि
“यह मैं ही करूँगी”
और चुपचाप हमारे भीतर
कर्म की अनेक संभावनायें बो दीं!
तुम्हारा मौन, तुम्हारी शान्ति है और तुम्हारी ढाल भी!
तुम्हारा श्रम, तुम्हारी कांति है और तुम्हारा हथियार भी।
तुम्हारा प्रेम, हमारे लिये हवा है, पानी है,
हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
तुम अपनी इच्छाओं को,
खाद बना हमें फलने-फूलने देती रही
हमें सोचने की न ज़रूरत हुई, न फ़ुर्सत!
आज,
जब तुम्हारी भूमिका में हूँ मैं
और उलट-पलट कर देखती हूँ तुम्हारा जीवन,
तो जानती हूँ
तुम्हारी तरह मौन, अपने को देते चले जाने की साधना
नहीं है मुझ में . . .!!
मेरा मन देकर भी बचा लेना चाहता है,
अपना निजी एक कोना!
अपने को पूरा दे देना
संस्कृति नहीं है अब हमारी,
अब हमारी निजी अस्मितायें हैं
जो तौलती हैं हर सम्बन्ध से मिलने और देने को,
और अक़्सर पैदा करती हैं कटुताओं का उलझाव
जो तुममें नहीं था।
तुम साफ़ नीला आकाश थी
हमें ढके हुए,
एक कोमल घास वाली धरती,
जिस पर खेलते थे हम निश्चिन्त
तुम्हारे आशीर्वादी सूरज की गुनगुनी धूप से ढँके!! . . .
माँ, सच,
मैं होकर भी माँ,
पूरी तरह
आकाश, घास, सूरज न हो पायी!
मैं,
तुम सी न हो पायी,
तुम सी ना हो पायी॥