विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

अरे डैडी आप अचानक कैसे? 

लघुकथा | विजय विक्रान्त

दोपहर का समय था और आनन्द ब्रेक में खाना खाने के लिये कैफ़ेटेरिया में जाने की तैयारी कर ही रहा था कि एकाएक दरवाज़े की घण्टी बजी। दरवाज़ा खोलने पर आनन्द ने अपने डैडी को सामने खड़ा पाया। 

“अरे डैडी, आप अचानक कैसे? आज सुबह ही तो मैं घर से यहाँ आया हूँ। एकाएक क्या कोई बिज़नेस का काम आ पड़ा?" 

“नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है। तुम्हारे यहाँ आने से पहले मैं तुम से मिल नहीं पाया था,” डैडी ने उत्तर दिया। 

“अरे डैडी, आप तो बिला वजह फ़िकर करते हैं,” आनन्द ने हँसते हुए कहा। “मैं कोई छोटा सा बच्चा तो हूँ नहीं, और आप इतनी मामूली सी एक बात को लेकर परेशान हो गये हो,” इतना कह कर आनन्द हँस पड़ा। 

आनन्द की बात सुनकर अनिल को कुछ अजीब सा लगा। अचानक कोई गुज़री हुई याद ताज़ा हो गई और इससे पहले कि वो आनन्द की बात का जवाब दे, सालों पहले का वह दृश्य उसके सामने जीवंत हो गया। 

बात १९८५ की थी। अनिल पंजाब इन्जिनियरिंग कॉलेज चण्डीगढ़ में पढ़ रहा था। अम्बाला नज़दीक होने के कारण अक़्सर वो शुक्रवार की शाम को घर आ जाता था और सोमवार को पहली बस लेकर वापस चण्डीगढ़ लौट जाता था। इस प्रकार उसको पहला पीरियड भी मिस नहीं करना पड़ता था और परिवार के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का मौक़ा भी मिल जाता था। 

ऐसे ही एक सुबह अनिल चण्डीगढ़ वापस जाने को तैयार था और बस अड्डे जाने के लिये रिक्शा भी बुला लिया था। माँ तो सामने खड़ी थी मगर पिताजी नज़र नहीं आ रहे थे। अनिल के पूछने पर माँ ने बताया कि वो स्नान कर रहे हैं, बस आते ही होंगे। स्नान के लिए जाने से पहले उन्होंने कहा था कि अनिल से कहना कि मुझसे मिले बिना ना जाये। कहीं बस न निकल जाये, यह सोचकर अनिल बिना उनसे मिले रिक्शे में बैठकर बस अड्डे जा पहुँचा और बस पकड़ चण्डीगढ़ के लिये रवाना हुआ। हॉस्टल पहुँच कर वो तैयार हुआ और कॉलेज चला गया। 

लंच ब्रेक में जब अनिल हॉस्टल में अपने कमरे की ओर जा ही रहा था तो रूम बैरा मिठवा राम ने बताया कि बड़े साहब आये हैं और उसने उन्हें कमरे में बिठा दिया है। दरवाज़ा खोल अपने कमरे में जैसे ही अनिल घुसा, उस ने देखा कि सामने पिताजी बैठे हैं। 

“अरे पिताजी आप?” अनिल ने चौकन्ना हो कर कहा। “क्या किसी हाई कोर्ट के काम से आना हुआ? घर में तो आपने इस बारे में ज़िक्र भी नहीं किया वरना हम दोनों इकट्ठे आ जाते,” कह कर अनिल ने सवालों की बौछार लगा दी। 

“नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल में जब तुम घर से चले थे उस समय मैं तुम से मिल नहीं पाया था, इसीलिये तुम से मिलने आ गया हूँ।” अनिल ने कहा। 

“अरे पिताजी, आप भी कैसी बात करते हैं, चण्डीगढ़ और अम्बाले में दूरी ही कितनी है और फिर अगले हफ्‍़ते तो मैं दीवाली पर घर आ ही रहा हूँ। आप ने एक छोटी सी बात को लेकर इतनी परेशानी क्यों उठाई?” कह कर अनिल हँस पड़ा। 

“अनिल बेटे, आज मेरी ये बात और मेरा यहाँ आना तुम्हारी समझ में बिल्कुल नहीं आयेगा। जब तुम स्वयं पिता बनोगे, सब समझ़ जाओगे,” कह कर पिताजी हँस पड़े। 

आज अनिल को अपने पिता की वही बात सच होती दिखाई दे रही थी। 

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