विश्व में सर्वाधिक बोली/समझी और प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में हिंदी दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती साख और उपभोक्ताओं की संख्या ने विश्व के हर देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह आकर्षण भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण बना रहा है। हमें इतिहास से जानकारी मिलती है कि भारतवासी प्राचीन समय से विश्व के अनेक देशों की यात्रा करते थे, उनका उद्देश्य किसी देश में साम्राज्य स्थापित करना नहीं था वरन् उनका प्रवास मैत्री भाव से प्रेरित रहा जिसके मूल में मानव कल्याण की भावना थी। धर्म-प्रचार और व्यापार भी मूल घटक रहे। समय और काल के साथ स्थितियाँ/परिस्थितियाँ बदलती गईं और 19 वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में शासन कर रही उपनिवेशवादी व्यवस्था, भारतीय मज़दूरों को एग्रीमेंट सिस्टम के अंतर्गत जिसे गिरमिटिया प्रथा के नाम से भी जाना जाता है, लाखों की संख्या में मज़दूरों को विश्व के अन्य देशों में ले गए। मूलतः ये मज़दूर अफ़्रीका, मॉरीशस, त्रिनिडाड, फिजी, सूरीनाम, गयाना देशों में कृषि उत्पादन के लिए ले जाए गए। इन गिरमिटिया मज़दूरों ने अपने श्रम और कार्य के प्रति लगन से जहाँ उन देशों के विकास की नई इबारत लिखी, वहीं त्रासदपूर्ण वातावरण में अनेक दुःख सहकर भी अपनी भाषा और संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन किया। आज इन गिरमिटिया मज़दूरों का अवदान है कि विश्व के कोने-कोने में भारतवंशी उपलब्ध हैं और अपने पुरखों द्वारा 170-180 वर्षों पूर्व भारत की संस्कृति और भाषा को सींच रहे हैं।
20 वीं सदी में शिक्षा, संपन्नता और साधनों की उपलब्धता के कारण अनेक जागरूक, पढ़े-लिखे और पेशेवर शिक्षित भारतीय, बेहतर जीवन की आकांक्षा लेकर विश्व के अनेक देशों में पहुँचे। जिनमें इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षा विशेषज्ञ, कला विशेषज्ञ, उद्यमी शामिल हैं। ये अमेरिका, कैनेडा, रूस, जापान, कोरिया, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, जर्मनी, स्वीडन आदि अनेक देशों में पहुँचे और अब उन्हीं देशों के निवासी बन गए हैं। ये सभी विदेशों में भारतीय भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यहाँ यह उल्लेख करने की बात है कि भारत के व्यक्ति चाहे जिस परिस्थिति या भौगोलिक सीमा में रहे वह अपनी संस्कृति और भाषा से कभी विमुख नहीं होते बल्कि भारत से बाहर वह इनसे और गहराई और गंभीरता से जुड़ा रहना चाहता है और इन्हीं उपादानों को अपने जीने और मोक्ष का सहारा मानते हैं। इसी संदर्भ में कैनेडा निवासी डॉ. शैलजा सक्सेना द्वारा लिखित लेख में पढ़ा हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है, जिसका संदर्भ यहाँ प्रासंगिक है—अमेरिका में बस गए एक भारतीय से किसी ने पूछा, “अमेरिका में हिंदी की क्या ज़रूरत है? जब भारत में ही हिंदी की उपेक्षा हो रही है।” अमेरिका में रह रहे भारतीय के उत्तर की गंभीरता को समझने की ज़रूरत है, वह बोला, “मेरे हिसाब से अमेरिका या भारत से बाहर रहने वाले प्रवासी भारतीयों को हिंदी की जितनी ज़रूरत है उतनी शायद ही भारतवासी भारतीय को नहीं है। क्योंकि अगर यहाँ भारत से बाहर हम हिंदी भूल जायेंगे तो ‘रामचरिमानस’ भूल जाएगा, प्रार्थनाएँ भूल जायेंगी, आरतियाँ भूल जायेंगी, काशी विश्वनाथ, ताजमहल सब भूल जाएगा, वह संस्कृति भूल जाएगा जो हज़ारों वर्षों से दुनिया का पथ प्रदर्शन करती रही है। प्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी इस संस्कृति का एकमात्र संचारवाहक है। अतः हिंदी बहुत ज़रूरी है यहाँ। इस अँग्रेज़ी देश में हिंदी के पठन-पाठन से मेरे जैसे कई गृहस्थ समर्पित भाव से जुड़े हैं, जो पेशे से हिंदीदां नहीं हैं, अपितु तकनीकी क्षेत्रों के जानकार हैं। हम मानते हैं कि हिंदी है तो हम हैं।”
अमेरिकावासी भारतीय का यह उत्तर भारत से बाहर रह रहे अधिकांश भारतवंशियों/भारतीयों की भावना का प्रतिनिधित्व करता है, यह बात मैं अपने मॉरिशस और कैरेबियन देशों में प्रवास के अनुभवों से कह सकता हूँ। आज विज्ञान ने देशों की भोगोलिक सीमाओं को विस्तारित कर दिया है, नए-नए वैज्ञानिक अनुसंधानों ने सम्प्रेषण और आवागमन को सहज, सुलभ और सुगम बना दिया है।
कैनेडा में भारतीयों का आगमन 1903 से माना जाता है जब ब्रिटिश शासन का साथ देने के लिए भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के बाद हांगकांग और जापान के रास्ते कैनेडा पहुँचे और 1908 तक लगभग 5209 भारतीय कैनेडा पहुँचने में सफल हुए। इसी क्रम में कैनेडा सरकार के अनेक प्रतिबंधों और प्रावधानों के बावजूद भारतीय कैनेडा में उतरते रहे, जब कैनेडा सरकार ने 1966 में वीसा में छूट दी तो हज़ारों की संख्या में भारत के विभिन्न प्रांतों से भारतीय कैनेडा पहुँचे, इनमें अधिकतर पंजाबी थे, फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त पेशेवर कैनेडा प्रतिस्थापित हुए। भारत के अलावा भी दक्षिण अफ़्रीका, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी आदि अनेक देशों से भारतीय या भारतीय मूल के लोग कैनेडा पहुँचे। आज कैनेडा में लगभग 14–15 लाख भारतीय या भारतीय मूल के लोग निवास कर रहे हैं और कैनेडा के विकास में योगदान दे रहे हैं। ये भारतीय पंजाबी, हिंदी, तमिल, मलयालम, बंगला, उर्दू, गुजराती आदि भारतीय भाषाओं का किसी न किसी रूप में व्यवहार करते हैं। कैनेडा सरकार का प्रावधान है कि सार्वजनिक सुविधाओं को अँग्रेज़ी और फ्रेंच के अलावा अन्य भाषाओं में उपलब्ध कराना, इस प्रावधान के चलते कैनेडा की म्युनिसिपल सर्विसेज, कोर्ट, हॉस्पिटल, शैक्षिक संस्थाओं की सेवायें अन्य भाषाओं के साथ-साथ हिंदी और पंजाबी में भी सुलभ कराई गई हैं।
कैनेडा में हिंदी शिक्षण
सत्तर के दशक से कैनेडा में ग़ैर सरकारी संगठनों द्वारा हिंदी अध्ययन-अध्यापन की परंपरा की विधिवत शुरूआत मानी जाती है। हिन्दू मंदिरों और सांस्कृतिक संस्थाओं/केन्द्रों ने हिंदी शिक्षण के संवर्धन में विशेष प्रयास किए हैं और इसी कारण आज कैनेडा में हिंदी की समृद्ध परंपरा दिखाई देती है। इस क्रम में ओटावा में स्थापित ‘मुकुल हिंदी विद्यालय’ का योगदान सराहनीय है, जिसने हिंदी शिक्षण के क्षेत्र में आरंभिक कार्य किए और आज देशभर में इसकी अनेक शाखाएँ खुल चुकी हैं जो कैनेडा सरकार के स्कूल बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और सरकारी सहायता से हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के शिक्षण में सक्रियता से कार्य कर रही हैं।
ब्रिटिश कोलंबिया के बार्नबी के विश्व हिंदी परिषद, कैलगरी की वैदिक हिन्दू सभा, कैलगरी रामायण भजन मंडली, वैंकूवर के महालक्ष्मी मंदिर, सरे की वैदिक हिन्दू सांस्कृतिक सभा, रिचमंड की वैदिक सांस्कृतिक सभा ने हिंदी शिक्षण की विधिवत कक्षाएँ चलाईं। 1972 में नोवा स्कोशिया के हैलीफैक्स में हिंदी कक्षाएँ प्रारंभ की गईं थी, 1980 में सेंट जॉन में भी हिंदी शिक्षण प्रारंभ किया गया। मैनीबावा की हिन्दू सभा ने मंदिर से हिंदी शिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया जो अब उनके नए भवन भारतीय भवन में चल रहा है। सन् 1985 से एडमंटन की अल्बर्टा हिंदी परिषद् कैनेडा द्वारा नियमित रूप में हिंदी कक्षाएँ चलाई जा रही हैं। स्व. श्री जगदीश शास्त्री और डॉ. रत्नाकर नराले ने हिन्दू इंस्टीट्यूट ऑफ़ लर्निंग तथा हिन्दू इंस्टीट्यूट ऑफ़ मोंटेसरी एकेडमी की स्थापना की और अब डॉ. रत्नाकर नराले इसके माध्यम से हिंदी शिक्षण में अथक परिश्रम कर रहे हैं।
जून 1966 में ओंटेरियो सरकार ने हेरिटेज लैंगुएजेज प्रोग्राम शुरू किया और 1989 में इसे प्राथमिक विद्यालयों में लागू किया इस कार्यक्रम के अंतर्गत सरकारी स्कूलों और कुछ पब्लिक स्कूलों में हिंदी कक्षाओं को शुरू किया था जो आज भी चल रहा है। आज कैनेडा के अनेक विश्वविद्यालयों जैसे—यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरोंटो, यार्क यूनिवर्सिटी, वेस्टर्न यूनिवर्सिटी, मोंट्रियल यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया, मैक्गिल, सास्काटून और कैलगरी यूनिवर्सिटी में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की सुविधायें उपलब्ध हैं।
कैनेडा की हिंदी सेवी संस्थाओं का उल्लेख आवश्यक है जिनकी गतिविधियों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है और आज भी कर रहे हैं।
1. हिंदी परिषद्: डॉ. रघुवीर सिंह ने 1982 में टोरोंटो में पहले हिंदी संगठन की स्थापना की थी। इस संस्था का उद्देश्य कैनेडा के हिंदी प्रेमियों को एकजुट कर हिंदी के प्रचार में रचनात्मक कार्य करना था।
2. हिंदी लिटरेसी सोसायटी ऑफ़ कैनेडा: 1983 में गुएल्फ़ के प्रो. ओ पी द्विवेदी के नेतृत्त्व में राष्ट्रव्यापी हिंदी संगठन हिंदी लिटरेसी सोसायटी ऑफ़ कैनेडा की स्थापना हुई वर्तमान में सरे वेंकुवर के श्रीनाथ पी द्विवेदी इस संस्था के अध्यक्ष हैं। इस संस्था की पत्रिका ‘संवाद’ लोकप्रिय है।
3. क्यूबेक हिंदी संघ: इस संस्था की स्थापना 1975 में श्री कुमुद त्रिवेदी की अध्यक्षता में हुई। वर्तमान अध्यक्ष डॉ. सुशील मिश्र तन-मन से हिंदी प्रचार-प्रसार में लगे हैं।
4. मैनीटोबा हिंदी परिषद्: 1982 में मैनीटोबा में प्रो वेदानंद, बिंदु झा, शरदचंद के प्रयासों से विनिपेग में इस संस्था का गठन हुआ था।
5: भारतीय विद्या संस्थान: प्रो. हरिशंकर आदेश ने कैनेडा में हिन्दी/संस्कृत/ भारतीय कला-संस्कृति के अध्ययन-अध्यापन और प्रोत्साहन के उद्देश्य से 1984 में भारतीय विद्या संस्थान की स्थापना की।
6. हिंदी साहित्य सभा: 1997 में डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव ने हिंदी साहित्य सभा की स्थापना की यह संस्था आज सक्रियता से हिंदी प्रचार-प्रसार की गतिविधियों को क्रियान्वित कर रही है।
7. हिंदी प्रचारिणी सभा: 1998 में कैनेडा में हिंदी प्रचारिणी सभा का गठन हुआ। श्री श्याम त्रिपाठी इसके अध्यक्ष हैं। ”हिंदी चेतना“ त्रैमासिक पत्रिका का संपादन श्री श्याम त्रिपाठी ने मार्च 1998 में प्रारंभ किया जो आज भी प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका ने कैनेडा के हिंदी कवियों को प्रकाशन के लिये एक मंच दिया। यह पत्रिका आज उत्तरी अमेरिका की महत्त्वपूर्ण पत्रिका बन गई है।
8. आर्य समाज (वैदिक कल्चर सेंटर): ओंटारियो और ब्रिटिश कोलंबिया के बर्नाबी में आर्य समाज के मंदिरों में हिंदी का शिक्षण भी किया जाता है। श्रीमती मधु वार्ष्णेय और कमला नायडू हिंदी की वार्तालाप कक्षाएँ संचालित करती हैं। श्री रघुपाल सिंह कैनेडा आर्य-जगत के स्तंभ हैं और ‘कर्तव्य’ नामक पत्रिका हिन्दी/अंगरेजी में निकालते हैं।
9. विश्व हिंदी संस्थान-विश्व हिंदी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइज़ेशन: कैनेडा एक लाभरहित पंजीकृत संस्था है, इसके अध्यक्ष सरन घई हैं। इस संस्था के मूल उद्देश्य संपूर्ण विश्व में हिंदी व भारतीय भाषाओं का प्रचार-प्रसार-विकास करना तथा अपने वैश्विक प्रयासों के आधार पर अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को मान्यता दिलवाना है। इस संस्था की पत्रिका ‘प्रयास’ है।
10. हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा: 2008 में सुमन घई, विजय विक्रांत और डॉ. शैलजा सक्सेना ने हिंदी राइटर्स गिल्ड की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदी का प्रचार-प्रसार तथा साहित्य-स्तर में सुधार करना है। अपने उद्देश्य के लिए हिंदी राइटर्स गिल्ड मासिक गोष्ठियों के आयोजन, हिंदी लेखन से संबंधित कार्यशालाओं के आयोजन, कवि सम्मेलन, नई पुस्तकों का विमोचन, पुस्तकों पर परिचर्चा, हिंदी नाटकों की मंचीय प्रस्तुतियाँ, विश्व हिंदी दिवस पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजनों आदि में सक्रियता से कार्य कर रहा है। इन आयोजनों में युवा वर्ग को जोड़ने और उनकी सहभागिता को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। संस्था द्वारा अंधा युग, रश्मिरथी, मित्रो मरजानी, आधे अधूरे, चीफ़ की दावत, सूरदास, जनाबाई, अनूदित नाटक-उधार का सुख (सुखांशी भाडंति आहि-मराठी), उनकी चिट्ठियाँ (अंग्रेज़ी से) आदि 12 नाटकों का मंचन किया जो स्थानीय भारतीय डायसपोरा को जोड़ने में बहुत सहायक हुए हैं।
11. सद्भावना हिंदी साहित्य संस्था: डॉ. स्नेह ठाकुर ने इस संस्था की स्थापना 2003 में की। ‘सद्भावना हिंदी साहित्यिक संस्था’ का उद्देश्य हिंदी साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना और उनकी रचनाओं को प्रकाशित करना है। अभी संस्था के अन्तर्गत इन्होंने चार काव्य-संकलनों का संकलन, सम्पादन व प्रकाशन किया है। इसके अतिरिक्त संस्था द्वारा चित्रकला प्रदर्शिनियों द्वारा भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जाता है।
हिंदी पत्रिकाएँ:
हिंदी जगत में कैनेडा से प्रकाशित होने वाली कुछ विशेष पत्रिकाओं का उल्लेख अपेक्षित है क्योंकि इन पत्रिकाओं ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में अपना विशेष स्थान बना लिया है:
वसुधा: डॉ. स्नेह ठाकुर के संपादन में
हिंदी चेतना: श्री श्याम त्रिपाठी के संपादन में
प्रयास: श्री सरन घई के संपादन में
संवाद: आचार्य श्रीनाथ द्विवेदी के संपादन में
वेब पत्रिकायें:
साहित्यकुंज.नेट: वेब पत्रिका 2003 से प्रकाशित हो रही है और सुमन कुमार घई इसके प्रकाशक और सम्पादक हैं।
पुस्तक भारती रिसर्च जनरल: डॉ. रत्नाकर नराले के संपादकत्व में प्रकाशन हो रहा है।
भारत सौरभ: डॉ. रत्नाकर नराले के संपादकत्व में में प्रकाशन हो रहा है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कैनेडा में हिंदी भाषा और साहित्य अपनी समृद्धि की ओर अग्रसर है। कैनेडा के अनेक हिंदी-सेवी साहित्य की विविध विधाओं में साहित्य की रचना कर साहित्य को समृद्ध बना रहे हैं।