विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

भक्ति, वैराग्य तथा आध्यात्मिक भावों की निश्छल अभिव्यक्ति: ’निर्वेद

पुस्तक समीक्षा | आशा बर्मन

सरस्वती माता के वरद पुत्र श्री आदेश जी टोरोंटो के हिन्दी साहित्य परिवार के एक अभिन्न अंग थे। 

वे गत 35 वर्षों से यहाँ के स्थानीय कवियों के प्रेरणास्रोत रहे। भारतीय संस्कृति, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला, हिंदी भाषा एवं मानव सेवा के विभिन्न कार्यों में आदेश जी सदैव कार्यरत रहे। इनके निर्वाण, शकुंतला आदि आठ महाकाव्य, अनेक खंडकाव्य तथा कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। स्वयं एक प्रतिष्ठित कवि होते हुए भी उन्होंने सदैव सभी नवोदित कवियों को कवि सम्मेलनों में आमंत्रित किया, धैर्यपूर्वक उन्हें सुना, सराहा तथा प्रोत्साहित किया। इसके लिये हम उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहेंगे। 

मेरा सौभाग्य है कि श्री आदेश जी ने स्वयं मुझे अपना काव्य-संग्रह ’निर्वेद’ पढ़ने के लिये दिया और इसकी समीक्षा करने के लिए कहा। इसमें अधिकतर भजन हैं, जिनमें जीवन की निस्सारता, क्षणभंगुरता के साथ-साथ ईश्वरप्रेम तथा सद्गुरू के महत्त्व की चर्चा है। ’निर्वेद’ को रचनाकार ने ‘सात लघु ग्रंथों का समुच्चय’ कहा है।

आधुनिक-कालीन साहित्य में दार्शनिक भावों से पूर्ण सुन्दर रचनाओं का नितांत अभाव है। 

अतः ’निर्वेद’ पढ़कर मन आनंदित हुआ। इसमें कहीं तो तुलसीदासजी की तरह रामनाम का माहात्म्य है तो कहीं कबीरदासजी की तरह गुरु वन्दना है, पर कथनशैली सर्वदा मौलिक है। उदाहरणस्वरूप:

ज्ञानज्योति दे आज करो प्रभु, निर्मल दृष्टि हमारी। 
लगन लगी तेरे चरनों में, हे गुरुदेव हमारी। 

जीवन की क्षणभंगुरता इस प्रकार वर्णित है:

क्या है जीवन का विश्वास? 
किसे विदित है, कब रुक जायें चलते-चलते श्वास? 

हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान श्री प्रेम जनमेजय के अनुसार: “‘निर्वेद’ में आदेश जी ने अपनी भावनाओं को मुक्त रूप से अभिव्यक्त किया है। यह निर्वेद जीवन से हार कर पलायन कर रहे किसी टूटे हृदय का स्वर नहीं है अपितु इसमें सक्रिय जीवन का प्रेरक स्वर है”। 

’निर्वेद’ में प्रेरणा के प्रबल स्वर हैं। जैसे:

तू सशक्त है, तू समर्थ है किन्तु नहीं भगवान है, 
सुख-दुःख सहकर नित्य चलाचल, समय बड़ा बलवान है। 
कभी त्याग ’आदेश’ न साहस, जबतक तन में श्वास है। 

श्री आदेश जी एक मानवतावादी कवि हैं। उनकी रचनाएँ 'सर्वे भवन्ति सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया' की भावना से ओतप्रोत हैं। जीवन के प्रति उनकी आस्था इस प्रकार व्यक्त हुई है: 

स्वर्ग बने जीवन का लोक, घर-घर में ही हो आलोक, 
हर नर-नारी बने अशोक, हमको ऐसा दे वरदान, 
जीवनदाता तुझे प्रणाम! 

’निर्वेद’ की भाषा सरल, सहज खड़ीबोली है। कहीं-कहीं भाषा अलंकृत भी है पर ये अलंकार आरोपित से नहीं हैं। ये सहजता से नि:सृत हैं तथा भाव निरूपण में पूर्णतः सक्षम हैं। उदाहरणस्वरूप:

अगम, अपार, अगोचर, अनुपम, अजर, अमर अविनाशी, 
 अज आनंद अक्षय अद्भुत, अनबध अमित अघकारी। 

श्री आदेश जी एक महान साहित्यकार होने के साथ ही एक महान संगीतकार भी थे। वे एक उच्चकोटि के गायक तथा कई वाद्ययंत्रों के वादक भी थे। फलतः गेयता इनकी रचनाओं में सहज रूप से विद्यमान है। आदेश जी ने 'निर्वेद' के गीतों को विभिन्न अवसरों पर विधिवत सुर में गाया है। इनके अनेक ऑडियो और वीडियो कैसेट भी बने हैं। उनके गीतों की स्वरलहरी की विशेषता यह है कि वह भावों के अनुरूप परिवर्तित होती रहती हैं। कवि-सम्मेलनों में उनका सस्वर कवितापाठ सदैव श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता रहा। ’निर्वेद’ के गीत अत्यंत श्रुतिप्रिय तथा लोकप्रिय हैं। जैसे:

बस्ती छोड़ चला बंजारा 
कर में लेकर रामनाम का सिर्फ़ एक इकतारा 

’निर्वेद’ में भक्ति, वैराग्य तथा आध्यात्मिक भावों की निश्छ्ल अभिव्यक्ति है, इसी कारण इसकी रचनायें अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं। 

स्वयं श्री आदेशजी के शब्दों में, ’निर्वेद’ मेरी साध्वी अनुभूतियों का प्रकाशन है। 

यह भगवान के चरणों में बैठकर मिला प्रसाद है अतएव सर्वथा अकृत्रिम है। उन्हीं के शब्दों में, “मुझे यह कहने में बिलकुल झिझक नहीं लगती कि मुझे ग़ज़ल लिखकर या गाकर जितनी अतृप्ति होती है, भजन लिखकर या गाकर उतनी ही आत्मतुष्टि प्राप्त होती है”। 

मुझे पूर्ण विश्वास है कि ’निर्वेद’ हिंदी साहित्य वाटिका का एक अत्यंत सौरभमय पुष्प सिद्ध होगा जिसके सौरभ से हिंदी साहित्य कानन दीर्घ समय तक सुरभित रहेगा। 

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