विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

परिक्रमा

कविता | सुरजीत

ओ मेरी बिरहन रूह
कैसी तेरी भटकन
कैसी तेरी जिज्ञासा, 
ले गई मुझे किन रास्तों पर
तेरी अद्भुत आकांक्षा! 
 
रेगिस्तानी जगह एक
जंगल एक सुनसान 
यहाँ पर था वो साधना-स्थान
काफ़ी देर से सोचों में
उभरता रहा जिसका नाम . . . 
 
सज्दा इसे करने को 
मैंने राहें कंधे धर लीं
सैंकड़ों कोस के सफ़र की
अंगुलियाँ मैंने पकड़ लीं . . . 
 
वहाँ पहुँची तो 
ख़ूबसूरत! सवारोओं1 ने बाँहें मेरे लिये खोल दीं
कँटीली झाड़ियों ने ख़ैरियत-सुख पूछ ली 
उड़-उड़ कर मिट्टी मुझे आलिंगन में भरने लगी 
अपनी सी लगती थी जब आँखों में पड़ने लगी . . . 
 
कोसी-कोसी धूप की ऊष्णता को
पहली बार माना मैंने 
क़ुदरत के इस रहस्य को
पहली बार जाना मैंने . . . 
कँटीले-काँटों की मुहबबत को
पहली बार पहचाना मैंने . . . 

चाहता था दिल 
चलती जाऊँ . . . बस यूँ ही चलती जाऊँ . . . 
रास्ते ना ख़त्म हों यह 
मैँ इन रास्तों में ख़त्म हो जाऊँ . . . 
 
इस लाल धरती का ज़र्रा-ज़र्रा 
कुछ-कुछ कहता था
सितारों भरा आकाश मेरे साथ 
सटक-सटक के बैठता था . . . 
सप्त ऋषियों की काँवर 
सदियों बाद देखी मैंने
इतना सुंदर चाँद था कि 
ठगी सी रह गईं आँखें . . . 
धरती का मैंने बिछौना किया, 
अम्बर ख़ुद पर ओढ़ा मैंने 
सभी सितारों को अंगुलियाँ 
घुमा-घुमा कर जोड़ा मैंने
 
धरती, मैं और अम्बर तीनों 
एक दूजे में इस तरह विलीन थे
चाहता था दिल मेरा बस यहीं रुक जाएँ . . . 
 
यह कैसी साधना थी
किस तरह का कर्मा
मिट्टी को छू कर की
मैंने ब्रह्माण्ड की परिक्रमा . . .!! 
 
1.सवारो-एरीज़ोना में उगने वाला कैकटस-‘Saguaro’

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