गुरुदेव तुम्हारे चरणों में करती हूँ अर्पित,
मन के भाव सारे आज तुझे है समर्पित।
तृष्णा, लालसा और मनके सारे क्लेश,
अहंकार, वासना और क्रोध ईर्ष्या द्वेष।
पुष्पों की नहीं इन भावों की ले आयी हूँ माला,
कैसे करूँ आराधना जब मन में इतनी ज्वाला।
दुनिया की यह चमक, तुम कहते थे है माया,
कर्मों का है अनूठा खेल, श्वासों से बँधी काया।
मन में उठती नित तरंगें, लेती नित नए संकल्प,
कैसे रोकूँ इस प्रवाह को, क्या है मेरा विकल्प।
तुझ पर ही हूँ गुरुदेव अब पूर्णतः आश्रित,
अपनी दयादृष्टि से करो मेरा मन परिष्कृत।
फिर भर दो उसमें तुम थोड़ी करुणा थोड़ी भक्ति,
मोह माया को करके भंग, दे दो थोड़ी धैर्य शक्ति।
हृदय के विकार मिटा कर तुम दे दो ऐसे दृष्टि,
समत्व भाव से देख़ सकूँ ये प्रभु की अनुपम सृष्टि।