१९६८ में भारत से कैनेडा आने पर यकायक वह नन्ही बच्ची कहीं गुम सी हो गई जो माँ के पास बैठकर कभी शरतचंद्र की पुस्तकें पढ़ती तो कभी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' से नेह लगा बैठती। उर्दू और अँग्रेज़ी के विद्वान पिता से शेरो-शायरी सुनती तो कभी माँ की संगत में रामायण-पाठ करती। गुम हो गई वह युवती जो साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी काशी में एक साहित्य-स्नेही संभ्रांत परिवार में ब्याह कर आई। इस वय तक साहित्य भीतर अँखुआया ज़रूर लेकिन पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पाया था। परदेसी धरती पर इस आगमन और नए सिरे से जीवनयापन की चुनौतियों ने कुछ समय के लिए सृजन की मनोभूमि की उर्वरता ही अवरुद्ध कर दिया था लेकिन प्रवासी भारतीय हिंदी सेवी संस्थाओं और छोटी-छोटी संगोष्ठियों ने नए सिरे से सृजन के बिरवे को सींच दिया और इंदिरा जी की आंतिरक लय लिपिबद्ध हो उठी:
“क्या मैं वही हूँ?
बताओ, क्या मैं अभी भी वही हूँ?
वही अल्हड़ सी,
खिलखिलाती सी हँसी में सराबोर
जैसे अचानक मस्त तितलियाँ बैठ जाती हैं आकर,
फिर चुपके से फुर्र हो जाती हैं?”
इसी प्रश्नाकुल विकलता ने नव सृजन की दीप्ति से भर दिया। आत्म-संधान की आकुलता ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त किया। तूलिका मंद-मंथर गति से अनगढ़-गढ़ती रही। लेखिका ने ख़ुद को कभी रचयिता माना ही नहीं वे मुक्त मन स्वान्तः सुखाय रचती रहीं और ससंकोच लुकाछिपा कर डायरी के पन्ने में रखती रहीं। प्रियजनों के बरजोरी पर कभी कुछ कह-सुन लिया, गा-गुनगुना लिया लेकिन अधिकांश को अपने ही इर्द-गिर्द, अपने ही अंतरतम में, अपने ही गुलिस्तां में कहकहे लगाने दिया:
“यह मेरा गुलिस्ताँ है, इसमें गुँथे हैं रंग बिरंगे सुनहरे कहकहे,
वही कहकहे जो सुबह से आकर शाम तक शोर मचाते हैं,
मन को बहलाते है, प्यार से दुलराते हैं
कुछ तो मुलायम हैं, हाथों से फिसल जाते हैं,
जैसे वे सपने जो रात को तो सच लगते हैं, ख़ुशी देते हैं पल भर की,
सुबह होते ही न जाने कहाँ, किधर, फिरक-फिरक कर भाग जाते हैं।”
जीवन कभी सीधी चाल नहीं चलता। परिस्थितियों के कल-छल भोगने के लिए दुःख-सुख दोनों ही अपनी-अपनी उपस्थिति जताते जीवन में चले आते हैं।
सुख के क्षणों की संक्षिप्तता में दुख के क्षण सघन और दुष्कर हो उठते हैं। संवेदनशील मन सर्वाधिक अभिव्यक्ति इन्हीं कष्ट के क्षणों में पाता है। विछोह में छोह की स्मृतियाँ अधिक सघन, अधिक सजल हो उठती हैं:
“आज मैंने भी एक दिया जलाया,
देखती रही उसे देर तक सोचती रही,
सब इसकी लौ में लपेट लूँगी और
ले जाऊँगी कहीं दूर एक छोटी सी पोटली में बाँध कर!
ज़िन्दगी के वही सुनहरे लम्हे,
जो उस दिन अलाव पर हाथ सेंकते हुए दिये थे तुमने,
उन्हीं से सुलगाती रहती हूँ,
अनमने से, अकेले से पल,
जो घने बादलों की भाँति ओढ़ लेते हैं
मेरी खिड़की से आती हुई हल्की-हल्की गरमाई को . . . “
परदेस की धरती पर स्वदेश की स्मृति घनीभूत हो उठती है। बढ़ती हुई दूरी चुम्बकीय आकर्षण से बीते हुए को, चाहे हुए को गले लगाने के लिए व्यग्र करती है। सशरीर उपस्थिति भले ही असम्भव हो लेकिन मन-पवन कहाँ थमता है:
“वह गुदगुदाती लपकती लहरें
जिनसे सराबोर हो जाते हैं मन प्राण,
और कोई नहीं . . .
मैं ही ले आती हूँ आपके पास,
और हाँ तिरंगे के रंग तो मेरे पास ही रहते हैं,
जो मैं हरे खेतों में देखती हूँ,
केसर हल्दी से रँग देती हूँ,
उड़ा देती हूँ नीले आकाश में,
और सब कुछ फैला देती हूँ
मानस पटल पर श्वेत स्वच्छ, पवित्र।
पहचाना आपने? देखिये आसपास!
मैं सुगन्ध हूँ भारत देश की, हमारे देश की!”
स्मृतियाँ मोहिनी-मायाविनी हैं, इनकी उत्पत्ति भले ही असुविधाजनक और अभावग्रस्त परिस्थितियों में हुई हो लेकिन प्रभाव में प्रबल ही होती हैं। अविचल और स्थिर इतनी कि मन-मष्तिष्क में सदा ही ताज़े ज़ख्म की तरह हरी होती हैं। चिट्ठियाँ पीली पड़ जाएँ लेकिन उनकी लिपियाँ कभी धूमिल और अस्पष्ट नहीं होतीं। फाड़ दिए जाने के बाद भी उनका अस्तित्व मिटता नहीं वरन् बना रहता है:
“आज मैंने बहुत सारी चिट्ठियाँ फाड़ डालीं,
बरसों से फ़ोल्डर में रखी हुई थीं,
कभी-कभी निकाल कर पढ़ लेती,
रो लेती, हँस लेती।
× × × ×
× × × ×
ख़तों का काग़ज़ भी पुराना होकर–
तार-तार सा होने लगा था,
स्याही हल्की हो गई थी,
पढ़ पाना भी कठिन हो रहा था।
वैसा ही जैसे जीवन में होता है,
यादें धुँधली, वे कहानियाँ जो–
उन चिट्ठियों में बुनी गईं थीं . . . बेसहारा सी लगीं,
जैसे झूल रही हों किसी झंझावात में,
बिना पतवार के।”
जीवन में एकाकीपन से जूझने के लिए रचनात्मक व्यक्ति के पास सृजन की अनुपम सौग़ात भेंट की है सृष्टि ने; इंदिरा वर्मा जी भी इस अनुपम भेंट से उपकृत नित नवीन रचनाकर्म में लीन हैं। उनका सृजन प्रवासी भारतीय साहित्य के इतिहास के किसी पृष्ठ पर अंकित हो न हो किन्तु उनके आत्म संधान और आत्मतुष्टि का हेतु अवश्य ही है।