विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

कैसे कह दूँ आँखों मेंं अब बाक़ी कोई स्वप्न नहीं है। 
 
जब आँधी ने ज़ोर पकड़ ली
तब भी हार नहीं मानी थी, 
बारिश, तूफ़ाँ रात घनेरी
सब से लड़ने की ठानी थी, 
ध्वस्त क़िले मेंं बना खंडहर
सो रहा है, मगर अभी भी
सुंदर क़िस्से बाँच रहा है 
थका नहीं है स्वप्न कभी भी 
 
मिली नहीं हो जीवन भर की ख़ुशियाँ लेकिन बिखरी-बिखरी
इधर-उधर मिल जायेंगी टुकड़ों मेंं, साथी, ढूँढ़! यहीं हैं . . . 
 
यूँ तो जीवन बीत गया पर 
अभी अधूरा सा लगता है, 
क्या पाया क्या खोया बस यह
गिनने में ही दिन कटता है 
आँखें आँसू से धोती जब
मेंरे दुख के मुर्झाये पल
बच्चों की किलकारी से खिल
उठता आँखों मेंं पलता कल
 
शाम ढले फिर हो जाता है दिल बोझिल पत्थर सा कोई
वह जो छूट गया पीछे फिर मिलता क्या अब दोस्त कहीं है? 
 
कैसे कह दूँ आँखों मेंं अब बाक़ी कोई स्वप्न नहीं है . . . 

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