डॉ. दीपक पाण्डेय—
आप कैनेडा में रहते हुए अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रही हैं। आपके कैनेडा आने का क्या प्रयोजन और परिस्थितियाँ थीं?
स्नेह ठाकुर—
यह नहीं जानती कि मैं अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को कितना समृद्ध कर रही हूँ! हाँ, अपनी लेखनी द्वारा अनवरत बुद्धिदात्री, कल्याणकारी, वीणावादिनी, हँसवाहिनी, वागीश्वरी, माँ सरस्वती के चरण-कमलों में अपने शब्दों की पुष्पांजलि सदैव अर्पित करते रहने का प्रयास अवश्य कर रही हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे माँ सरस्वती, माँ भारती की वंदना करने का सौभाग्य बचपन से ही प्राप्त हुआ है।
रहा कैनेडा आने का प्रयोजन, तो उसे नियति का पूर्व-नियोजन ही कह सकते हैं। 1965 में विवाहोपरांत लंदन, इंग्लैंड आई। मेरे पति श्री सत्य पाल ठाकुर पहले से ही वहाँ रहते थे और बी.ओ.ए.सी. एअर लाइंस में कार्यरत थे, जिस कारण हमें अनेक देशों में भ्रमण करने का आनंद प्राप्त हुआ। ठाकुर साहब (नई-नई शादी के बाद ही एक दिन, जब मैं अभी भारत में ही थी, मेरी सबसे बड़ी ननद ने कुछ ताने जैसी भंगिमा से कहा–बाहर तो सभी पतियों को नाम से ही पुकारते हैं, तुम भी अभी से ही नाम से ही पुकारना शुरू कर दो। मैंने उनसे वायदा करते हुए कहा था कि यदि यह प्रचलन आपको बुरा लगता है, अभद्र लगता है, तो मैं अबसे हरदम इन्हें ‘ठाकुर साहब’ कह कर ही सम्बोधित करुँगी। मैं अपने बड़े भाइयों को भी नाम से नहीं पुकारती हूँ; ये भी मुझसे उम्र में बड़े हैं तो इन्हें भी नाम से नहीं पुकारूँगी, अब से बस ठाकुर साहब ही कहूँगी। और तब से अभी तक उन्हें इसी नाम से पुकारती आई हूँ। इन देशों में पहली बात तो इसे आपका व्यक्तिगत मामला मान कर इस बारे में कोई कुछ नहीं पूछता और यदि जिज्ञासावश आपका कोई मित्र पूछता भी है तो उन्हें भी बड़ी ननद वाली बात बता देती हूँ, और उनकी जिज्ञासा शांत हो जाती है। कोई निश्छल हँसी हँस देता है तो मैं भी उनके साथ खिलखिला देती हूँ) हाँ! तो ठाकुर साहब 1967 में कैनेडा एक्सपो देखने आए थे। मैं उस समय लन्दन में पढ़ा रही थी और शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों को बीमारी की दशा एवं संस्था द्वारा निर्धारित नियत छुट्टियों को छोड़कर और कोई अवकाश नहीं दिया जाता था। उसमें भी अगर दो दिन से ज़्यादा बीमार होते थे तो डॉक्टर्स सर्टीफिकेट देना पड़ता था। एक्सपो का निर्धारित समय था और उस समयावधि में मैं किसी भी प्रकार नहीं जा सकती थी। अतः ठाकुर साहब अकेले ही आए। ठाकुर साहब कैनेडा में मोंट्रियाल जहाँ एक्सपो थी वहाँ तथा कुछ और जगह भी घूमने गए। लंदन में मेरे “गॉड फ़ादर” के दोस्त टोरोंटो में रहते थे। ठाकुर साहब ने उनके सान्निध्य में भी काफ़ी समय गुज़ारा।
ठाकुर साहब को कैनेडा में जिसने सर्वाधिक प्रभावित किया, वे थे सूर्य देव। इंग्लैंड पर सूर्य देव की कृपा बारहों महीने यत्र-तत्र-सर्वत्र नहीं होती थी और जहाँ यदा-कदा उनका रथ घूमता भी था वो अपनी किरणें कुछ कंजूसी से ही यत्र-तत्र बिखेरते थे। पर ठाकुर साहब जब तक कैनेडा में रहे सूर्यदेव प्रत्येक दिवस अनवरत अपने सप्त घोड़ों के रथ पर सवार यत्र-तत्र-सर्वत्र अपनी स्वर्णिम रश्मि-कणों को मुक्त रूप से बिखेरते कृपालु बने रहे। ऊपर से मेरे“गॉड फ़ादर” के मित्र नार्मन जी ने ठाकुर साहब को कैनेडा की कई अच्छाइयों से परिचित कराते हुए यहाँ आने के लिए मना ही लिया। ठाकुर साहब ने लंदन वापस आकर कैनेडा की इमीग्रेशन के लिए आवेदन-पत्र दिया और इस तरह कुछ ही महीनों में हम 1967 टोरोंटो पहुँच गए। या यह कहूँ कि पत्नी-रूप के सप्त फेरों की डोर में बँधी चली आई। हाँ! यहाँ आने में यत्किंचित संकोच नहीं हुआ। बिन-देखे-सुने पूर्ण आश्वस्तता के साथ पति की स्नेह डोर में बँधी यह स्नेह उनके क़दमों से क़दम मिलाती चल पड़ी। हाँ! कभी-कभी भूल जाती थी कि हम दोनों की लम्बाई का अंतर मुझे पिछड़ने पर मजबूर कर देता है पर तभी ठाकुर साहब के क़दम रुक जाते थे और उनके हाथ की ढीली पड़ती जकड़ पुन: कस जाती और मेरे बग़ल में पहुँचते ही स्वयं को व मुझे आश्वस्त कर हम दोनों पुन: अपनी उड़ान भरने लगते। यहाँ आकर भी मैंने शिक्षण कार्य किया।
जब हम यहाँ आए तो यहाँ बहुत ही कम भारतीय थे। उस समय किसी नए भारतीय का मिल जाना ही बड़ी बात थी, हिंदी भाषी हो या अहिंदी भाषी हो, इसका का कोई अंतर नहीं पड़ता था। कुछ त्यौहार हमारे साझे थे जिन्हें हम मिल कर मना लेते थे पर कुछ प्रांतीय या जातीय थे, उनको भी हम घुल-मिल कर मना लेते थे जिससे कम से कम बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में कुछ सीख सकें। और हम स्वयं भी उससे आनंदित, प्रफुल्लित होते थे कि कम से कम हम अपनी सभ्यता, संस्कृति से एक छोटे रूप में ही सही पर जुड़े हुए तो हैं।
एक बार की बात है, उस समय यहाँ मंदिर आदि नहीं थे। परिवार के पत्रों से ही तीज-त्यौहार का ज्ञान होता था। मिठाई आदि की दुकानें भी नहीं थीं। एक किसी के घर के पीछे बार्न था, जहाँ कुछ हिन्दुस्तानी सामान मिलता था। बार्न की छत टीन की थी, बारिश के दिनों में छत से टिप-टिप पानी टपकता था। और सामने भी कीचड़ हो जाता था जिस पर लकड़ी के पटिए डाल दिए जाते थे जिनपर लोग चल कर दुकान तक पहुँच सकें।
हाँ! तो बता रही थी कि त्यौहार का ज्ञान भारत से आए सम्बन्धियों के पत्रों से होता था। एक दिन जब स्कूल से घर आई तो दरवाज़ा खोलते ही बाऊ जी (पिताजी) का नीला अंतर्देशीय हवाई पत्र मिला। बाऊ जी नियमित रूप से पत्र लिखते थे, चाहे मैं समय पर उत्तर लिखूँ या नहीं। दुर्भाग्यवश वह पत्र कुछ देरी से मिला। उस में दीपावली की तारीख़ लिखी थी और माँ ने उसमें कुछ निर्देश लिखे थे पर पत्र मिलने से पहले ही दीवाली निकल चुकी थी। ख़ैर, अब तक ठाकुर साहब भी घर पहुँच गए थे। हम दोनों ने सलाह-मशवरा किया और तय हुआ कि दीपावली आज ही मना ली जाए। मैंने आनन-फानन में भारतीय मित्र-मंडली को फ़ोन पर यह कह कर बुला लिया कि आज दीपावली है सब यहीं पर मनाएँगे। पूछा गया, “अरे! एकदम से ऐसे कैसे कर रही हो? हम कुछ बना कर ले आएँ? तुम अकेले इतने लोगों का एकदम से कैसे करोगी? ऐसे कई प्रश्नों की बौछार हुई।”
मैं खाना बनाने में निपुण क्या अच्छी भी नहीं थी। मैंने हँसकर सबको यही जवाब दिया कि, “अब तो बस राम भरोसे जो बनेगा खा लेना। बस जल्दी से आ जाओ। जितनी देर करोगी उतनी देरी से पूजा होगी। अगर कुछ काम बचेगा तो मिल कर लेंगे। बस जल्दी से आ जाओ।”
ठाकुर साहब पूजा आदि का सामान तैयार करने में लग गए और अपने राम जो कुछ घर में था उसे समेटने लगे। न बाज़ार जाने का समय था ऊपर से तब तो बाज़ार बंद होने का समय था। जब तक मित्र-मण्डली आई काफ़ी कुछ हो चुका था और जो बचा था सबने मिलकर कर लिया।
हम लोगों ने ख़ूब आनंदपूर्वक पर्व मनाया। पूजा करी। जो भी बना था प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया। जब सब अपने-अपने घर को जाने लगे तब सबको बताया कि दीवाली दो दिन पहले हो गई थी। पर जब जागो तभी सबेरा। हमें तो कुछ घंटे पहले ही पता चला, तो हमारे लिए तो आज और अभी ही है। और इसी नोट पर मित्र गण हँसते-हँसाते विदा हुए।
यह भी तय हुआ कि सभी परिवार हर रविवार को मिलकर बच्चों को हिंदी एवं भारत की संस्कृति सिखाएँ। नई जगह बसने एवं जीवन की आप-धापी में बहुत कुछ सम्भव नहीं था। अलबत्ता भारत में तो आप बिन सिखाये भी काफ़ी कुछ आस-पास के माहौल से सीख जाते हैं। पर, यहाँ तो वह सम्भव नहीं है। वहाँ का वातावरण यहाँ कहाँ से लाएँ?
वर्तमान की स्थिति तो आपके पास है ही।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपसे भारत की यादों के बारे में हम जानना चाहते है।
स्नेह ठाकुर—
आपके प्रश्न “भारत की यादों के बारे में” क्या लिखूँ! भारत के पंचतत्वों से ही तो मेरे जीव, मेरे शरीर का निर्माण हुआ है। अतः हृदय का एक अंश का वहीं छूट जाना स्वाभाविक ही है। जिन गली-गलियारों में आप पले-बढ़े हों, जिन स्थानों में आपका बचपन, आपकी किशोरावस्था बीती हो, वह भुलाया नहीं जा सकता। और भूलना भी नहीं चाहिए क्योंकि वह आपके जीवन का एक हिस्सा है। ऐसा हिस्सा जो खट्टी-मीठी स्मृतियों से भरा हुआ है। हाँ! वे स्मृतियाँ अवश्य ही मस्तिष्क के एक कोने में दबा कर रख दी जाती हैं जिससे नये अनुभवों को वहाँ पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर मिल सके। पर जब भी आप अपने अतीत के अस्तित्व में डूबना चाहें, मस्तिष्क के उस कोने में बेहिचक जा सकते हैं और उनका आनंद उठा सकते हैं। आनंद इसलिए कि कई बार खट्टी स्मृतियाँ भी समय के अन्तराल में अपना उस समय का रूप खो देती हैं क्योंकि अब आप उन्हें उम्र के इस अन्तराल के आइने से देखते हैं।
मेरा जन्म चित्रकूट में हुआ है। पिताश्री श्री संत राम ऋषि पुलिस में अधिकारी थे। अतः नियमानुसार क़रीब-क़रीब हर तीसरे वर्ष उनका ट्रांसफ़र हो जाता था। जिस प्रक्रिया ने घाट-घाट का पानी पिलाया, विभिन्न अनुभव कराए।
इसी मध्य जब मैं बहुत छोटी थी बड़ी बहन का विवाह सम्पन्न हुआ। बड़े भाई बनारस एवं उनसे छोटे भाई इलाहबाद, आज के प्रयागराज, उच्च शिक्षा हेतु चले गए। मैं सबसे छोटी सदा माता-पिता के साथ रही।
विवाह के पहले का जीवन भारत के कण-कण का ऋणी है। वहीं पल्लवित-पुष्पित हुआ। भारत की शिक्षा-दीक्षा, वहाँ बिताए जीवन ने मुझे इस योग्य बनाया कि मैं विदेश में अपना सर ऊँचा करके रह सकूँ।
जब हम विदेश में बसने के लिए आते हैं तो अपने साथ अनजाने ही अपने गाँव-शहर का एक हिस्सा भी ले आते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि वह तो जाने-अनजाने हमारे व्यक्तित्व का एक अंग बन गया है। जिस देश, संस्कृति में हम पैदा हुए, पले-बढ़े, उन संस्कारों का हममें होना तो एक तरह से लाज़िमी ही है। यह सम्भव ही नहीं कि जिस वातावरण में हम साँस लेते हैं, सालों-साल जीवन बिताते हैं, उसका हम पर कुछ भी प्रभाव न पड़े। वह तो बिना आहट किए चुपके से हमारे अन्दर समा, ऐसा घुल-मिल जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता।
हम जहाज़ से उतर कर विदेश की धरती पर जब पैर रखते हैं तो न केवल हम और हमारा सामान इस धरती पर आता है, वरन् हम और हमारे सामान के साथ-साथ एक और अदृश्य भारी-भरकम सूटकेस भी हमारे साथ आता है जिसमें हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, हमारे समाज के रीति-रिवाज़ और हमारी पुरानी आदतें ठसाठस भरी होती हैं।
इस अदृश्य सूटकेस का सामान सपेरे की पिटारी में बंद साँप की तरह, ज़रा-सी भी ढील होते ही सिर उठाकर रेंगने लगता है। हर विदेशी बात की, घटना की, हम अपने पुराने पैमाने में रख कर तुलना करते हैं। तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षा काफ़ी तनावपूर्ण होती है। भौतिक सुख-सुविधाओं में विदेश ऊँचा पड़ता है, पर वैयक्तिक, भावनात्मक स्तर पर अपना देश अच्छा लगता है। यह प्रवृत्ति स्वाभाविक भी है। भौतिक सुख-सुविधाओं को आप नकार भी नहीं सकते; विशेष रूप से मध्यवर्गीय परिवार से आने वालों को ये अपनी ओर बहुत आकृष्ट करती हैं। यद्यपि कि बहुत बड़े-बड़े अमीर भी चाहे रोज़मर्रा के अपने भौतिक साधन अपने पैसों से जुटा भी लें, बिजली की पूर्ति के लिए जेनेरेटर ख़रीद लें व अन्य सुविधाएँ भी एकत्रित कर लें, फिर भी वो सम्पूर्ण वातावरण को तो अपने पैसों से नहीं बदल सकते न? या यूँ कहिए कि ऐसे बदलाव के लिए बहुत ही कम लोगों में अपनी सम्पत्ति लगाने की रुचि होती है। अतः घर के अन्दर के ढेर सारे सुविधापूर्ण परिवर्तन घर की चारदीवारी तक ही सीमित रह जाते हैं। बल्कि कई बार तो यहाँ तक देखा गया है कि अन्दर से चमचमाते घर को पसंद करने वाले इन घरों के निवासी सड़क पर कूड़ा फेंकने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। ख़ैर! यहाँ बात हो रही है भौतिक सुविधाओं की। वहाँ जिन सुविधाओं को हम अमीरों की बपौती समझते हैं, यहाँ सामान्य परिवारों को भी ऐसी सुविधाओं की उपलब्धता है। पर भौतिक सामान शारीरिक सुख तो दे सकता है पर मानसिक सुख के लिए भावनात्मक धरातल की आवश्यकता है। भावनात्मक रूप से हमारी जड़ें अपनी पुरानी पली-बढ़ी जगह ही जुड़ी रहती हैं। हम अपनी हर छोटी-बड़ी, बीस-पच्चीस साल या उससे कम–ज़्यादा पुरानी यादों से जुड़े रहते हैं।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपका साहित्य के प्रति लगाव कैसे विकसित हुआ और इस क्षेत्र में आपके प्रेरणा स्त्रोत और मार्गदर्शक कौन रहे?
स्नेह ठाकुर—
घर में पढ़ने का वातावरण था। माँ एवं बड़े भाई-बहनों का पढ़ने के प्रति लगाव था। बाऊ जी के पास अधिकांशतः समय नहीं होता था पर जब-तब उनके पास समय होता था, पढ़ते थे। माँ के लिखे कुछ भजन देखे हैं। बड़ी बहन को पढ़ते देखा है। बड़े भाई की जब मैं सातवी-आठवीं कक्षा में थी, और वे बनारस से आए थे एक कहानी देखी-सुनी है, उसके बाद नहीं। कदाचित् बड़ी नौकरी की ज़िम्मेदारी में समय का अभाव था। उनसे छोटे भाई, नवमीं-दसवीं में मैं जब थी वे यूनिवर्सिटी में लेक्चरार थे, वे वहाँ के शो आदि करवाते थे। और उनके लिए कुछ-कुछ लिखने लगे थे। आजकल कभी-कभी कविताएँ लिखते हैं।
जैसा कि मैंने अभी कहा कि मुझे पढ़ने का शौक़ बचपन से था। घर में पत्रिकाएँ, धार्मिक कथा-कहानी, उपन्यास इत्यादि उपलब्ध थे। इसके अतिरिक्त बचपन में तुकबंदी का शौक़ हो गया जो मारे डर के किसी को नहीं बताया। पर हाँ! छठी या सातवीं कक्षा में याद पड़ता है कि लेख-निबंधों आदि में उससे संबंधित दो-चार लाइनें ठोक देते थे, यह कहते हुए कि किसी कवि ने कहा है, अनाम कवयित्री की पंक्तियाँ हैं, आदि-आदि। किसी और का नाम लिखने से पकड़े जाने की प्रबल सम्भावना थी। जैसे-जैसे नम्बरों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे उन नम्बरों को पाने के लालच में छुपा-छुपाकर लिखना भी बढ़ता चला गया। छुपाकर इस डर के मारे कि कहीं किसी को पता न चल जाए और डाँट पड़े कि, “पढ़ती-लिखती नहीं है, समय बर्बाद कर रही है आदि-आदि का डर।” हाई स्कूल या कॉलेज में आने तक मेरी कविता, कहानी आदि लिखने का शौक़ उजागर हो गया। माँ को पता चल गया था, पर इस लिखने के लिए डाँट नहीं पड़ी, वरन् उन्होंने प्रोत्साहित किया। और मैंने पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लिखना शुरू कर दिया।
कदाचित् लिखने और चित्रकला की आदतों के रुझान का एक कारण यह भी था कि उस समय में जहाँ बाऊ जी का ट्रांसफ़र हुआ था वहाँ लड़कियों का स्कूल नहीं था। जहाँ तक मुझे ख़्याल है स्कूल की उम्र के लिए होस्टल भी नहीं थे, अतः किसी और के पास छोड़ने या पढ़ाई छुड़वा देने की अपेक्षा मुझे लड़कों के स्कूल में पढ़ाया जाए, यह तय हुआ। एक कोने में सबसे अकेले मैं और मेरा डेस्क। स्वयं से ही मन-ही-मन सम्वाद करती, सर झुकाए या तो कुछ लिखती रहती, या स्कूल का काम करती रहती और कुछ नहीं तो जो भी मन आए अध्यापक जी का या किसी और का चित्र बनाती रहती। कदाचित् यही दोनों अभिरुचियाँ मन-पसंद गतिविधि बन कालांतर में स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन गईं। अधिक अंक पाने की लालसा एवं अकारण तो नहीं, इस सकारण एकांतवास ने मुझमें काव्याभिव्यक्ति, चित्र-कला एवं ललित-कलाओं का जो बीजारोपण किया है, ये प्रवृत्तियाँ जगाईं हैं, यह केवल और केवल ईश्वर-कृपा, उसकी अनुकम्पा से ही सम्भव हुआ है। उसी का प्रसाद है। पढ़ाई में अच्छी थी और चुपचाप अपना काम करती रहती थी तो एक कोने में अछूता-सा पड़ा उस डेस्क की ओर आने की किसी को आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी, केवल कॉपी आदि का आदान-प्रदान होता था।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपने भारतीय वातावरण को भी भरपूर जिया है और पाश्चात्य वातावरण को भी निकट से देखा है। दोनों देशों की संस्कृतियों के मध्य आप कैसा और कितना अंतर महसूस करती हैं।
स्नेह ठाकुर—
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि भारत ने ही मुझे इस योग्य बनाया है कि मैं सर उठा कर कहीं भी रह सकूँ। कई बार मुझे विशेष रूप से जब साड़ी के परिधान में नहीं होती तो कदचित् रंग आदि से मुझे यूरोप की निवासी मान लिया जाता, पर मैं गर्व से कहती कि मैं भारतीय हूँ और अब भारतीय कनेडियन हूँ।
हिन्दू धर्म, यद्यपि कि जिसे न्यायालय ने भी धर्म की संज्ञा नहीं दी है, वरन् इसे जीवन जीने का ढंग कहा है, जीवन शैली कहा है। इसी परिपेक्ष में सनातन धर्म भी जो सनातन काल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलेगा। सनातन धर्म भी कोई विशेष धर्म नहीं है वरन् जीने की कला है। यह आपको व्यावहारिक रूप से कैसे एक अच्छे मानव रूप में जीना है, यह सिखाने की कला है।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, हमारी संस्कृति के ये चारों स्तम्भ हैं; उपनिषद्, पुराण आदि सभी ग्रन्थ आपको एक ऐसी जीवन-शैली अपनाने की ऐसी शिक्षा देते हैं जो सार्वभौमिक हैं। मानव जीवन-शैली है, मनुष्यता, मानव-धर्म, सभी से सद्व्यवहार, सार्वकालिक, सार्वभौमिक, सर्वदेशीय है जो सनातन काल से चली आ रही है, और जो आपको सभी से सद्व्यवहार करने की शिक्षा सिखाती है। यह मानव-धर्म है और पक्षपातीय नहीं है। तो यह आपको अपना अस्तित्व बनाए रखते हुए एवं दूसरों के प्रति सद्भाव रखते हुए ऐसी जीवन-शैली सिखाती है जो आपको सर्वदेशीय मानवता के आधार पर जीना सिखाती है। यह जीवन-शैली मानव को मानवता के आधार पर स्थापित सुखद स्तम्भों पर अपने जीवन-यापन की कला सिखाती है जो आपको कहीं भी, कभी भी स्वधर्म से विचलित नहीं होने देती और दूसरों का आदर करते हुए स्वयं भी स्वाभिमान से रहना सिखाती है। हर स्थान पर कुछ अच्छाइयाँ और कुछ बुराइयाँ होती हैं। हमें हँस की भाँति उन अच्छाइयों को चुनना होता है और साथ ही बुराइयों में यदि सुधार कर सकें तो उसके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए; और नहीं कुछ कर सकते तोकम से कम उनसे दूर रहना चाहिए, उन्हें अपने में समेटना नहीं चाहिए। यदि हर व्यक्ति उनसे लोहा नहीं ले सकता तो कम से कम उनसे दूर रहने हेतु प्रयत्नशील तो अवश्य ही हो सकता है। मेरी पुस्तकें उपनिषद्-दर्शन, कैकेयी चेतना-शिखा, चिंतन के धागों में कैकेयी–सन्दर्भ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, कैकेयी: चिन्तन के नव आयाम-सन्दर्भ: तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस, कैकेयी: चिंतन के नव परिदृश्य-सन्दर्भ: अध्यात्म रामायण, लोक-नायक राम, श्रीरामप्रिया सीता, दशानन रावण आदि इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। इसी उद्देश्य से रचित हैं।
लोक-नायक राम जिसे सभी वर्गों का समर्थन मिला है, क्योंकि इसे मैंने धार्मिक रूप में नहीं लिखा। यद्यपि अवश्य ही चित्रकूट में जन्म लेने और श्रीराम से प्रभावित न होना एक विडम्बना होती। मैं ईश्वर की ऋणी हूँ कि उसने चित्रकूट मेरा जन्म-स्थल बनाया और मुझे अपनी संस्कृति से परिचित करा पोषित-पल्लवित किया जो मेरे जीवन का आधार-स्तम्भ बना। ईश्वर कृपा से इस भारतीय संस्कृति ने मुझे जीवन-यापन की वह कला सिखाई जो मैं देश बने इस विदेश में सर उठा जहाँ स्वयं का जीवनयापन कर सकी हूँ और कर रही हूँ, वहीं इन आदर्शों से यहाँ के निवासियों के साथ उस प्रेममय पारस्परिक व्यवहार एवं आदर्शमय जीवन व्यतीत करने में समर्थ हुई हूँ। यह भारतीय संस्कृति अपने प्रति उपहार-स्वरूप मान, स्वयं के लिए एक आदर्श का काम, व्यवहार मानती हूँ। यदि मैं अपने व्यवहार से दूसरों के प्रति प्रेममय व्यवहार जगा सकूँ, उसमें मुझे सफलता मिले तो यह मेरा जीवन सार्थक करता है। और यदि यह दूसरों को जीवन-मूल्य दे सके तो मानवता का एक सम्पूर्ण आदर्श प्रस्तुत करता है जो किसी भी समाज के लिए सर्वोत्तम सिद्ध होगा।
बहुत पहले लिखी अपनी एक कविता हिन्दू, जिसका शीर्षक अँग्रेजी में HINDU था, से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रही हूँ, क्योंकि कविता लम्बी है–तो मैंने अँग्रेजी में लिखे हिन्दू को इस तरह परिभाषित किया:
स्वदेश बने विदेश में
पूछता है हमसे जब भी कोई
हमारी Identity
कहती हूँ मैं गर्व से
हम तो हैं HINDU भाई।
और आगे HINDU को इस भाँति परिभाषित किया है–
H से बनती है Honesty
I से बनती है Integrity
N से बनता है Non-Violence
D से बनती है Divinity
और U से बनता है Universality
तो यह है HINDU की परिभाषा, उसकी महत्ता।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आदरणीया स्नेह जी आपका साहित्य भारतीय पौराणिक साहित्य पर आधारित है। वर्तमान संदर्भ में इस प्रकार के साहित्य की प्रासंगिकता के संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?
स्नेह ठाकुर—
सबसे पहले तो दीपक जी, आपके ‘आदरणीया’ सम्बोधन को नमन। आपने भारतीय संस्कृति को, परम्परा को जो वरीयता दी है, उसके प्रति साधुवाद।
और फिर अब, तदोपरांत आपसे क्षमा माँगते हुए कहना चाहूँगी कि मुझसे आपने जो प्रश्न किया है, उसका उत्तर तो आपने स्वयं ही दे दिया। यह हमारी आदरणीय भारतीय संस्कृति ही है जो चुपके-से आप के मन-मस्तिष्क में छा, बिन-सोचे-समझे, बिन प्रयास आपसे आदरणीया कहलवा गई। मैं स्वयं को तो गुणवान नहीं कहूँगी, तो मान लीजिए उस नाते नहीं, पर हाँ, उम्र के नाते अपने प्रति आपके सम्बोधन की प्रशंसा अवश्य करूँगी। तो ये संस्कार आपमें आये कहाँ से? क्या वर्तमान के सन्दर्भ में, नैतिकता के गुण की आवश्यकता नहीं है? और यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जो हम सीख रहे हैं क्या यह भारतीय संस्कृति की देन नहीं है? पुरातन काल से चली आ रही भारतीयता नहीं है? तो रही “वर्तमान संदर्भ में इस प्रकार के साहित्य की प्रासंगिकता?” तो वर्तमान क्या किसी भी समय में, किसी भी युग में अच्छे गुणों का समावेश न्यायोचित् नहीं है क्या? उच्चादर्शों का, नैतिकता का, एक अच्छे समाज के लिए उचित जीवन-मूल्यों के समावेश का जो परम्परागत हैं, जो समय काल की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं, जो समय की कसौटी पर बारम्बार कस कर तपते सोने जैसे खरे सिद्ध हुए हैं, उनके समावेश में कैसी समस्या? कुछ नियम तात्कालिक परिस्थितियों से बनते हैं वो क्षणभंगुर हो सकते हैं; समस्या समाप्त होने पर उनका अस्तित्व मिट जाना स्वाभाविक है; वर्तमान की कोविड १९–कोरोना की बीमारी हेतु बनाए गए नियम युगों-युगों तक तो नहीं चलेंगे न? जिस युग में समस्या समाप्त, तो उसके लिए किए गए प्रतिबन्ध भी समाप्त। हाँ! यदि भविष्य में कभी ऐसी परिस्थिति आती है तो इससे उस काल के अनुसार शिक्षा अवश्य ली जा सकती है। पर जो श्रेष्ठ मानव धर्म है, दया, ममता, करुणा, क्षमा, मृदु-भाष, बड़ों का आदर, छोटों का प्यार-दुलार आदि-आदि, सार्वकालिक, सार्वभौमिक हैं, सदैव प्रासंगिक हैं क्योंकि वे मानवोचित् गुण हैं, या कहिए मानवोचित् सद्गुण हैं जो पुरातन काल से चले आ रहे हैं और अनंत काल तक चलेंगे, क्योंकि उनकी उपयोगिता, उनकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, ऐसी मेरी मान्यता है।
दीपक जी! मेरी पुस्तकों की सूची में आपने यह लक्ष्य किया होगा कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य “भारतीय पौराणिक साहित्य” पर आधारित नहीं है। उदाहरणार्थ कविता संग्रह में “जीवन के रंग”, “जीवन निधि”, “हास-परिहास”, “दर्दे-जुबाँ”, “जज्बातों का सिलसिला”, “अनुभूतियाँ”, “काव्यांजलि” आदि हैं। अँग्रेज़ी कविताएँ, ग़ज़ल आदि भी हैं। कई काव्य-संग्रहों का संकलन व सम्पादन भी किया है, उनमें सहभागिता भी की है। हाँ! ईश्र्वर कृपा से “आत्म-गुंजन” दार्शनिक एवं अध्यात्मिक है। ”अनमोल हास्य क्षण” नाटक एवं कथा-साहित्य में भी “आज का पुरुष”, “अनोखा साथी”, एवं आलेख में, “पूरब-पश्चिम”, “संजीवनी”, “आज का समाज”, आदि सामाजिक विषयों पर आधारित हैं। हाँ! इसी बीच “उपनिषद-दर्शन” लिखने का भी सौभाग्य मिला। वैसे यदि मेरा सम्पूर्ण साहित्य “भारतीय पौराणिक साहित्य” पर आधारित भी होता तो मैं इसे अपना सौभाग्य ही समझती।
हाँ! मेरा कुछ साहित्य जिनका आपने वर्णन किया है, उदाहरणार्थ, “कैकेयी चेतना-शिखा”, “चिंतन के धागों में कैकेयी–सन्दर्भ: श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण”, “कैकेयी: चिंतन के नव आयाम–सन्दर्भ: तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस”, “कैकेयी: चिंतन के नव परिदृश्य–सन्दर्भ: अध्यात्म रामायण”, “श्रीरामप्रिया सीता” और जिनका आपने उल्लेख किया है, “लोक-नायक राम”, तथा “दशानन रावण” सभी गौरवशाली साहित्य भारतीय पौराणिक साहित्य से प्रभावित हैं, उस पर आधारित हैं।
आपके प्रश्न “वर्तमान संदर्भ में इस प्रकार के साहित्य की प्रासंगिकता के संदर्भ में” यही कहना चाहूँगी कि परिवर्तन शाश्वत् नियम है। कोई भी समाज एक जगह पर स्थिर नहीं रह सकता। और हर देश, हर काल में प्रत्येक समाज अपनी तथाकथित उपलब्धियों से उन्नति के शिखर पर आसीन होने का प्रयत्न करता है। फिर भी इस तथ्य से नाकारा नहीं जा सकता कि पुरातन सब कुछ अच्छा ही अच्छा है या सब कुछ बेकार है। कोई भी सम्पूर्णतः अच्छा या बुरा नहीं होता। हमारी पुरातन से चली आ रही भारतीय संस्कृति में, यद्यपि कि कालांतर में परम्पराओं के अंतर्गत कुछ विसंगतियाँ अवश्य ही शामिल हो गई हैं, और इसके साथ ही आज के समाज में, आज की परिस्थितियों में पूर्णत: पुरातन समाज का आज के इस नए समाज में, परिवेश में बिना आमूलचूल परिवर्तन किए संस्थापना यथोचित् नहीं। पर साथ ही पुरातन की अच्छाइयों को नज़र-अन्दाज़ करना भी कल्याणकारी नहीं है। हमें भरसक उसकी अच्छाइयों से लाभान्वित होना चाहिए।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपका साहित्य युवा-वर्ग को क्या संदेश देता है?
स्नेह ठाकुर—
जहाँ तक सामाजिक विषयों पर मैंने लिखा है वह आज के समाज से ही संबंधित है। पर मेरे विचार से, यदि मैं आपके प्रश्न को ठीक पढ़ रही हूँ तो आप उनकी अपेक्षा मेरे पौराणिक साहित्य से प्रभावित साहित्य के बारे में प्रश्न कर रहे हैं।
तो रही बात कि मेरा साहित्य युवा-वर्ग को क्या संदेश देता है? मैं कहना चाहूँगी कि किसी भी बात को, किसी भी तत्त्व को बिना सोचे-समझे, बिना उसकी तह में जाए, बिना उसका अध्ययन-परीक्षण किए, निर्मूल, बेकार घोषित करना अक्लमंदी नहीं, कल्याणकारी नहीं। पुरातन से आप न केवल वो शिक्षा कि क्या करना चाहिए वरन् यह भी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं कि क्या नहीं करना चाहिए। पुरातन काल से चलते-चलते समय के इस अन्तराल में कुछ कुरीतियाँ भी पैठ गई हैं। तो जहाँ आप यह सीख सकते हैं कि आदर्श रूप में हमें क्या करना चाहिए वहाँ यह भी सीख सकते हैं कि हमें क्या नहीं करना चाहिए। और कुरीतियों से क्या शिक्षा लेनी चाहिए। अच्छा और बुरा सीखने के इस प्रयत्न में हम जो भी जानकारी प्राप्त करें, उसे हमें जहाँ तक सम्भव हो उसके मूल रूप से ही जानने का प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा आपके द्वारा प्राप्त ज्ञान में किसी दूसरे की धारणाएँ भी सम्मिलित हो सकती हैं। आप उससे मिली शिक्षा को अपनी कसौटी पर कसें, अपनी परिस्थियों के अनुसार उनका विवेचन करें और तथानुसार उनको व्यवहृत करें।
सनातन धर्म–सनातन से चली आ रही परम्परा है। यह मानव धर्म है। मानवता के लिए हितकारी धर्म है। यदि आपको धर्म शब्द से आपत्ति है तो इसे सनातन परम्परा कह लीजिए। सनातन शब्द किसी भी धर्म को परिभाषित नहीं करता। इसका शाब्दिक अर्थ है लम्बे काल से चले आने वाला, पुरातन काल से चले आने वाला या सृष्टि के आरम्भ से चले आने वाला–पुरातन के शाब्दिक एवं भावार्थ–दोनों अर्थ में आप कह सकते है, अनंत काल से चले आने वाला एवं अनंत काल तक चलने वाला–इसे आप एक पद्धति कह सकते हैं, जीवन-शैली कह सकते हैं। जीवन शैली किसी भी मानव की हो सकती है। यह जीवन को सुचारु रूप से चलाने की, व्यतीत करने की कला है। वह जीवन किसी का भी हो सकता है, किसी भी जाति का हो सकता है, किसी भी मानव का हो सकता है। और जब यह किसी भी मानव का हो सकता है तो यह मानव-धर्म की श्रेणी में आता है, मानवता के धर्म की श्रेणी में आता है। यह मानव से मानव को विभाजित नहीं करता। यह तो सम्पूर्ण मानव जाति को स्वयं में समेटता है। कोई भी मानव समुदाय इसका पालन कर सकता है, इसमें आस्था रख सकता है।
मानव ने स्वयं को दूसरे मानव से दूर किया है, धर्म ने नहीं। धर्म तो एक आस्था है जो आपको जिस भी परिवार में आप जन्म लेते हैं, उसी का अनुकरण करना सिखा देती है। हाँ! यदा-कदा विरले ही होते हैं जो महापुरुष की श्रेणी में आते हैं, जो अपनी तथाकथित जाति की परम्परा की परिधि से निकल कर सम्पूर्ण मानव-जाति के बारे में सोचते हैं; एक मानव को दूसरे मानव से भिन्न नहीं करते। मानव मानव है, आप उसे केवल और केवल मानव, इन्सान की श्रेणी में रख सकते हैं, उसमें भेद-भाव कैसा! हाँ, कर्म के अनुसार भी उसमें भेदभाव उचित नहीं क्योंकि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन भी उचित रूप से तभी हो सकता है जब हर व्यक्ति अपने-अपने कर्म का यथोचित निर्वाह करे। हर व्यक्ति हरेक कर्म करने की क्षमता नहीं रखता। कर्म न कोई छोटा है न बड़ा। अपनी-अपनी योग्यतानुसार मनुष्य अपने कर्म का निर्वाह करता है। यहाँ यह भेदभाव भी नहीं हो सकता कि किसी का कर्म छोटा है, किसी का बड़ा क्योंकि कर्म तो कर्म है, उसके छोटे–बड़े का विभाजन हम कैसे कर सकते हैं। जब हम अपनी समझ में किसी छोटे पर यह आरोप लगाते हैं कि यह तो मंद-बुद्धि (मैं यहाँ मंद-बुद्धि का प्रयोग करना चाहूँगी न कि किसी काम के छोटे बड़े होने का या किसी व्यक्ति के छोटे–बड़े होने का) है, यह तो इसी काम के लायक़ है, यह कोई भी बड़ा काम कर ही नहीं सकता तो यह भूल जाते हैं कि तथाकथित बड़े आदमी कहे जाने वाले किसी व्यक्ति को यदि कोई छोटा काम दिया जाए तो क्या यह बड़ा आदमी उस तथाकथित छोटा काम कर सकता है? 99%नहीं। तो हम किस आधार पर कह सकते हैं कि यह काम बड़ा है, यह काम छोटा–या यह व्यक्ति बड़ा है, यह छोटा। सब अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता अनुसार अपने कर्म करते हैं, यहाँ छोटे–बड़े का भेदभाव तो हो ही नहीं सकता। यह तो मानव का अहंकार बोलता है और अहंकारी मनुष्य किसी ही रूप में बड़ा नहीं होता। अहंकार आपके गुणों का नाश करता है, वह किसी भी स्थिति में आपको सभ्य, शालीन नहीं बनाता।
सनातन धर्म का अर्थ संकीर्ण रूप में नहीं वरन् उसके विस्तृत रूप में लिया जाना चाहिए, जो आप के जीवन को सम्पूर्ण रूप से एक अच्छा जीवन व्यतीत करने की कला सिखाता है। आप इसे धर्म का नाम दे दें या जीवन-शैली का। वैसे भी धर्म को परिभाषित करने के लिए हम कह सकते हैं कि यह सुकृत, सत्कर्म, पुण्य, सदाचार, वह आचरण जिससे समाज की रक्षा और कल्याण हो, सुख-शांति की वृद्धि हो; कर्तव्य, मन की वृत्ति, इन्द्रियों का कार्य, गुण या क्रिया, पदार्थ का गुण, प्रकृति, स्वभाव, नित्य नियम आदि कुछ भी कह सकते हैं। इस पर चर्चा बहुत लम्बी हो जाएगी, पूरी किताब ही लिखी जा सकती है। पर संक्षेप में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हम एक शब्द सनातन से ही बहुत कुछ सीख सकते हैं। अधिकतर हम सनातन धर्म को धर्म की संज्ञा दे देते हैं पर वास्तव में यह कोई धर्म है! यह तो बस सनातन काल से चली आ रही एक परम्परा है जिसे हम जीवन-शैली भी कह सकते हैं। सनातन का शाब्दिक अर्थ–जिसका आदि, अंत नहीं। पुरातन काल से चली आ रही अनन्त काल तक जाने वाली जीने की कला है।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
एक तरफ़ आपका मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर 'लोकनायक राम' उपन्यास साहित्य-जगत में चर्चित होता है वहीं दूसरी तरफ़ 'दशानन रावण' सामने आ जाता है। दो विपरीत चरित्रों को लेकर रचना करना कितना दुरूह लगा?
स्नेह ठाकुर—
दुरूह इस अर्थ, इस अभिप्राय में अवश्य लगा कि दोनों चरित्र केवल विपरीत ही नहीं, दोनों अपनी-अपनी चरम-सीमा पर थे। एक दिन तो दूसरा रात। एक भगवान का अवतार पुण्यात्मा तो दूसरा राक्षसराज दुरात्मा। फिर भी दो ऐसे ध्रुव जो अपने-अपने स्थान पर दृढ़।
“दशानन रावण” का पूरा श्रेय ठाकुर साहब को ही जाता है। “लोक-नायक राम” के लिखे जाने के बाद उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं अब रावण पर लिखूँ। पर उस समय नहीं लिख पाई। रावण पर मेरी रिसर्च पूरी नहीं हुई थी। इस बीच श्रीरामप्रिया सीता का सृजन हुआ, तत्पश्चात् दशानन रावण का। हाँ! श्रीरामप्रिया सीता की रचना के मध्य दशानन रावण पर मेरा अध्ययन अवश्य जारी रहा, इस दौरान मस्तिष्क में “दशानन रावण“ की परिकल्पना उमड़ती-घुमड़ती रही, और अंतत: “दशानन रावण“ उपन्यास रूप में सृजित हो पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ।
डॉ. दीपक पाण्डेय—
'दशानन रावण' लिखने का उद्देश्य क्या रहा और आपने इसकी कथा को कैसे संयोजित किया है?
स्नेह ठाकुर—
“दशानन रावण” लिखने का उद्देश्य एक ही व्यक्ति में दोहरा चरित्र, एक ही व्यक्ति के दो व्यक्तित्व अपनी चरम सीमा तक दर्शाना है। सामान्यत: कोई भी व्यक्ति न सम्पूर्ण बुरा है न सम्पूर्ण अच्छा। रावण के सन्दर्भ में भी कुछ ऐसा ही है। यह भी मान्यता है कि संतान पर पिता से अधिक माँ का प्रभाव पड़ता है, रावण के सन्दर्भ में तो यह शत-प्रतिशत सटीक बैठता है। इसी सन्दर्भ में“दशानन रावण” से ही उद्धृत कर रही हूँ:
एक बार अतीत की वीथिकाओं में रावण जो घुसा तो वहीं अपने दसों आनन के साथ दशानन विचरता ही गया। स्मृति का एक द्वार खुला तो जन्मों के द्वार खुलते चले गये। विगत जन्मों के दृश्य दृश्य-पटल पर उभरते चले गये। अपना राजा प्रताप भानु का रूप सामने आया जब वे वेद सम्मत उत्तम रीति से अपने वीर, आज्ञाकारी भाई अरिमर्दन एवं राजा का हित करने वाले और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान् मंत्री धर्मरुचि के साथ प्रजा पालन कर रहे थे। उनके राज्य में पाप का लेश-मात्र भी नहीं था। अपनी भुजाओं के बल पर सातों द्वीपों, भूमि-खण्डों को विजित कर वह चक्रवर्ती राजा बन गया था। वेद-पुराणों में बताये गये यज्ञों को निष्काम-रूप से, प्रेमपूर्वक भगवान् वासुदेव को अर्पित करते हुए, बारम्बार किये। स्मृति में उभरा—प्रताप भानु एक दिन गहन वन में आखेट हेतु गये जहाँ उसने एक विशालकाय सूअर को देखा जो अपने दाँतों के कारण ऐसा दिखाई पड़ रहा था मानों चंद्रमा को मुँह में पकड़े हुए, उसे ग्रस कर राहु वन में आ छिपा है। चंद्रमा का आकार बड़ा होने के कारण उसके मुँह में समा नहीं रहा है, और वह क्रोधवश उसे उगल भी नहीं रहा है। न निगला जाये, न उगला जाये की स्थिति है। आखेटक की मार से बचता हुआ वह ऐसी कन्दरा में घुस गया जहाँ से उसे निकालना सम्भव न जान राजा पलट कर वापस जाने लगा पर दुर्भाग्यवश वह रास्ता भटक गया। बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता एक आश्रम में पहुँचा जहाँ उसे उसके द्वारा पराजित किये गये छद्म मुनि भेष धरे एक राजा ने वन में भूखे-प्यासे भानु प्रताप को पहचान कर, अपना कपटी रूप बनाये हुए ही बुरे मन्तव्य से एक कुचक्र के अन्तर्गत उसकी सहायता की। राजा प्रताप भानु से अपनी पराजय का बदला लेने हेतु अपना रूप छिपाये हुए ही कपटी मुनि ने अध्यात्म के वाग्जाल में राजा प्रताप भानु को फँसा, एक यज्ञ हेतु ब्राह्मणों को निमंत्रित करने हेतु कहा। कपटी तपस्वी का मित्र और प्रताप भानु का एक अन्य छल-प्रपञ्च जानने वाला शत्रु कालकेतु राक्षस जो सूअर का रूप धर राजा को आश्रम तक भटका कर ले आया था, मंत्रणापूर्वक निश्चित समय जान पुरोहित का भेष धर प्रताप भानु के राज्य में पहुँच गया। प्रताप भानु ने पूर्व-निर्णयानुसार मुनि द्वारा बताये छद्म पुरोहित के वर्णित रूप में मुनि को ही समझ उसका स्वागत किया। पुरोहित बने कालकेतु राक्षस ने उस आयोजन में आमंत्रित ब्राह्मणों के लिये छह रस और वेद-वर्णित चार प्रकार के भोजन की मायामयी रसोई में अनगिनत व्यंजनों के साथ-साथ पशु-मांस एवं नर-मांस भी सम्मिलित कर दिया। ज्यों ही राजा प्रताप भानु भोजन परोसने लगे, आकाशवाणी हुई, “हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ। यह अन्न मत खाओ। इसमें बड़ी हानि है। रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है।” और तब ब्राह्मणों ने क्रोधित हो प्रताप भानु को श्राप दे दिया, “तू परिवार सहित राक्षस हो जा।”
दशानन रावण स्मृतियों के बीहड़ जंगल में एक बार जो घुसा तो वहाँ से निकल नहीं पा रहा था। पिछली सोच कभी इस करवट तो कभी उस करवट नागिन-सी उलट-पलट उसे डस रही थी . . .।” स्मृति ने पलटा खाया। थकी देह की ग्रीवा पर लटका सिर स्वतः ही बिन प्रयास पीठिका की पीठ पर टिक गया और एक अधूरा-सा उच्छ्वास खूँटा तुड़ाये नवजात बछड़े की भाँति बिचक कर मुँह के बंधन से छूट भागा। उच्छ्वास में छिपी चैन की साँस जब तक एक अचिन्तनीय दीर्घ श्वास में परिवर्तित होती कि एक और स्मृति स्मृतियों की दौड़ में दौड़ी आयी और झटककर स्मृतिपटल पर सर्वाधिकार कर उभर उठी। दृश्य उभरा सनकादि मुनि का क्रोधाग्नि से तमतमाया राक्षस बनने का श्राप देता हुआ मुख जब उसने विष्णु जी के द्वारपाल के रूप में उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया था। . . . स्मृति और अधिक गहराती कि कक्ष के झरोखे पर बैठा पंछी फड़फड़ाया। रावण का ध्यान भंग हुआ। दशानन रावण अतीत के गह्वर से निकल वर्तमान की धरा पर आ खड़ा हुआ। वह सोचने लगा, “आज मेरी बहन ने सभागार में मेरे ऊपर जो आरोप लगाये थे वो वास्तव में सत्य ही तो हैं। हाँ! मैं मदान्ध हूँ, अहंकारी हूँ, क्रूर हूँ, स्वार्थी हूँ . . . ।” जो कुछ शूर्पणखा ने नहीं भी कहा वे आरोप भी उसने स्वयं पर आरोपित कर लिये।”
रावण सोचने लगा, “हाँ, मैं विश्रवा ऋषि का पुत्र हूँ। जो ब्रह्माजी के पुत्र पुलत्स्य, जो ब्रह्मा के समान ही सर्वगुण सम्पन्न थे, के पुत्र थे; और उन्हीं सर्वगुणसम्पन्न पुलस्त्य के पुत्र सर्वगुणसम्पन्न विश्रवा का पुत्र मैं हूँ। पर जहाँ पिता का ज्ञान मुझमें आया है वहीं क्या राक्षसी माँ कैकसी के अवगुणों से दूर रह पाया हूँ मैं? क्या उनका असर मुझ पर नहीं पड़ा? और फिर पिताश्री ब्रह्मर्षि विश्रवा ने तो मेरे जन्म से पहले ही मेरी माता से कह दिया था, “भद्रे! तुम मेरे द्वारा पुत्र पाने की इच्छा लेकर इस दारुण बेला में यहाँ आई हो। अतः हे भद्रे! तुम ऐसे पुत्रों को जन्म दोगी जो भयंकर राक्षसों से प्रेम करने वाले तथा भयंकर-विशाल स्वरूप वाले होंगे। हे सुश्रोणि! तुम क्रूर कर्मा असुरों को ही जन्म दोगी।”
रावण को इसके प्रत्युत्तर में अपनी माँ के वचन भी याद आये, “भगवन! आप जैसे परम तेजस्वी-ब्रह्मवेत्ता द्वारा मैं ऐसे दुराचारी पुत्रों को पाने की इच्छा नहीं रखती, अतः आप मुझ पर कृपा करें।”
रावण अपनी भाग्य-विडम्बना पर अट्टहास कर उठा। उसकी सोच का निरंकुश अश्व अपनी तीव्र गति से दौड़ पड़ा, “हाँ! पिताश्री ने माँ को सांत्वनावश उसके अंतिम पुत्र को धर्मात्मा बनाने का आश्वासन तो दे दिया पर पहले दो पुत्रों के निर्णय पर दृढ़ रहे और इस प्रकार माँ कैकसी ने काजल के समान काले, भयंकर, वीभत्स, महाराक्षसी रूप वाले, नीले पर्वत के समान विशालकाय, विकराल दाँत, ताँबे जैसे होंठ, बीस भुजाओं वाले, दशग्रीव तथा चमकीले केशों वाले प्रथम पुत्र अर्थात् मुझे जन्म दिया। मेरा जन्म होते ही पृथ्वी पर अंधकार छा गया। उल्कापात होने लगा। भूकम्पों से पृथ्वी काँपने लगी। साथ ही मांसभक्षी गिद्ध, मुँह में अंगार भरे गीदड़ियाँ तथा पक्षी आदि चारों ओर घूमने लगे। मेघ बहुत भयंकर गर्जना करने लगे, देवतागण रुधिर की वर्षा करने लगे, सूर्य का प्रकाश कम पड़ गया। भयंकर आँधी चलने लगी, पृथ्वी हिलने लगी तथा कभी भी क्षुब्ध न होने वाला समुद्र क्षुब्ध हो गया। तभी ब्रह्मा के समान तेजस्वी पिता मुनि विश्रवा ने मेरा नामकरण करते हुए कहा, ’यह बालक दशग्रीवाएँ लेकर पैदा हुआ है, इसलिये इसका नाम “दशग्रीव” होगा।’ तो यह है मुझ दशानन की जन्म-कथा।”
दशानन रावण की सोच गहराती गई, “मेरे पश्चात् माँ कैकसी के उदर से विशालकाय कुम्भकर्ण ने जन्म लिया। कुछ समय के पश्चात् शूर्पणखा का जन्म हुआ और अंतत: उस धर्मनिष्ठ विभीषण ने जन्म लिया जिस धर्मात्मा के विषय में पिता विश्रवा ने पहले ही संकेत दे दिया था। मैं दशग्रीव दशानन रावण, व कुम्भकर्ण ऋषि-मुनियों तक को कष्ट देने लगे और विभीषण शास्त्र अध्ययन व वेद-पाठन में संलग्न हो गया।”
दशानन रावण अपनी सोच में गहरे ही गहरे पैठता चला गया। सोच गहराती चली गयी। एक आह भर कह उठा, “आह! ऊपर से कच्ची युवावस्था में राक्षस सोमाली का नाना के रूप में प्राप्त होना क्या आग में घी डालने के समान नहीं था? क्या उसकी शिक्षाओं ने मुझ दशानन रावण के इस रूप को गढ़ने में कोई कसर छोड़ी है? उनकी राक्षसी शिक्षा का क्या उस कच्ची उम्र में दुष्प्रभाव नहीं पड़ा? क्या उस अवस्था में मेरे लिये उस प्रभाव से अछूता रहना सम्भव था?”
उपर्युक्त प्रश्नों के दंश दशानन रावण को चुभते रहे पर वह इस चुभन की अवहेलना कर चुभन के उस जंगल में और भी गहरे पैठ अंदर ही अंदर धँसता चला गया। ऊपर से अपने विगत जन्मों की गाथा का स्वयं पर प्रभाव की बात सोच एक आह भर वह कह उठा, “इन सबके सम्मिश्रण से जो मेरा व्यक्तित्व गढ़ा गया है वह मेरे जैसा है इसमें क्या आश्चर्य है? क्या ऐसा ही नहीं होना चाहिये था? ऐसा न होना ही आश्चर्यजनक होता।”
रावण की स्मृति में कौंधा वह दिन जब तेज प्रदीप वाले कुबेर को पुष्पक विमान पर देख कर माता कैकसी ने रोष से विकल, वक्र दृष्टि से, एक दीर्घ आह भर कहा था, “अरे पुत्र! तुम अपने परम तेजस्वी भाई वैश्रवण की ओर देखो। इसका तेज, इसका वायु के समान वेगवान् विमान देखो। भाई होने के कारण तुम्हें भी इन्हीं की तरह होना चाहिये। इसकी माता मन्दाकिनी को अवश्य ही इसे अपनी कोख से जन्म देने का गर्व होगा। मेरी सौत के कोख के रत्न कुबेर ने अपनी शिक्षा व तप से अपनी माता के विमल वंश को अपने जन्म से और भी उज्जवल बना दिया है। पर तू तो मेरे गर्भ का कीड़ा है। केवल अपना पेट भरने में ही लगा हुआ है। अरे! तुझे तो घोर परिश्रम करना चाहिये ताकि कुबेर के समान बन जा।”
“हूँ, किस तपस्या से इन्हें ऐसा विमान प्राप्त हुआ है माँ?” दशानन की दृष्टि कुबेर की शिक्षा, उसके गुणों पर नहीं थी, उनकी अपेक्षा वह उनके विमान से अत्यधिक प्रभावित था।
“कुबेर ने अपनी तपस्या से भगवान् शंकर को संतुष्ट करके लंका का निवास, मन के समान वेगशाली विमान तथा राज्य और सम्पत्तियाँ प्राप्त की हैं। संसार में वही माता धन्य, सौभाग्यवती तथा महान् अभ्युदय से सुशोभित होने वाली है, जिसके पुत्र ने अपने गुणों से महापुरुषों का पद प्राप्त कर लिया हो।”
मुनि का बड़ा पुत्र कुबेर, दशग्रीव का बड़ा भाई कुबेर, दोनों एक ही पिता की संतान! दशानन भयंकर ईर्ष्या से जलने लगा। क्रोधित हो बोला, “अरे माँ! मैं तेरे गर्भ का कीड़ा नहीं हूँ। कीड़े-की सी हस्ती रखने वाला तो यह कुबेर है। अरे! ऐसा क्या महत्त्वपूर्ण है यह? ऐसी कौन-सी विलक्षण वस्तुएँ है इसके पास? इसकी थोड़ी-सी तपस्या किस गिनती में है जिसे तुम इतना श्रेय प्रदान कर रही हो? लंका की क्या बिसात है? बहुत थोड़े-से सेवकों वाला इसका राज्य भी किस काम का है? माता! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं इससे अधिक प्रतापशाली बनूँगा। यदि मैं अन्न, जल, निद्रा और क्रीड़ा का सर्वदा परित्याग करके ब्रह्माजी को सन्तुष्ट करने वाली दुष्कर तपस्या के द्वारा सम्पूर्ण लोकों को अपने वश में न कर लूँ तो मुझे पितृलोक के विनाश का पाप लगे।”
“दशानन रावण” लिखने का परम उद्देश्य श्री राम द्वारा दी गई गुण-ग्राह्यता की महान् शिक्षा भी है। साथ ही क्षम्यता, उदारता का उत्कृष्ट उदहारण कि, मारे गए हर राक्षस को मोक्ष देने में भी श्रीराम नहीं चूके थे क्योंकि उनकी मान्यता कि“वैमनस्य बुराई से था, व्यक्ति विशेष से नहीं” उनके चरित्र का एक बहुत ही सर्वोच्च आदर्शमय कीर्तिमान स्थापित करता है।
श्रीराम की महानता और व्यक्ति की दुर्बलता, इन्हीं दोनों पक्षों से “दशानन रावण” रचित हुआ है। श्रीराम की आदर्श की पराकाष्ठा पर बैठी महानता और रावण की लक्ष्य को हर हाल में पाने की दुर्बलता, शोधपूर्ण प्रमाणित तथ्यों के आधार पर “दशानन रावण” की रचना का आधार-स्तम्भ बना है। पुरुषोत्तम श्रीराम ने उस राक्षसराज रावण जिसने व्यक्तिगत् रूप से उन्हें अत्यधिक दारुण पीड़ा दी, के गुणों को सराहने में अंशमात्र भी कोताही नहीं की, वरन् बिना किसी द्विविधा के यह आदर्श उपस्थित किया कि गुण गुण है और वह कहीं भी हो, ग्राह्य है। गुण कहीं से भी, किसी से भी, हर स्थान से, हर परिस्थिति में स्वीकार्य होना चाहिए। श्रीराम के चरित्र की यह नीर-क्षीर विवेकी महानता उन्हें ईश्वरत्व प्रदान करती है–जहाँ दुष्प्रवृत्ति वाले निन्दित राक्षसराज दशानन रावण की भर्त्सना की, वहीं उसके ज्ञानमय गुणों की सराहना भी।
“राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल विचार॥”
प्यार, त्याग, शौर्य और सहिष्णुता के चारों स्तम्भों पर खड़ी रामायण आज भी एक किताब न होकर भारतीयों के लिए आचार-संहिता है। उपनिषद का सार है। जीवन के इन मूलमंत्रों का ख़ुद अनुसरण करना और भावी पीढ़ी तक पहुँचाना हर अभिभावक व जागरूक भारतीय की ज़िम्मेदारी है। विध्वंसकारी परिवेश में ऋषि या विद्वानों को शान्त और मनोनीत पर्यावरण दिया जा सके, आज भी यही समाज के हित में है। तभी समाज की अच्छी सोच और आचरण के आदर्श उदाहरण सामने आ पाएँगे और उनके तप को भंग करने वाली राक्षसी प्रवृत्तियों का कैसे शमन किया जाए, यह ज़िम्मेदारी शासक या समाज के संरक्षकों की ही होनी चाहिए। क्योंकि न्याय के लिए भी एक संतुलित समझ की ज़रूरत है और न्याय भी तभी तक न्याय है जबतक क्षमा के महत्त्व को समझकर दिया जाए। सुधार की गुँजाइश तो हर जगह ही होती है। बार बार समझाने पर भी न समझे, तभी अपराधी दंड का भागी है और दंड में भी सामूहिक हित में ही होना चाहिए, निजी वैमनस्य से नहीं। मनुष्य, समाज या परिवार को वही लौटाता है जो समाज या परिवार उसे देता है, इस तरह से अगर दीन हीनों पर ध्यान न दिया जाए, तो सामाजिक अपराधों की साझेदारी भी सबकी ही होनी चाहिए और बुराइयों को दूर करने की भी।