रोज़ सुबह
किरणों के जागने से पहले
घर होता जाता है ख़ाली
जाते हो तो
एक टुकड़ा मुझे भी साथ लिए जाते हो।
शाम को मिलने का वादा तो रहता है
हर दिन
मगर फिर भी
रोज़ जब जाते हो
कुछ मैं कम होती जाती हूँ।
हौले-हौले ख़ुद को तब सँभालती हूँ
बिखरे घर की तरह!
जब सुबह दोपहर से बातें करती
संध्या से मिलने आएगी
ये घर
शाम को मिलने के वादों से भर जायेगा।