स्मृति पटल पर अंकित है,
आज भी,
मेरा प्यारा ननिहाल,
गर्मी की छुटियों का बस होता था
यही एकमात्र ख़्याल,
पेटियों में कपड़े, भर मन में उत्साह,
न कोई फ़िक्र, न कोई परवाह,
राजधानी या कोलफील्ड में लदना,
और नानी के घर धमकना
नानी—
श्वेत साड़ी में बड़ी साधारण सी लगती थी,
मगर बरगद के वृक्ष सा विशाल उनका व्यकतित्व
पूरे घर पर छाया रहता था,
हवन के मंत्रों से करती थी सवेरा
घर के हर सदस्य पर रखती थी पहरा,
नानी,
मानो एक धागा थी
और हम सब मोती,
जिन्हें पिरो कर वह एक सुन्दर कण्ठहार बना रही थी . . .
मेरी मामियाँ-
हाल में बैठी,
कभी क़ुछ चुगती, कभी कुछ बिनती, कभी कुछ चुनती
सहमी सहमी सी रहती थीं,
कुछ संकोच कुछ लज्जा की,
घूँघट ओढ़े रहती थी,
छोटी उम्र में ही बड़े दायित्व उठाना सीख रही थी
नानी उनमे, अपनी कार्य कुशलता के बीज बो रही थी,
ये,
मानो नानी के उस कंठहार के पाँच हरे मनके थे,
जिससे वह इतना बहुमूल्य और सुंदर लगता था।
मेरी माँ और मासियाँ—
यहाँ आकर उनमें एक बदलाव आ जाता,
जैसे चेहरे पर एक मैके वाला रुतबा छा जाता,
यूँ तो अपने भाई-भाभियों पर
अपना एकाधिकार समझतीं,
परन्तु
अन्य कोई उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहे तो,
शस्त्र और शास्त्रार्थ के साथ तैयार रहतीं . . .
मेरे मामा—
कर्मठ और निपुण
अपनी अपनी मस्ती में रहा करते थे,
हम बच्चों के
अजब अनूठे नाम रख देते थे,
कोई मितभाषी था,
तो किसी से हम भयभीत रहते थे
किसी के संग योग,
किसी के संग पिकनिक,
सब अपने अपने तरीक़े से हम पर
स्नेहवर्षा करते थे
मेरे इस परिवार से मैंने बहुत कुछ सीखा,
विनम्रता, आतिथ्य, मान सम्मान,
एकता, सद्भावना . . .
और यह सब धीरे-धीरे मेरे आज में
समाहित होता चला गया . . .
आभारी हूँ,
अपने भाग्यविधाता की,
जिसने लिखा,
मेरे बचपन में,
एक दुलारा ननिहाल!