एक दिन लेखनी कवयित्री से बोली—
क्यों रख छोड़ा है मुझे एक कोने में
उठा लो मुझे कुछ कसरत करा दो
तभी कवयित्री ने कहा—
थक गयी हूँ बहुत अब जीवन से
उठने का भी साहस नहीं है
टूट चुकी हूँ दिन भर की जद्दोजेहद से
शरीर भी दर्द का मारा है
कैसे उठूँ! ना कोई सहारा है
अब तो ये हाल है कि
हर समय सहारे को ही पुकारा है
लेखनी—
एक बार उठ, हिम्मत ना हार
मुझे उठाकर काग़ज़ पर उतार
भूल जाएगी तू सारे दर्द
हो जायेगा सभी दर्दों का उपचार
झाड़, अपनी दबी यादों की परत
मस्तिष्क में जो दबे बैठें हैं शब्द
उन शब्दों का मरहम बना
घावों पर लेपकर और सहला
खोलकर मन की गगरी
एक काग़ज़ पर उँडेल
हल्का हो जायेगा मन तेरा
पायेगी नवचेतना और सवेरा
अकेली पड़ी रहती है तू
इसलिए तुझे विपदाओं ने है घेरा
कवियित्री के तन में
बिजली की एक लहर सी दौड़ी
उठी और लेखनी से बोली—
अरे, तू है बड़ी ही मनचली
मेरी नाज़ों की पली
कैसे दूर करूँ तुझको
तू लगती मुझे भली
तू ही मेरी प्रिय सहेली
बहुत ही प्यारी बहुत ही भोली
करती है केवल उपकार तू ही
सदा ही तुझे मैं संग अपने रखूँगी
जिऊँगी संग तेरे और संग ही मरूँगी।