विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

डॉ. नूतन पाण्डेय द्वारा टोरोंटो, कैनेडा निवासी डॉ. शैलजा सक्सेना से बातचीत

बात-चीत | डॉ. नूतन पांडेय

 (यह बातचीत 2020 के प्रारंभ में हुई थी) 

 

डॉ. नूतन पाण्डेय—
शैलजा जी सबसे पहले पाठकों को ये बताएँ कि चूँकि आपका जन्म दिल्ली में हुआ, आपकी समस्त शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई, आप दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में भी कार्य कर रही थीं? टोरोंटो आकर बसना किन परिस्थितियों के कारण हुआ और किन कारणों से आपको यहीं का होकर रह जाना पड़ा। 
शैलजा सक्सेना— 
जी, जन्म तो मथुरा में हुआ पर हम दिल्ली रहते थे। मथुरा में बाबा-दादी, ताऊजी-ताईजी का घर था सो आना-जाना लगा रहता था पर शिक्षा-दीक्षा यहीं दिल्ली में ही हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पढ़ी और यहीं पढ़ा रही थी। 1991 में विवाह के बाद भी हम लोग वहीं थे पर तब तक सन्‌ 2000 में (वाईटूके) कम्प्यूटर सिस्टम फ़ेल होने की आशंका का समय था तो 90 के दशक से ही अमरीका में कम्प्यूटर इंजीनियर्स की बहुत माँग थी, भारत के बहुत से लोगों को बहुत अच्छे अवसर मिल रहे थे। मेरे पति भी सूचना प्रौद्योगिकी (इनफ़ोर्मेशन टैक्नोलॉजी) में काम करते हैं और इसीलिए हमारा भी विदेश आना हुआ। पहले तीन वर्ष के लिए आए और वापस भारत आ गए। एक साल के बाद फिर कुछ ऐसे कारण बने कि अमरीका जाना पड़ा। 7-8 साल तक हम लोग अमरीका के कुछ शहरों में (मिशीगन, साउथ कैरोलाइना, ह्यूस्टन) और फिर एक वर्ष लंदन, ब्रिटेन में रहे। इसके बाद टोरोंटो में आकर बस जाने की स्थिति भी बनी। हम लोग इतना घूम चुके थे कि परिवार के सभी लोगों ने कहा कि अब एक जगह ही रहो। कैनेडा का वातावरण अच्छा लगा और लगा कि यहाँ पर रहा जा सकता है, बच्चों को बड़ा किया जा सकता है सो बस तब से यहीं रह गए। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
पाठकों की जानकारी के लिए मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूँगी कि आप हिंदी साहित्य सभा, कैनेडा की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं। साहित्य कुंज में आप परामर्शदाता के रूप में अपना साहित्यिक सहयोग दे रही हैं। हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा की संस्थापक सदस्य भी हैं। आपने हिंदी को भारत से बाहर पहचान दिलाने के लिए अनथक प्रयास किये हैं। आप को इस कार्य में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनका आप विशेष रूप से उल्लेख करना चाहेंगी? 
शैलजा सक्सेना— 
चुनौतियाँ तो हर काम में आती है। अपने देश में भी जब हम हिंदी का कोई काम करने निकलते हैं तो बहुत से लोग हमारे साथ नहीं आते, प्रवास में या विदेश में यह चुनौती और अधिक होती हैं। लोगों के अपने जीवन हैं, रोज़ी-रोटी का संघर्ष है, बिना परिवार के सहयोग के बच्चे बड़े करने होते हैं, ऐसे में किसी के पास समय नहीं होता कि किसी भी सामाजिक काम में अधिक और निरंतर समय दे सकें। मेरे साथ भी समय की चुनौती रहती है कि कैसे सब कामों को समय दिया जाए। दूसरी यह कि कार्यकर्ताओं की कमी होती है, अत: कैसे कार्यकर्ताओं को जोड़ें और यह भी कि कम कार्यकर्ताओं के साथ अधिक काम किया जा सके। तीसरा यह भी रहता है कि कौन सा कार्यक्रम ऐसा होगा जिससे अधिक से अधिक लोग जुड़ना पसंद करेंगे, उदाहरण के लिए क्या नाटक लोगों को जोड़ने के लिए अच्छा रहेगा या कवि सम्मेलन या हिंदी की कक्षाएँ आदि। 
विदेश में रहने वाले व्यक्तियों को न केवल कार्यक्रम आयोजित करना होता है बल्कि उस कार्यक्रम का लोगों में प्रचार करने के लिए भी बहुत काम करना पड़ता है। कैनेडा और ख़ास तौर से टोरोंटो में पंजाबी भाषियों का बाहुल्य है, हिंदीवालों को एकत्रित करने के लिए फ़ोन कॉल करना, विज्ञापन देना, रेडियो टीवी में जाकर कार्यक्रम की सूचना देना आदि अनेक ऐसे समय और ऊर्जा लेने वाले काम हैं जिनसे हमें जूझना पड़ता है। इस तरह से काम बहुत बढ़ जाता है जिन्हें लंबे समय तक करते रहना कठिन ही नहीं असम्भव हो जाता है। नई पीढ़ी की हिंदी में बहुत अधिक रुचि ना लेने के कारण भी इस प्रकार की समस्या आती रहती हैं। 
हिंदी साहित्य सभा यहाँ की पुरानी संस्था थी और मेरे कैनेडा आने तक हिंदी प्रेमियों के बीच अपना स्थान बना चुकी थी। इसमें वे वरिष्ठ लोग हैं जो यहाँ 50-60 साल पहले यहाँ आए थे। ये लोग विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों से हैं और केवल अपने हिंदी प्रेम के कारण लिख रहे हैं। थे। इस संस्था ने कवि सम्मेलन और नाटक आदि किये थे पर समस्या हमेशा नए काम करने वालों के अभाव की रही। 
साहित्य कुंज में इस तरह की कोई समस्या नहीं आई। इंटरनेट पर होने के कारण इस काम में बहुत लोग नहीं चाहिए थे। केवल पाठक संख्या बढ़ाने और अच्छे स्तर के साहित्य को प्रकाशित करने की ओर ही पत्रिका के संपादक श्री सुमन कुमार घई जी का ध्यान रहा। परामर्शदाता के रूप में मेरी भूमिका किसी नए विचार के आने पर उसकी चर्चा या जो अच्छे लेखक मेरे संपर्क में आए, उन्हें पत्रिका से जोड़ने की है। अब इस वर्ष साहित्यकुंज ने विशेषांक निकालने भी प्रारंभ किए हैं और इसका उत्तरदायित्व मुझे दिया है तो इस संदर्भ में जिस विषय या व्यक्ति पर विशेषांक निकाला जाता है, उसकी पुस्तकों की कमी खटकती है। 
हिंदी राइटर्स गिल्ड की स्थापना 14 वर्ष पूर्व, भारतीय डायसपोरा को हिंदी-साहित्य से जोड़ने, हिंदी के प्रचार-प्रसार, लेखकों के बीच परस्परिक चर्चाओं को बढ़ाने और स्थानीय स्तर पर यहाँ के लेखकों की किताबें प्रकाशित करने के विचार से की गई। इस काम को हम लोग बहुत कुछ सफलता से करते आ रहे हैं लेकिन हमारे सामने उपर्युक्त चुनौतियों के अतिरिक्त सबसे बड़ी चुनौती प्रकाशित पुस्तकों के प्रचार-प्रसार की रही है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय— 
यह भी जानना चाहूँगी कि इन सबका सामना आपने कैसे किया, आपको इसमें किन-किन का सहयोग मिला और इस कार्य में आप ख़ुद को कितना सफल मानती हैं? सच बताएँ आप ख़ुद को इस परीक्षा में कितने नंबर देना चाहेंगी? 
शैलजा सक्सेना— 
चुनौतियों में ही सम्भावनाएँ भी छिपी होती हैं। सबसे बड़ी बात कि हम ऐसी स्थितियों में समय, ऊर्जा, संसाधनों आदि का कुशलता से उपयोग करना सीखते हैं, आत्म विश्वास बढ़ता है और बहुत कुछ कठिन लगने वाले काम भी एक जुनून के चलते हो जाते हैं। मैंने भी सबको स्नेह से जोड़ने की भावना से मेहनत करी। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहयोग तो लगभग सभी से मिला। कुछ एक जैसे सोचने वाले लोग मिले और काम चल निकला। यहाँ के वरिष्ठ लेखकों जैसे प्रो. हरिशंकर आदेश, डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव, (स्व) डॉ. शिवनंदन यादव, दीप्ति अचला कुमार, अरुणा भटनागर, आशा बर्मन जी आदि लोगों का स्नेह और प्रोत्साहन मिला। इन लोगों ने बहुत मेहनत से हिन्दी साहित्य सभा के माध्यम से हिन्दी की पृष्ठभूमि यहाँ बनाई है। सभा का आशीर्वाद मिलता रहा है। 
 हिंदी साहित्य सभा के समय से ही मेरे साथ सुमन कुमार घई जी और विजय विक्रांत जी काम कर रहे थे। हम तीनों ने मिलकर हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा की स्थापना की जिसमें हम मासिक गोष्ठियों में विभिन्न विधाओं और स्वरचित रचनाओं पर खुलकर कर चर्चा करते हैं। साहित्यिक नाटकों के माध्यम से लोगों को साथ जोड़ते हैं और बच्चों के भी कार्यक्रम कराते हैं। इसी समय अन्य बहुत से लेखक भी इस संस्था के साथ जुड़े और इसके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक/संयोजक की भूमिका उन्होंने निभाई, हमारे निदेशक मंडल के लोग हैं जो मदद करते हैं, जैसे आशा बर्मन, कृष्णा वर्मा, लतापांडे, पूनम चंद्र मनु, विद्या भूषण धर, संदीप कुमार, डॉ. नरेन्द्र ग्रोवर आदि। इस समय हमारे बहुत से और सदस्य भी इससे जुड़े हुए हैं और बहुत मेहनत से काम कर रहे हैं जैसे मानोशी चैटर्जी, भुवनेश्वरी पांडे, दीपक राज़दान आदि। 
सभी काम तो नहीं हो गए हैं तो मैं यही कहूँगी कि हम लोग अपने उद्देश्यों में काफ़ी कुछ सफल रहे हैं। मैं अपने को सत्तर से पचहत्तर प्रतिशत नंबर दे सकती हूँ। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
क्या आप अपनी साहित्यिक गतिविधियों से संतुष्ट हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
संतुष्टि व्यक्तिगत स्तर पर या अपनी संस्था के स्तर पर? संतुष्टि के भी दो स्तर होते हैं, एक तो कि जो काम किया वह ठीक था या नहीं? और दूसरा कि क्या सारा कार्य समाप्त हो चुका है? तो उत्तर में यह कहूँगी कि पहले स्तर पर मैं संस्था के काम से संतुष्ट हूँ, पंद्रह किताबों के प्रकाशन, बारह नाटकों के मंचन और पिछले पाँच वर्षों से अनवरत मासिक गोष्ठियों में अनेक विषयों पर हुई चर्चाओं के द्वारा हम अपने काम को सफलतापूर्वक कर सके हैं। हर वर्ष बच्चों को साल में दो बार मंच देते हैं और उनकी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करते हैं। अनेक भारतीय और अन्य देशों के विद्वानों के साथ संगोष्ठियाँ की जा चुकी हैं, अन्य स्थानीय संस्थाओं के साथ सहयोग किया गया है, ये सब काम संतुष्टि देते हैं पर यह भी स्पष्ट है कि बहुत सा काम किया जाना बाक़ी है। हमारी अगली पीढ़ी हिंदी भाषा और साहित्य दोनों से कैसे अधिक से अधिक जुड़ सकती है, यह प्रश्न अक़्सर व्याकुल करता है। कह सकती हूँ कि इस स्तर पर संतुष्ट नहीं हूँ। बहुत काम करना है। 
व्यक्तिगत स्तर पर भी यही स्थिति है। कुछ काम किए हैं और बहुत कुछ शेष हैं। संतुष्ट हूँ कि अपनी संस्था और पारिवारिक स्तर पर अपने कामों को पूरी ईमानदारी से कर सकी। कुछ लिखा, कुछ पढ़ा पर जिन अनेक कामों को करना शेष है, वे याद दिलाते रहते हैं। सही कहूँ तो स्थितियों के चलते जितना काम करना चाहती हूँ, कर नहीं पाती। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
भारत का विदेश मंत्रालय अपने उच्चायोग के माध्यम से हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार का कार्य करता है। आप उच्चायोग की भूमिका को किस प्रकार देखती हैं? उच्चायोग को आप क्या सुझाव देना चाहेंगी, जिससे उसकी सक्रियता इस क्षेत्र में और बढ़ सके? 
शैलजा सक्सेना— 
भारत का विदेश मंत्रालय और उच्चायोग विदेशी भूमि पर रह रहे भारतीयों के अपने घर की तरह होते हैं जहाँ से उन्हें अनेक कामों में मदद मिलती है। कैनेडा में भी यह बात सच है। 
अन्य व्यावसायिक, क़ानूनी और वीसा संबंधी कामों के साथ-साथ उच्चायोग की विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। उच्चायोग स्थानीय भारतवंशियों के लिए सहायक तंत्र होते हैं जो उन्हें विदेशी भूमि पर अपने विशिष्ट अस्तित्व को बनाए रखने में मदद करते हैं। भारतवंशियों की उदारता, भाषा प्रसार की आवश्यकता को समझकर कार्य करने का उत्साह और उसके लिए संसाधन प्रस्तुत करने में ये तंत्र बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। छोटे स्तर पर वे यह कार्य करते भी हैं पर प्राय: अनेक काम इस बात पर निर्भर करते हैं कि तीन वर्षों के लिए जो उच्चायुक्त आयेंगे, वे किस काम में रुचि रखते हैं? अगर उनकी रुचि भाषा में है तो कुछ समय के लिए गतिविधियाँ कुछ तीव्र हो जाती हैं, अन्यथा शिथिल हो जाती हैं। कुछ समय पहले श्री अखिलेश मिश्र जी यहाँ कौंसलाधीश थे और उनके नेतृत्व में भाषा और साहित्य के कामों में प्रगति हुई। कार्य नीति के रूप में कौंसलावास की कोई योजना नहीं जिससे उस पर निरंतर काम किया जा सके। 
कैनेडा में जिस स्तर पर यह कार्य किया जा सकता था/ है, वह हो नहीं पा रहा है। उच्चायोग बहुत से अन्य कामों में लगा है, अनेक बहुत ही अच्छे काम कर रहा है पर भाषा प्रसार के लिए जिस तीव्रता और निरंतरता की आवश्यकता है वह कहीं ना कहीं अनेक कारणों से बाधित होती है। स्थानीय संस्थाएँ अपना-अपना काम कर रही हैं पर उच्चायोग इन संस्थाओं के सहयोग से आपसी संवाद और किसी ठोस काम की योजना की ओर नहीं बढ़ सका है। कवि सम्मेलन या बच्चों का एक कार्यक्रम आयोजित कर दिया जाता है और इस संदर्भ में अपने कर्तव्य की इति श्री समझ ली जाती है। सरकारी स्कूलों में भारतवंशियों की संख्या अधिक होने के कारण हिंदी एक विकल्प विषय के रूप में आ सकती थी। इस दिशा में उच्चायोग की पहल निःसंदेह बहुत बड़ा महत्त्व रखती है पर यह काम अभी तक नहीं हो सका है। विभिन्न संस्थाओं के साथ मिलकर तीन दिवसीय हिंदी अधिवेशन की योजना बनकर भी काग़ज़ पर ही रह गई। उच्चायोग अगर इस ओर ध्यान दे तो बहुत कुछ हो सकता है। सबसे पहले तो संस्थाओं के साथ मिलकर एक नियमित संवाद की आवश्यकता है जिससे कि कोई कार्य योजनाएँ बन सकें और फिर उन योजनाओं पर कार्य किया जा सके, उदाहरण के तौर पर:

  1. स्कूलों में हिंदी को लाना
  2. हिंदी अधिवेशन का आयोजन
  3. भारतवंशियों के सांस्कृतिक आयोजनों के लिए स्थान और संसाधन जुटाना
  4. हिंदी की पुस्तकों और पत्रिकाओं को स्थानीय लेखकों के लिए उपलब्ध कराना
  5. विश्व मंच पर कैनेडा के हिंदी लेखकों को लाने के लिए प्रोत्साहन

आजकल अपूर्वा श्रीवास्तवजी यहाँ कौंसलाधीश हैं और निरंतर प्रयास कर रही हैं कि हिंदी के कार्यक्रम बढ़ें और हिन्दी साहित्यसेवी अपना काम निरंतर करते रह सकें। हमें आशा है कि उनके कार्यकाल में इन योजनाओं में से कुछ सफल हो सकेंगी। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
अक़्सर देखा जाता है कि विदेशों में बसे नागरिक धीरे-धीरे अपनी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाज़ों से कटने लगते हैं। आपने टोरोंटो में बसे भारतीयों को निकट लाने और अपनी जड़ों से जुड़े रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है? इसके लिए आपकी क्या योजना रही और इस योजना को आपने कैसे मूर्त रूप दिया? 
शैलजा सक्सेना— 
यह बात सच है कि वे सांस्कृतिक जड़ों से कटने लगते हैं पर यह भी सही है कि वे अपनी जड़ों को पकड़ने के लिए जी-जान लगा देते हैं। हम लोग घरों में तो पर्वों, भाषा, खान-पान, पूजा आदि पर ध्यान देते ही हैं पर एक सांस्कृतिक वातावरण बनाने के लिए कुछ प्रयास करने पड़ते हैं। इसके लिए हमारी संस्था, पर्वों पर विशेष आयोजन भी करती है, विशेष कर होली पर हम यह कार्यक्रम करते हैं। मार्च में जब होली आती है तो यहाँ बेहद ठंड होती है, प्राय: बाहर हिमपात की सफ़ेदी ही होती है ऐसे में होली का वह उत्साह ही नहीं जाग पाता जैसा भारत में होता था। इसलिए हम होली पर बच्चों और बड़ों के लिए कार्यक्रम करते हैं। स्थानीय मंदिर के भीतर बने बड़े हॉल में यह निःशुल्क कार्यक्रम होता है जिसमें बच्चे सबका स्वागत रंग लगा करते हैं, ठंडाई, गुझिया, चाट, समोसे-जलेबी आदि का पारंपरिक भोजन रहता है। बच्चों को कविता, लोकगीत और लोकनृत्य प्रस्तुति के लिए मंच दिया जाता है। साथ ही ’आओ हिंदी में बोलें’ कार्यक्रम में भाग लेने वाले बच्चों से मंच पर हिंदी में बिना पूर्वाभ्यास के बातचीत होती है। सभी बच्चों को उपहार और प्रमाण-पत्र दिए जाते हैं, जिससे उनका उत्साह अगले वर्ष आने के लिए भी बनता है। बड़े भी चैती और होली की कविताएँ प्रस्तुत करते हैं। इस अवसर पर हम ‘स्थानीय चैरिटी’ के लिए डिब्बा बंद खाना और बच्चों के कपड़े आदि भी एकत्र करते हैं। दूसरा ऐसा अवसर होता है, ’हिंदी दिवस’ का, जब फिर से बच्चों को कविताएँ-कहानी प्रस्तुत करने के लिए मंच देते हैं। वैसे साल में हमारी बारह गोष्ठियाँ होती हैं जिनमें हम स्वरचित रचनाओं की प्रस्तुति के साथ ही प्रतिमाह एक विषय पर विचार-विमर्श भी करते हैं। इन गोष्ठियों में हमने अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे भक्तिकाल के कवियों से लेकर आधुनिक साहित्य पर बात की। कई गोष्ठियाँ महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे—’संस्कृति और सभ्यता के बदलते परिप्रेक्ष्य’, आदि में प्रबुद्ध वक्ताओं के होने से ये शोध संगोष्ठियों जैसी गंभीर और प्रभावपूर्ण बन गईं। 
इन कार्यक्रमों में हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा के सदस्य सहयोग देते हैं जिनके कारण ये कार्यक्रम सफल रहते हैं। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
ऐसा क्या था जिसने आपको भारत से इतने दूर रहकर भी अपनी जड़ों, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से जोड़े रखने में प्रभावी भूमिका निभाई? 
शैलजा सक्सेना— 
नूतन जी, मुझे लगता है कि हर प्रवासी भारतीय अपनी जड़ों और संस्कृति से जुड़े रहने की चेष्टा करता है, आवश्यकता इस चेष्टा को एक सामूहिक रूप देने की होती है। बहुत सी संस्थाएँ इन उद्देश्यों को लेकर बनती हैं। आप शायद जानती हों कि विदेश में भारत की अनेक प्रादेशिक संस्थाएँ भी हैं जैसे ‘महाराष्ट्र मंडल’, ’बिहार एंड झारखंड कनेडियन एसोसिएशन’, ’काश्मीरी एसोसियेशन फ़ॉर नार्थ अमेरिका’ आदि। मंदिर भी सामाजिक जुड़ाव की चेष्टा में लगे हुए हैं तो सब अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। इन सबके मन में भारत बसा हुआ है। मेरे मन में भी भारत रमा हुआ है। अपने देश और संस्कृति से प्यार, उस पर गर्व और उससे जुड़ाव है पर एक बात और लगती है कि हमारी प्राचीन सभ्यता में जीवन मूल्यों के रत्न और जीवन रहस्यों के समाधान हमारे ऋषि-मुनियों ने दिए थे। उनको ढूँढ़कर हमें अगली पीढ़ी को देना है। वे रत्न खोने नहीं चाहिए। जीवन की बढ़ती संश्लिष्टता में वे समाधान ही मेरे बच्चों और उनके बच्चों के लिए मशाल का काम करेंगे। शायद मेरे हर काम के मूल में मेरा यह विश्वास ही है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
यदि मैं ग़लत नहीं हूँ, तो आपका कविता संग्रह क्या तुमको भी ऐसा लगा? सन्‌ 2014 में प्रकाशित हुआ था। बीच-बीच में आपकी कवितायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों में पढ़ने को मिल रही हैं। क्या आपको नहीं लगता कि पाठक आपके दूसरे संग्रह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
नूतन जी आपका बहुत आभार कि आपने मेरी रचनाओं में रुचि दिखाई। यह सही है कि मेरे पास बहुत कुछ लिखा हुआ और अप्रकाशित रखा है। पुस्तक प्रकाशन एक तसल्ली का काम है। समय लेकर अपने लिखे को पाँच बार देख, ठीक कर भेजने वाला काम है यह, जो मैं अनेक कारणों से अब तक नहीं कर पाई। कुछ संस्था के काम, पारिवारिक स्थितियाँ, कुछ स्वास्थ्य समस्याएँ आदि चलती रहीं। काव्य-संग्रह भी जाने कैसे तो प्रकाशित हो गया। वास्तव में प्रकाशन के लिए जो सतत प्रेरणा, दबाब और उत्साह चाहिए, वह भी शायद मुझमें कम है। एक कारण तो यह रहा कि नौकरी और संस्था के कामों के बाद एक मुश्त समय ही नहीं मिलता था कि अपनी रचनाओं को सँवारकर फिर से देख सकूँ और प्रकाशक के पास भेज सकूँ। 12 घंटे नौकरी करने, आने-जाने में निकलते थे, बच्चे-परिवार आदि में समय देने के बाद, गिल्ड के काम . . . इसीलिए मुझॆ लगता है कि प्रवासी लेखक के संघर्ष अधिक कड़े होते हैं। इसके अलावा यह भी है कि मुझॆ अपने लिखे से कभी पूरा संतोष नहीं होता। मुझे लगता है कि इन रचनाओं को बेहतर किया जा सकता है, इसलिए उसे उलटना-पलटना बंद करना कठिन होता है। 
आपने ’पाठक काव्य-संग्रह की प्रतीक्षा कर रहे है”, कहकर मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है। चलिए, अब शीघ्र ही इस ओर कुछ करती हूँ। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
क्या तुमको भी ऐसा लगा संग्रह की कवितायें बहुत ही ख़ूबसूरती से लिखी गई हैं। बहुत से ज्वलंत सामाजिक मुद्दों को आपने इसमें उठाया है। आपकी कविताओं की सबसे बड़ी विशिष्टता है, विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करना, उन पर विजय पाना और अपनी इंसानियत को हर-हाल में बचा कर रखना। आधुनिक जीवन शैली और रिश्तों के बनते-बिगड़ते भँवर ने मानव-मनोविज्ञान को बुरी तरह झंझोड़कर रख दिया है। इन सबके चलते अपनी कविताओं के माध्यम से आप अपने पाठकों तक क्या पहुँचाना चाहती हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
आपने काव्य-संग्रह मन से पढ़ा, इसके लिए सबसे पहले तो मैं आपका बहुत धन्यवाद करती हूँ। जैसा मेरे संग्रह का नाम है, “क्या तुमको भी ऐसा लगा?” यह ‘लगना’ पाठक के साथ मेरा संवाद है। ‘लगने’ से पहले देखना होता है। यह देखना एक साथ हो सके, पाठक के साथ हो सके, यही प्रयास रहता है। घटना या व्यक्ति विशेष को मैं जिस कोण से देख रही हूँ, उसे पाठक के साथ साझा करना ही शायद मेरा उद्देश्य है। पाठक घटनाओं और स्थितियों को नए आयामों से देखे, सोचे, जाँचे और फिर बदलाव के लिए कुछ प्रयास करे या पाठक कुछ अधिक संवेदनशील हो सके, यही चेष्टा रहती है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपने अपनी कविताओं में स्त्री के अंतर्जगत को मुखरित किया है। आज जिधर देखें, उधर विभिन्न विमर्शों पर सुनने, पढ़ने को मिलता है, फिर चाहे वो स्त्री विमर्श हो, दलित विमर्श हो या कुछ और। क्या इन विमर्शों का बढ़ता चलन समाज की दिशा और दशा में परिवर्तन लाने में सक्षम है, या फिर ये सब एक टेम्पररी शगल मात्र है? 
शैलजा सक्सेना— 
पिछले कई सालों से अनेक विमर्श आए हैं, यह सच है। इन विमर्शों का उद्देश्य हाशिये पर रहने वाले विषयों और व्यक्तियों को मुख्यधारा में लाना है। इन विमर्शों में राजनीति का जुड़ जाना इन विमर्शों का दुखद पक्ष है। मुझे लगता है कि यह टेम्परेरी शगल नहीं है लेकिन ये विमर्श अपने में पूर्ण नहीं हैं, ये इन विषयों की विचार यात्रा के प्रस्थान बिंदु हैं। 
कोई भी नई बात एक आंदोलन की तरह प्रारंभ होती है और आवेग में एक तरफ़ ही झुक जाती है लेकिन कुछ समय के बाद उन विचारों के अन्य आयाम भी उभर कर आते हैं और विचारधारा संतुलित होती है। आवेग में एक ओर झुक जाना एक सहज प्राकृतिक प्रतिक्रिया होती है जो अपनी तीव्रता से बद्ध विचारों की धज्जियाँ उड़ाने की चेष्टा करती है। आँधी जैसे थपेड़े हमारी चेतना पर पड़ते हैं और हम तिलमिलाते हैं, कभी उस हवा के साथ हो लेते हैं तो कभी स्वयं को बचाने के लिए उसका विरोध करते हैं। हमारी प्रतिक्रिया इन विमर्शों के प्रति चाहे जो भी रही हो पर इन विमर्शों ने साहित्यकारों और हिंदी प्रेमियों का ध्यान खींचा है, विचार को बाध्य किया है, स्त्री लेखन और दलित साहित्य विमर्शों ने इन आवश्यक विषयों पर बहुत-सा लेखन करवाया है, यह अच्छी बात है। इन्हें टेम्परेरी शगल कहना अनुचित होगा। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
क्या आप अपनी कविताओं के पात्रों और उनकी मनःस्थितियों को जेंडर लेंस से देखती हैं और अपने पाठकों को भी ऐसे ही दिखाने की इच्छा रखती हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
जेंडर लेंस का मतलब क्या होता है, सबसे पहले तो यही समझने की ज़रूरत है। क्या जेंडर आधारित लिखने का मतलब एक जेंडर को ऊँचा उठाना और दूसरे जेंडर को नीचे गिराना है या किसी एक जेंडर की, किसी दिए गए समय और समाज में, स्थिति और समस्याओं में, सोच और काम करने के तरीक़े की भिन्नता को दिखाना है? इस बात को पहले स्पष्ट कर लेने की आवश्यकता है। जेंडर की बात हर युग, हर समाज और हर साहित्य में होती है। कोई भी रचनाकार जब पात्रानुरूप भाषा में किसी पात्र का आचरण दिखाता है तो वह पात्रों को स्त्री-पुरुष या थर्ड जेंडर के हिसाब से ही दिखाता है। जेंडर के स्थान पर व्यक्ति की प्रतिष्ठा के लिए भी, उस जेंडर विशेष की स्थितियों की चर्चा करे बिना आप जेंडर न्यूट्रल या जेंडर सेंसिटिव नहीं हो सकते, व्यक्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं कर सकते। अभी हमारा समाज जेंडर सेंसिटिव नहीं हुआ है, अगर हुआ होता तो बलात्कार न होते, घरेलू शोषण नहीं होता, काम पर ’वर्कप्लेस हैरासमेंट’ की शिकायतें न दर्ज होतीं और यह सब हर समाज और हर देश में है, कहीं कम और कहीं ज़्यादा! विभिन्न रूपों में यह जेंडर असमानता फैली हुई है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, अन्यथा न जेंडर सेंसिटिव होने के मुद्दे उठाए जा रहे होते और न आपका यह प्रश्न ही आता। 
मेरे लेखन में भी स्त्री, पुरुष और बच्चे अपने लिए बनाई गई बँधी हुई सामाजिक धारणाओं से जूझते, अपने विचार और कर्म कौशल से अपने लिए नई ज़मीन बनाते हैं जहाँ उन्हें व्यक्ति के रूप में आदर और मान मिले। जैसे मेरी कहानी ‘उसका जाना’ की नायिका भारत से कैनेडा अपने पति के साथ आती है, पति के संघर्षों को समझती है, इसी कारण कुछ हद तक उसके अत्याचारों को भी सह लेती है लेकिन जब बात, पति द्वारा दी गई ’सेक्श्युअली ट्रासंमिटेड डिसीज़’ के माध्यम से उसकी मौत और ज़िन्दगी पर आ जाती है, तो बहुत हिचकिचाकर वह छोटे क़स्बे से आई औरत अंत में, विदेश में, बिना किसी पारिवारिक मदद के घर से निकलने के लिए तैयार हो जाती है। यह उसके ‘अबला’ से सबला होने की यात्रा है। अगर जेंडर की बात न हो तो न मैं उसके पति पर आने वाले पूरे परिवार के पोषण के दायित्व और उसमें असफल होने से उठती कुंठा और निराशा को लिख सकती हूँ और न उस औरत की स्थिति को। हाँ, जहाँ वह औरत अँग्रेज़ी सीखकर भी भाषा के उपयोग में दक्ष नहीं हो पाती वहाँ बात सभी नए प्रवासियों की स्थिति को वह बताती है। इस तरह से हर पात्र में कुछ हिस्सा सर्वसामान्य से और कुछ हिस्सा उसके विशिष्ट जेंडर से जुड़ा हुआ आता ही है। 
इस तरह एक लेखक जेंडर के भीतर और जेंडर से बाहर की यात्रा अपने पात्रों को करवाता है। लेकिन यह स्पष्ट कर दूँ कि जहाँ एक जेंडर को हावी करके दूसरे या तीसरे जेंडर की पूरी उपेक्षा कर दी जाती है, मैं उसके पक्ष में क़तई नहीं हूँ। एक पक्ष के लिए न्याय माँगने निकले व्यक्ति का ही यह कर्तव्य है कि वह अन्य पक्षों के साथ अन्याय न करे। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
ऐसा माना जाता है कि स्त्री विश्व के किसी भी कोने में चली जाए, उसके लिए सामाजिक परिवेश और उनमें विचरण करने वाले पात्रों का व्यवहार कमोवेश एक सा ही रहता है, विश्व भर की स्त्रियों की वर्तमान स्थिति के बारे में क्या कहना कहेंगी आप? 
शैलजा सक्सेना— 
मेरी एक पुरानी कविता है कि ’औरत/ चाहें जिस ज़मीन की हो/ चाहें जिस हवा में/ पली-बढ़ी हो/ पर दुनिया का समाजशास्त्र कहता है। / कि आदमी से उसका कद/ हमेशा छोटा ही रहता है।’ यह दुनिया का कटु सच है कि स्त्री अभी भी वह सम्मान और स्थान नहीं पा सकी है जो उसे मिलना चाहिए। स्त्री के संघर्ष शारीरिक और मानसिक दोनों हैं बस इनके रूप, हर ज़मीन पर अलग-अलग हैं। मेरा काव्य-संग्रह 25-30 वर्षों की लिखी कविताओं को प्रस्तुत करता है अत: जहाँ यह बात सच है कि समाज ने स्त्री और पुरुष को एक समान दर्जा नहीं दिया तो वहीं यह भी सच है कि पिछले 20-25 वर्षों में स्त्री अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ी है और उसन‌‌े समाज में अपना महत्त्व स्थापित किया है। परिवार के केंद्र में तो वह पहले से ही थी पर सामाजिक और आर्थिक रूप से भी उसकी स्थिति दृढ़ हुई है। स्त्री हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है, वह अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग है और घुड़कियाँ उसे अब डराती भले हों, प्राय: मनोबल नहीं तोड़ पातीं। मेरे काव्य संग्रह में स्त्री के प्रति ये दोनों तरह के भाव मिलेंगे। 
विदेश में भी स्त्री स्वतंत्रता का नारा लगाने की आवश्यकता इसीलिए पड़ी क्योंकि वह स्वतंत्र और सम्मानित नहीं थी। अमरीका में 1920 तक स्त्री को वोट डालने तक का अधिकार नहीं था। कैनेडा में 1916 तक न वह वोट डाल सकती थी और न कोई प्रादेशिक ऑफ़िस अधिकारी बन सकती थी। ये तो रही क़ानूनी अधिकारों की बात पर सामाजिक स्तर पर यह समानता बहुत बाद में आई है। कैनेडा जैसे विकसित देश तक में 1976-77 तक औरतों को स्कर्ट पहन कर ही काम पर जाना होता था चाहें तापमान -25 डिग्री सेल्सियस चल रहा हो। स्त्री से अपेक्षा की जाती थी और अब भी की जाती है कि वे ही घर के और बाहर के सब काम सँभाले। गृहस्थी की मूल ज़िम्मेदारी औरत ही अधिकांश जगह निबाहती है, इस तरह वह आज भी दोहरी मार सह रही है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपकी कविता की पंक्तियाँ हैं, 'कितनी भी कोशिश करूँ, पर हर बार तुम्हारा मूड जीतता है, और मात खा जाता है मेरा मूड' तो क्या महिलाएँ आज भी अपने अस्तित्व को समर्पित कर रही हैं, पुरुष मानसिकता के समक्ष, या फिर परिवार को बचाने की जद्दो-जेहद में वे ख़ुद से, ख़ुद की अस्मिता से समझौता करने को विवश हैं? 
शैलजा सक्सेना—
यह बात तो माननी पड़ेगी कि स्त्री घर को बचाने की पूरी चेष्टा करती है। मैं घर को बनाए या बचाए रखने में पुरुष की भूमिका को अस्वीकार नहीं कर रही हूँ लेकिन यह बात भी सच है कि अगर स्त्री घर को बनाए रखने के लिए कुछ समझौते ना करे तो बहुत से घरों को बचाना कठिन हो जाएगा। समस्या यह है कि ना तो स्त्री अपनी अस्मिता से समझौता कर सकती है या करना चाहती है और ना ही घर को टूटते हुए, बिखरते हुए देखना चाहते है। ऐसे में एक अजीब द्वंद्व में उसका जीवन निकलता है। जितना हो सके वह चाहती है कि उसका घर बचा रहे, परिवार एक साथ बना रहे और बच्चों का लालन-पालन ठीक से होता रहे। पुरुष अगर समझदार होता है तो इस काम में स्त्री का हाथ बँटाता है अन्यथा स्त्री बहुत कुछ अकेले ही सँभालती जाती है। 
आज के युग में सँभालने का मतलब केवल घर सँभालना या बच्चों की देखभाल करना ही नहीं होता बल्कि बहुत बार यह भी देखा जाता है कि स्त्री बहुत अधिक प्रतिभाशाली होने के बाद भी परिवार को चलाने के लिए अपनी नौकरी में कुछ ना कुछ समझौता करती है, अपनी प्रतिभा से कम के पद को स्वीकार करती है ताकि वह अधिक समय घर को दे सके, बच्चों को दे सके या अपनी रुचि के बहुत सारे कामों को नज़र अंदाज़ करके, कुछ सालों के लिए लगभग भूल ही जाती है। प्राय: पुरुष अपनी नौकरी में प्रतिभा से कम के पद को स्वीकार नहीं करता, उसकी व्यावसायिक उन्नति हमेशा प्राथमिकता ही पाती है। कई लोग तर्क देंगे कि पुरुष की आय स्त्री से अधिक होने के कारण आर्थिक आधारों पर ऐसे निर्णय लिए जाते हैं पर बात यह भी है कि पुरुष भी कम दायित्ववाली नौकरी लेकर बच्चों के लालन-पालन में हाथ बँटा सकता है, पर वह कम स्तर वाले पद पर जाने के लिए तैयार नहीं होगा, जबकि स्त्री यह करती है। मैं इसको भी समझौते के अंतर्गत रखना चाहूँगी। 
आज के समय में घरेलू हिंसा, मारपीट आदि तक ही स्त्री के सहने या ना सहने की परिभाषा निश्चित नहीं की जा सकती। आज एक पढ़ी-लिखी और कॉर्पोरेट जगत के स्तर पर सफल स्त्री के संदर्भ में यह परिभाषा कुछ विस्तृत हो जाती हैं। ऐसे में समझौता पद, पैसे, रुचि आदि अनेक प्रकार का होता है। दुनिया भर में स्त्रियाँ ऐसे समझौते कर रही हैं और उनसे घर-परिवार-समाज की ये अपेक्षाएँ आज भी बनी हुई हैं। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आज जब स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हैं, शिक्षित है और घर-परिवार दोनों को ज़िम्मेदारी से, कहना ग़लत नहीं होगा कि पुरुष से बेहतर ढँग से सँभाल रही हैं, आपको लगता है कि पुरानी और नई पीढ़ी की स्त्रियों के स्त्रियोचित गुणों और स्वभाव में कुछ ख़ास परिवर्तन आया है? या फिर पीढ़ियों के अंतर के बावजूद वही दंश, वही टीस और उससे मुक्ति के लिए भीतर ही भीतर घुटना, सिर्फ़ यही रास्ता शेष है आज भी उनके पास, (माँ कविता के परिप्रेक्ष्य में)। 
शैलजा सक्सेना— 
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री की स्थिति में पहले से बहुत बदलाव आया है। स्त्री सशक्तिकरण की ओर बढ़ते हुए क़दम कुछ और दृढ़ हुए हैं और स्त्री को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए पहले की अपेक्षा आज कुछ कम संघर्ष करना पड़ता है। अगर टीस और दंश की बात सोचें तो वह पूरी तरह से समाप्त तो नहीं हो गए हैं लेकिन प्रतिशत और संख्या के स्तर पर भी कुछ कमी आई है। गाँव और क़स्बे की औरतें भी आज पढ़ी-लिखी हैं और अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम है। उनमें पुरुष से पूरी तरह लड़ने का साहस तो नहीं आया है पर अपनी बात को कहने के लिए अब उतना संकोच भी नहीं रह गया है जितना कि पहले था। इस तरह टीस सहने का लगातार चलता सिलसिला कुछ कम हुआ है। 
“माँ” कविता में स्त्री की टीस दो स्तरों पर है, एक तो यह है कि देश से विदेश की दूरी हो जाने के कारण लड़की माँ और परिवार से बहुत दूर हो गई है, उन्हें न देख सकने का दुख उसके भीतर है और दूसरी बात यह कि नए स्थान पर अपने आपको जमाना और सही तरीक़े से जीवन को जीने के बीच उन समझौतों को वह कर रही है जो कि एक स्त्री से अपेक्षित हैं। यह कविता उस समय की कविता है जब फ़ोन के एक मिनट के लिए सवा डॉलर लगते थे, ऐसे में घरवालों से बातचीत बहुत कम होती थी और महीने भर की हड़बड़ी कुछ ही मिनटों में भरने की चेष्टा होती थी। आज आधुनिक साधनों के उपलब्ध हो जाने के कारण लड़कियों का परिवार से निरंतर संपर्क बना रहता है। वह माँ, बहन, भाई आदि सभी रिश्तों से दूर होते हुए भी, फ़ेसटाइम आदि के द्वारा संपर्क बनाए रह सकती हैं। दिन में अनेक बार फ़ोन कर सकती हैं। स्त्री की स्थिति के बदलाव में इस टेक्नोलॉजी का भी बहुत बड़ा हाथ है। पीड़ित होने पर तुरंत किसी ना किसी हितैषी से सलाह लेकर काम कर सकती है बल्कि कई बार तो अधिक सलाह लेने के कारण भी पति-पत्नी के संबंधों के बीच कठिनाई उत्पन्न होती दिखाई देती है। कह सकते हैं कि स्थिति अब बदल रही है और स्त्री भी बदल रही है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
किसी भी घटना पर अपनी कविता में आप बड़े ही सहज और सरल ढंग से प्रतिक्रिया देती हैं, ऐसा लगता है कि वो घटना और उसकी प्रतिक्रया स्वतः अनुभूत हो? कितना यथार्थ और कितनी कल्पना होती है आपकी कविता में? 
शैलजा सक्सेना— 
कविता या किसी भी प्रकार का लेखन, लेखक की आत्मसात की हुई भावनाओं में कल्पनापूर्ण संवेदनशीलता मिलाने के द्वारा ही सम्भव हो पाता है। अगर लेखक किसी स्थिति को अपना बनाकर उससे पूरी तरह जुड़ने में असमर्थ है तो वह कभी भी पाठकों तक पूरी तरह से नहीं पहुँच सकता, ऐसा मेरा मानना है। मेरी रचना स्वानुभूत लगने का कारण भी यही है। हर स्थिति और विचार को पहले पूरी तरह से अपने भीतर उतारती हूँ, उसके अनेक पक्षों पर भावात्मक विचार करती हूँ और फिर जिस शैली और शब्द में वह काग़ज़ पर उतरना चाहते हैं, उन्हें उतरने की पूरी तरह से छूट देती हूँ। अगर कोई भी भाव चाहे वह मेरा स्वानुभूत ही क्यों ना हो, मुझ में गहरे नहीं उतरा है तो मैं उसे नहीं लिखती। भावना/विचार के प्रगाढ़ होने की प्रतीक्षा लेखक को सदा ही करनी चाहिए और अगर किसी कारण वह प्रगाढ़ ना हो सके तो उसे नहीं लिखना चाहिए। 
अब रही बात यह सोचने की कि क्या-क्या जो कुछ भी मैंने लिखा है, वह सब कुछ मेरे साथ घटित हुआ है? तो यह प्रश्न अपने आपमें ही कुछ विचित्र होगा क्योंकि भावजगत पर तो चाहे सब कुछ घटित हो जाए पर भौतिक स्तर पर तो यह सब एक व्यक्ति के साथ घटित नहीं हो सकता। मुझे याद है कि जब मेरे काव्य संग्रह के विमोचन के समय टोरोंटो के एक वरिष्ठ लेखक ने मेरी एक कविता को उद्धृत करते हुए कहा कि मुझे नहीं पता था कि इनके परिवार में लड़की के साथ इस प्रकार का व्यवहार होता है? मैं स्तब्ध रह गई थी। सोचिए कि यह टिप्पणी कितनी छिछली है इससे पता लगता है कि लेखक और अलोचक भी अभी तक लेखन प्रक्रिया को पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं। 
मुझे प्रसन्नता है कि मेरे भाव इतने अधिक सघन रूप में रचनाओं में उतरे हैं कि स्वानुभूत होने का भ्रम पैदा करते हैं। कल्पना और यथार्थ के अनुपात को मैं पूरी तरह से नहीं कह सकूँगी क्योंकि जब वे भाव मेरे मनोजगत पर पूरी तरह से छा जाते हैं, तब वे मेरे न होते हुए भी मेरे दर्द के यथार्थ का हिस्सा बन जाते हैं। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
प्रवास में रहने से पूर्व अष्टाक्षर में सन‌‌ 1992 में आपकी कवितायें छपी थीं, जिनमें भारत के शीर्षस्थ कवियों, जैसे हेमंत कुकरेती, अनामिका आदि की कवितायें छपी थीं, प्रवास और भारत के साहित्यिक वातावरण के बारे में आप क्या अनुभव करती हैं। क्या आपको लगता है कि भारत का परिवेश और जागरूक पाठक आपको और अधिक साहित्यिक सक्रियता दे सकते थे? 
शैलजा सक्सेना— 
यह मेरा सौभाग्य था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते समय मुझे बहुत से अच्छे प्राध्यापकों, विचारशील मित्रों तथा संवेदनशील रचनाकारों का सत्संग मिला।”अष्टाक्षर’ एक काव्य-संग्रह था, जिसमें मुझे अनामिका जी, हेमंत कुकरेती, विनय विश्वास और बलीसिंह जी जैसे अच्छे लेखकों के साथ प्रकाशित होने का अवसर मिला। इस प्रकाशन की पूर्व प्रक्रिया में सबसे बहुत बातचीत होती थी। इस संग्रह के संपादक श्री द्वारिका प्रसाद ‘चारुमित्र’ जी ने बहुत मेहनत से हम आठ लेखकों का यह संग्रह निकाला था। आमने-सामने बैठकर हुई बातचीत के दौरान बहुत कुछ सीखने समझने और सोचने का अवसर मिला। ऐसे अवसर खेत की गुड़ाई की तरह से होते हैं जो लेखक के मनोजगत और विचार जगत को झकझोरते हैं और नए तरह से बहुत सारी चीज़ों पर सोचने के लिए विवश करते हैं। आप की बात सही है कि भारत में इस प्रकार के अवसर विदेश की तुलना में कहीं अधिक हैं। 
मैं अमेरिका, ब्रिटेन, और कैनेडा तीन देशों में रही हूँ। अमेरिका के तीन शहरों में रही, पर वहाँ मेरा जुड़ना किसी स्थानीय साहित्यकार या संस्था से अधिक नहीं हुआ। 1990 के दशक में फ़ेसबुक, गूगल आदि भी नहीं थे अतः कौन कहाँ रहता है, यह पता लगाना भी कठिन था। ऐसे में साहित्यिक माहौल का ना मिलना ही अधिक स्वाभाविक है और वही हुआ। ब्रिटेन में मेरा रहना केवल एक वर्ष के लिए हुआ लेकिन वहाँ के साहित्यिक वातावरण को देखकर बहुत अधिक प्रसन्नता हुई। कैनेडा में कई साहित्यकार हैं और मेरा उनसे जुड़ना भी जल्दी ही हो गया था पर बहुत कम लोग ऐसे थे जो आधुनिक भावजगत से जुड़े हुए थे। विचारधारा के स्तर पर बहुत कुछ छायावाद की छाया थी। धीरे-धीरे एक ऐसा वातावरण निर्मित करने की चेष्टा रही जहाँ पर आपस में बातचीत हो सके और यह वातावरण हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा के माध्यम से उत्पन्न हुआ। 
भारत के साहित्यकारों और विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के अध्ययन का स्तर और विदेश में रहने वाले विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए हुए हिन्दी प्रेमियों के स्तर में अंतर होता ही है। अत: लिखने के लिए सोच की गुड़ाई का वैसा वातावरण नहीं मिल पाता जिसकी बात मैं ऊपर कर रही थी। यह भी सच है कि बहुत कुछ ऊर्जा यहाँ भारतीय समुदाय को साहित्य और संस्कृति से जोड़े रखने में भी जाती है, ऐसे में लेखन पर प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है। तो कह सकती हूँ कि यदि भारत में ही रहती तो सम्भवतः अधिक लिख/ छप रही होती। पर यह सब तो सम्भावना की ही बात है, यथार्थ में क्या होता इसे कौन कह सकता है। 
 डॉ. नूतन पाण्डेय—
“अंत से पहले अनंत गाथा” नाम से आपका खंड काव्य जल्दी ही साहित्य जगत में दस्तक देने वाला है। इसकी पृष्ठभूमि, प्रेरणा और मुख्य वर्ण्य के विषय में हमें कुछ बताना चाहेंगी? 
शैलजा सक्सेना— 
पिछले पाँच-छह वर्षों से इसका काव्य की पृष्ठभूमि बन रही है। दो साल पहले इसका ड्राफ़्ट भी बनकर तैयार हो गया लेकिन अभी तक इसे प्रकाशन में नहीं भेज पाई हूँ क्योंकि उलटना-पलटना ख़त्म नहीं किया। लगता है कि क्या कोई हिस्सा और बेहतर कर सकती हूँ? यह मेरी अपने से की गई अपनी ही होड़ है। मुझे प्रकाशन की जल्दी नहीं रहती है, यह आपने भी देखा। 
इस खंडकाव्य में भीष्म के चिंतन को केंद्र में रखकर मैंने विभिन्न पात्रों से उनकी बातचीत दिखाई है। भीष्म महाभारत के बहुत ही बलशाली पात्र हैं पर मृत्यु शैया पर पड़े हुए वे जो विचार करते हैं, उसको लेकर ही यह काव्य लिखा गया है। इससे अधिक कुछ कहने से आपकी उत्सुकता जाती रहेगी इसलिए बस थोड़ा सा और इंतज़ार कीजिए और फिर इस खंडकाव्य को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दीजिएगा। 
डॉ. नूतन पाण्डेय— 
आपने साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है। लेकिन आप किस विधा में लिखकर ख़ुद को सर्वाधिक सहज और संतुष्ट पाती हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
आपको मेरा उत्तर बहुत सारे लेखकों के जैसा ही लगेगा क्योंकि सचमुच किसी एक विधा को चुनना मेरे लिए कठिन है। कविता, कहानी, लेख, संस्मरण सभी अपनी अलग भाव और विचारभूमि लेकर उतरते हैं। कविता सबसे कम श्रम माँगती है अतः वह अधिक लिखी जाती है लेकिन कई बार जीवन इतना अधिक गद्यमय हो जाता है कि बहुत समय तक कविता भी रूठ जाती है। ऐसे में लेख या कहानी को अवसर मिल जाता है। जो भी अच्छा लिख पाऊँ, वही मुझे संतुष्टि देता है और बहुत बार तो ऐसा भी लगता है कि कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। हमसे पूर्व के लेखक बहुत कुछ ऐसा लिख गए हैं जिनको पढ़कर, गुनकर, सोचकर हम वही आनंद पा सकते हैं जो कि लिखने से मिलता है। ख़ैर! यही कह सकती हूँ कि भीतर के भाव और विचार ही अपनी तीव्रता में अपनी विधा तय करते हैं, अत: सभी मुझे प्रिय हैं। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपको देश की विभिन्न सरकारी और ग़ैर सरकारी साहित्यिक संस्थाओं से सम्मान मिल चुका है। अभी हाल ही में आप वूमैन अचीवर अवार्ड से भी नवाज़ी गई हैं। अपनी उपलब्धियों से ख़ुशी और अपने कार्य से संतुष्टि तो मिलती होगी? 
शैलजा सक्सेना— 
पुरस्कारों और सराहना से प्रसन्नता तो होती ही है। ये पुरस्कार ज़िम्मेदारी का भी अनुभव करवाते हैं और साथ ही एक तरीक़े से आश्वस्त भी करते हैं कि जो काम कर रही हूँ, वह ठीक हो पा रहा है। संतुष्टि का जहाँ तक प्रश्न है, वह तो मुझे अपने सही काम करने से ही आती है। जब कोई काम चाहे वह आयोजन का हो या लेखन का, ठीक तरह से हो जाता है तभी मन में संतोष आता है पर मैं उन सभी संस्थाओं और व्यक्तियों की कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे पुरस्कार देकर सम्मानित किया और इस योग्य समझा कि मैं इन पुरस्कारों की ज़िम्मेदारी उठा सकूँ। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
भविष्य के लिए आपकी क्या योजनायें हैं? 
शैलजा सक्सेना— 
कोरोना के इस काल में विश्व एक स्क्रीन पर सिमट आया है। अचानक सारी दूरियाँ समाप्त हो गई हैं अतः कुछ नई योजनाएँ भी बनी हैं, वह यह कि कैनेडा में हो रहे हिंदी के कामों और हिंदी के लेखकों का परिचय दुनिया से कराया जा सके ताकि हिंदी के मानचित्र पर कैनेडा भी अपनी उपस्थिति को ठोस तरीक़े से दर्ज करा सके। बहुत समय से मेरा यही प्रयास रहा है अतः अगस्त15 से हिंदी राइटर्स गिल्ड के फ़ेसबुक पर लाइव से मैं बहुत से लेखकों को जोड़ने की योजना है। 
व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने अधूरे पड़े लेखन को समाप्त करके, निरंतर काम करते रहना चाहती हूँ। और अधिक पढ़ सकूँ, सोच सकूँ और अच्छा लिख सकूँ, बस यही इच्छा है। इसी इच्छा क्रम में एक कहानी संग्रह और एक लेख संग्रह की प्रस्तुति की योजना भी है। 
नूतन जी, आपने इतने अच्छे प्रश्न पूछे इसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद! 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
 मेरी ओर से भी आपको बहुत-बहुत धन्यवाद, आप अपनी सक्रिय साहित्यिक ऊर्जा और रचनाशीलता से हिंदी को समुन्नत करती रहें, हमारी शुभकामनाएँ स्वीकारें। 

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