आरम्भ से अबतक
दूसरों की अपेक्षाओं को
सुनने-समझने तथा
पूरा करने के प्रयास में
लगी-लगी, मैं भूल ही गयी
कि स्वयं से भी मेरी
कोई अपेक्षा भी है क्या?
पहले माता-पिता की,
उसके पश्चात् पति की
अपेक्षाओं से अवकाश
मिला ही न था कि
समय आ गया है कि
समझूँ, हमारे बच्चे
हमसे क्या चाहते हैं?
तीन पीढ़ियों की अपेक्षाओं से
जूझते हुए मुझे क्या मिला?
मुझे मिला सुरक्षाओं का
एक ऐसा सुदृढ़ कवच कि
उसमें जकड़ी-जकड़ी मैं
निरन्तर भूलती चली गयी कि
आख़िर मैं स्वयं से भी क्या चाहती हूँ?
अब तो स्थिति यह है कि
मेरा सारा अपनापन, मेरे अपनों में
इतना विलय हो चुका है कि
उससे पृथक् मेरा अस्तित्व
ही कहाँ रहा है? तो
अब मैं क्या, और
मेरी अपेक्षायें भी क्या?