थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा।
चहुँ दिशि जब देखती हूँ, काम बिखरा बहुत सारा॥
स्वप्नदर्शी मन मेरा, चाहता छू ले गगन को,
मन की गति में वेग इतना, मात कर देता, पवन को,
क्लान्त है शरीर, पर मन है अभी तक नहीं हारा।
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥
जो जिया जीवन अभी तक, मात्र अपने ही जिया है,
अमृत मिला चाहे गरल, अपने निमित्त मैंने पिया है।
कर सकूँ इससे पृथक कुछ, बदलकर जीवन की धारा,
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥
कुछ नया करने की मन में कामना मेरी प्रबल है,
अर्थमय कुछ कर सकूँ, यह भावना मेरी सबल है।
व्यक्ति से समष्टि तक जा सकूँ, मन का यही नारा,
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥
लालिमा प्राची में है, बादल घनेरे छँट रहे हैं,
अस्पष्टता और दुविधा के कुहासे घट रहे हैं।
किरण लेकर आस की, चमका कहीं पर एक तारा,
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥
चहुँ दिशि जब देखती हूँ काम बिखरा बहुत सारा॥