विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

रोज़ सुबह 
किरणों के जागने से पहले 
घर होता जाता है ख़ाली 
जाते हो तो
एक टुकड़ा मुझे भी साथ लिए जाते हो। 
 
शाम को मिलने का वादा तो रहता है 
हर दिन 
मगर फिर भी 
रोज़ जब जाते हो 
कुछ मैं कम होती जाती हूँ। 
 
हौले-हौले ख़ुद को तब सँभालती हूँ
बिखरे घर की तरह! 
 
जब सुबह दोपहर से बातें करती 
संध्या से मिलने आएगी 
ये घर 
शाम को मिलने के वादों से भर जायेगा। 

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