दिन सिमटने के मगर,
मन माँगता विस्तार क्यों है?
कट गई है आयु काफ़ी
नाचते विधि की धुनों पर,
आ लगी है नाव जीवन-
सरित के नीरव तटों पर।
समय आया, डाँड़ छोड़ें,
धार से अब ध्यान मोड़ें।
किन्तु फिर-फिर मन हठी यह,
थामता पतवार क्यों है?
दिन सिमटने के मगर,
मन माँगता विस्तार क्यों है?
मोह की आँधी प्रबल है
कठिन है इससे उबरना,
हम भला कब चाहते हैं,
सत्य में ही “विदा” कहना?
मन अटकता है अभी भी,
इस जगत के बन्धनों में,
नेह-निर्मित नीड़ जिसको
छोड़ने की सोचते ही,
उठ पड़ा मन-प्राण में,
यह तुमुल हाहाकार क्यों है?
दिन सिमटने के मगर,
मन माँगता विस्तार क्यों है?
हुए पूरे, कुछ अधूरे,
चित्र जो मन आँकता है।
रंग भर दूँ और थोड़े,
समय इतना माँगता है।
एक क्षण भी अधिक अपने
प्राप्य से मिलना नहीं है।
ज़िद से, मनुहार से,
इस नियम को टलना नहीं है।
दैव की इच्छा मनुज को,
फिर नहीं स्वीकार क्यों है?
दिन सिमटने के मगर,
मन माँगता विस्तार क्यों है?