कभी कभी मुझे ऐसा होता है प्रतीत,
कि मेरी कविताओं का भी
बन गया है अपना व्यक्तित्व।
वे मुझे बुलाती हैं,
हँसाती हैं, रुलाती हैं,
बहुत दिनों तक उपेक्षित रहने पर
मुझसे रूठ भी जाती हैं।
करती हुई ठिठोली,
एक दिन एक कविता मुझसे बोली
“तुम मुझे कभी नहीं पढ़ती हो,
दूसरी कविता को मुझसे
ज़्यादा प्यार जो करती हो।”
एक कविता ने तो हद ही कर दी,
जब वह एक सिरचढ़ी किशोरी सी
हठात् घोषणा सी करने लगी
“तुम्हें करना होगा कोई उपाय,
मेरे साथ नहीं हुआ है न्याय।”
मैं आश्चर्य से उसे देखती रही।
और वह अपनी धुन में
कहती चली गयी।
“मेरे कुछ शब्दों को बदल दो,
तो मैं और निखर जाऊँगी,
अभी मेरा स्वर धीमा है,
कुछ और मुखर हो जाऊँगी”
मैंने उसे समझाया,
“मेरे जीवन में मेरे सिवाय
और भी बहुत कुछ है।
मेरा घर, मेरे बच्चे,
मेरे पति, मेरे मित्र।”
मैंने यह भी कहा,
“तुम आख़िर थीं क्या?
मेरे अवचेतन में पड़ी
मात्र एक अनुभूति।
मैंने तुम्हें स्वर दिया, रूप दिया,
जैसे तुम्हें पाला-पोसा।
और तुमने मुझे, जैसे
अपनी माँ की ममता को
नकार कर, अन्यायी कहकर कोसा।”
मैंने यह भी दी युक्ति,
“मैंने तो तुम्हें जीवन दिया,
तुम मुझे दो मुक्ति।
हे कविताकामिनी, मुझपर भी ध्यान दो,
जो कहने जा रही हूँ, उसपर भी कान दो।
अन्याय की दुहाई मत दो तुम बार-बार।
तुम्हारे नख्ररे पहले भी सहे हैं हज़ार बार॥
कभी-कभी जाडे़ की उनींदी रात
भाव की हल्की सी झलक दिखाकर
भाग जाती हो और सुबह पुकार कर
बुलाने पर भी नहीं आती हो।”
और कभी, व्यस्तता के क्षणों में
अन्तर से कहती हो—
’मुझे स्वर दो, मुझे स्वर दो’
मैं झुंझलाकर जबाब देती हूँ—
“अभी रुको, अभी चुप रहो,
मुझे दफ़्तर में बहुत काम है,
शाम को भी ओवरटाइम है।”
अपना समझकर कह रही हूँ,
“कनाडा में ‘वर्किंग मदर’ अर्थात्
कार्यरत माँ होना आसान नहीं है।
कभी-कभी तो तुम चेता करो,
दूसरे का समय-असमय भी तो देखा करो।
जब सब काम निबटाकर,
आराम कर रही होऊँ,
तो प्यार से, दुलार से,
आदर से पास आओ,
धीरे-धीरे कोमलता से
मेरे भावों को सहलाओ।
इससे मेरी कल्पना का द्वार खुलेगा,
तुम्हारे भावों को भी समुचित कलेवर मिलेगा।
तब देखना, मेरे भी वात्सल्य का स्रोत झरेगा।
हमदोनों के बीच बढ़ता हुआ यह अन्तर
हम दोनों के प्रयास से ही तो भरेगा।”