जीवन में है मिला बहुत कुछ
इससे कब इन्कार किया?
जो भी पाया, जितना पाया,
सबसे मैंने प्यार किया॥
कभी नहीं चाहा मैंने
हाथ बढ़ाकर छू लूँ नभ।
और धरा को मापूँ मैं,
करी कामना ऐसी कब?
सहज मार्ग से जब जो आया,
उससे ही पाया संतोष।
मुस्कानों के जल से
प्रक्षालित करती मैं रोष॥
कुछ खट्टे, कुछ मीठे अनुभव,
सानन्द जिये मैंने इस पार।
कभी नहीं सोचा क्या होगा,
जब जाऊँगी मैं उस पार॥
प्यार मिला भरपूर, मेरे
आँगन में छायी हरियाली।
फल-फूल रहा विटप मेरा
हँसती-गाती डाली-डाली॥
इस बगिया की कलियों की
किलकारी आँगन में गूँजी।
जीवन की इस सन्ध्या में
मेरा सर्वस्व यही पूँजी॥