प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी के उपन्यासों में संवेदनशीलता “हवन” उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में
साहित्यिक आलेख | डॉ. रानू मुखर्जी
साहित्य का सर्जन इस मन्तव्य से होता है कि जिन उच्च मूल्यों को लेकर वह रचा गया है उन ऊँचाइयों तक व्यक्ति, समाज को लेकर जाया जाए। यह ठीक है कि आदर्श की जिस ऊँचाई का स्पर्श व्यक्ति कर लेता है, उस ऊँचाई तक पूरे समाज के पहुँचने की सम्भावना पैदा हो जाती है। मनुष्य को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्न करने होते हैं। इन प्रयत्न में सबसे अधिक सहायक साहित्य का होता है।
प्रवासी साहित्य का उद्भव भारतीय प्रवासी नाम से आया है जो इन्डियन डायस्पोरा का हिन्दी रूपांतर है। विभिन्न देशों या महाद्वीपों के नाम के आधार पर जैसे अफ़्रीकी डायस्पोरा, एशियाई डायस्पोरा, यूरोपीय डायस्पोरा, भारतीय डायस्पोरा आदि रखे जाते हैं। भारत में साहित्य को डायस्पोरा के साथ जोड़ा गया है। हिन्दी में लिखनेवाले लेखकों या साहित्यकारों को प्रवासी हिन्दी लेखक या साहित्यकार कहा जाने लगा और एक अलग मान्यताप्राप्त वर्ग बन गया।
प्रवासी हिन्दी साहित्य… आगे पढ़ें
कैनेडा के गद्यकारों के संग्रह का नामकरण ‘सम्भावनाओं की धरती’ उचित ही किया गया है। चूँकि कई लोग यह समझते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन तो भारतीयों के लिए रच-बस चुके हैं परंतु कैनेडा में अभी बहुत सम्भावना है। दूसरा आशय शायद यह है कि यह धरती अपनी सम्भावनाओं को प्राप्त करने के बहुत अवसर देती है। दोनों दृष्टियों से यह नामकरण समीचीन है। इस संकलन को पढ़ने के बाद यह लगता भी है कि कैनेडा भारतीयों के लिए एक महत्त्वपूर्ण सम्भावनाओं की धरती है। इसमें बीज डाला जा चुका है, जो पुष्पित और पल्लवित हो रहा है और जिसकी सुगंध भारतीय डायस्पोरा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
अपने विस्तार और व्यापकता के चलते गद्य संग्रह का एक अलग महत्त्व है। यहाँ पर सुविचारित, सुचिंतित रूप से कैनेडा के जीवन के सूत्र मिलते हैं। जब तक आप किसी देश का गद्य नहीं पढ़ते हैं, आपको उस देश की… आगे पढ़ें
विश्व के अनेक देशों में हिंदी में सृजनात्मक लेखन की समृद्ध परंपरा विद्यमान है। कुछ समय पूर्व तक मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य से भारतीय पाठक परिचित थे परंतु संचार साधनों की सुगमता के कारण आज अन्यान्य देशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य के प्रति हिंदी-जगत परिचित होता जा रहा है।
कैनेडा में हिंदी लेखन की समृद्ध परंपरा विद्यमान है, साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य-सृजन हो रहा है। कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, डायरी, संस्मरण, निबंध आदि में कैनेडा से हिंदी साहित्य रचा जा रहा है और हिंदी जगत में उनका स्वागत भी हो रहा है। कैनेडा में हिंदी के सृजनात्मक लेखन में अनेक हिंदी प्रेमी सक्रियता से कार्य कर रहे हैं, इनमें—डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव, डॉ. शिवनंदन यादव, प्रो. हरिशंकर आदेश, डॉ. स्नेह ठाकुर, अरुणा भटनागर, डॉ. बृजकिशोर कश्यप, विजय विक्रांत, आशा बर्मन, अचला दीप्तिकुमार, डॉ. ओंकार प्रसाद द्विवेदी,… आगे पढ़ें
इस लेख में ओटवा के क्षेत्र में हिंदी भाषा और साहित्य की बाल्यावस्था से यौवन तक की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा सम्भवतः वर्ष 1971 में प्रारंभ हुई जब यहाँ हिंदी भाषा और साहित्य का बाल्यकाल था। आज वे दोनों अपने यौवन तक आ पहुँचे हैं। संयोगवश 1971 ही वर्ष था जब मैंने और मेरे परिवार ने भारत से विदा लेकर ओटवा को अपना घर बनाया, वह आज भी हमारा घर है। इन वर्षों में मैं एक दृष्टा और कर्ता के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य की यात्रा से संलग्न रहा। यह लेख उन्हीं वर्षों की स्मृतियों पर आधारित है। ओटवा के निवासी, मेरे तीन मित्रों ने इस लेख को पूर्ण करने में मेरा सहयोग दिया है। वे हैं श्रीमती रश्मि गुप्ता, श्री वीरेन्द्र कुमार भारती एवं श्री रणजीत देवगण। ये सब मित्र साहित्यकार, लेखक, और कवि होने के साथ साथ अनेक अन्य प्रतिभाओं के धनी… आगे पढ़ें
विश्व में सर्वाधिक बोली/समझी और प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में हिंदी दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती साख और उपभोक्ताओं की संख्या ने विश्व के हर देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह आकर्षण भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण बना रहा है। हमें इतिहास से जानकारी मिलती है कि भारतवासी प्राचीन समय से विश्व के अनेक देशों की यात्रा करते थे, उनका उद्देश्य किसी देश में साम्राज्य स्थापित करना नहीं था वरन् उनका प्रवास मैत्री भाव से प्रेरित रहा जिसके मूल में मानव कल्याण की भावना थी। धर्म-प्रचार और व्यापार भी मूल घटक रहे। समय और काल के साथ स्थितियाँ/परिस्थितियाँ बदलती गईं और 19 वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में शासन कर रही उपनिवेशवादी व्यवस्था, भारतीय मज़दूरों को एग्रीमेंट सिस्टम के अंतर्गत जिसे गिरमिटिया प्रथा के नाम से भी जाना… आगे पढ़ें
कैनेडा की विपुल और समृद्ध कविता धारा का परिचय कराता काव्य संकलन–सपनों का आकाश
साहित्यिक आलेख | अनिल जोशी
डॉ. शैलजा सक्सेना और श्री सुमन घई द्वारा संपादित कैनेडा के कवियों और कवयित्रियों का संकलन ‘सपनों का आकाश’ स्वागत योग्य है। यह संकलन एक सुखद आश्चर्य से भर देता है कि कैनेडा जैसे देश में, इतनी गुणवत्ता वाले, इतनी गहरी सोच रखने वाले, हिंदी में अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करने वाले इतनी बड़ी संख्या में मौजूद है। इन सभी कवियों, रचनाकारों का अभिनंदन है। इस सम्बन्ध में दोनों संपादकों और सह–संपादकों की कर्मठता भी प्रशंसायोग्य है जिन्होंने इतना श्रमसाध्य कार्य किया। लगभग 300 पृष्ठों की कविताओं की पुस्तक और इतने सारे कवि! एक तरीक़े से हिंदी साहित्य की दृष्टि से कैनेडा के कवि विश्व के अन्य देशों से आगे दिखाई देते हैं। संकलन के विस्तार से भ्रम होता है कि इस संकलन में शायद कुछ कविताएँ उतनी गुणवत्तापूर्ण न हों। परंतु कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कविता के इतिहास में… आगे पढ़ें
टोरोंटो के हिंदी समाज में जिनका नाम अत्यंत श्रद्धा तथा प्यार के साथ लिया जाता है, वह नाम है श्रीमती अचला दीप्ति कुमार का। वे भारतवर्ष के इलाहाबाद शहर के एक अत्यंत साहित्यिक समृद्ध परिवार से हैं। उनकी मौसी श्रीमती महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्री रही हैं। उनके पिता श्री बाबूराम सक्सेना जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे। उनके ससुर जी श्री धीरेंद्र वर्मा हिंदी साहित्य के एक श्रेष्ठ भाषा विशेषज्ञ थे। इतने महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लोगों के बीच अचला जी लालन-पालन हुआ इसलिए आरम्भ से उनको हिंदी का एक साहित्यिक वातावरण मिला और ज्ञान भी।
अचला जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई और इतिहास को लेकर उन्होंने एम.ए. किया। विवाह के बाद कैनेडा आने पर हिंदी समाज से युक्त होने के पश्चात् उन्होंने कविताएँ लिखना आरम्भ किया। उसी समय एक मासिक हिंदी गोष्ठी में मेरा उनसे परिचय हुआ। 1985 में जब काव्य लेखन… आगे पढ़ें
प्रत्येक देशवासी अपने देश, अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा आदि से बहुत प्रेम करता है। हम देखते हैं कि जीविकोपार्जन हेतु भारत से बाहर जाने वाले प्रवासियों में से ऐसे अनेक प्रवासी है जिन्होंने अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक विरासत के रूप में हिन्दी को जीवित रखते हुए साहित्य सृजन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अपने उम्दा साहित्य सृजन के द्वारा इन सर्जकों ने प्रवासी हिन्दी साहित्य को काफ़ी समृद्ध किया है।
लाख छू आएँ
चिड़ियाँ आकाश को
प्यार नीड़ से।
(कृष्णा वर्मा)
इन चंद शब्दों में मानो एक तरह से प्रत्येक प्रवासी की भावना और विशेषतः प्रवासी सर्जकों की सृजनात्मक संवेदना की बुनियादी पहचान कराने वाली कृष्णा वर्मा ने विगत एक दशक में कैनेडा के सृजनात्मक हिन्दी साहित्य में अपनी एक विशेष जगह एवं पहचान बनाई। आज प्रवासी हिन्दी सर्जकों की लम्बी सूची में कृष्णा वर्मा का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। कृष्णा जी की… आगे पढ़ें
१९६८ में भारत से कैनेडा आने पर यकायक वह नन्ही बच्ची कहीं गुम सी हो गई जो माँ के पास बैठकर कभी शरतचंद्र की पुस्तकें पढ़ती तो कभी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' से नेह लगा बैठती। उर्दू और अँग्रेज़ी के विद्वान पिता से शेरो-शायरी सुनती तो कभी माँ की संगत में रामायण-पाठ करती। गुम हो गई वह युवती जो साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी काशी में एक साहित्य-स्नेही संभ्रांत परिवार में ब्याह कर आई। इस वय तक साहित्य भीतर अँखुआया ज़रूर लेकिन पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पाया था। परदेसी धरती पर इस आगमन और नए सिरे से जीवनयापन की चुनौतियों ने कुछ समय के लिए सृजन की मनोभूमि की उर्वरता ही अवरुद्ध कर दिया था लेकिन प्रवासी भारतीय हिंदी सेवी संस्थाओं और छोटी-छोटी संगोष्ठियों ने नए सिरे से सृजन के बिरवे को सींच दिया और इंदिरा जी की आंतिरक लय लिपिबद्ध हो उठी:
“क्या मैं वही हूँ?
बताओ, क्या मैं अभी भी… आगे पढ़ें
विदेशों में भारतवंशियों की प्रवासन की प्रक्रिया के कारण आज रामायण महाकाव्य का सांस्कृतिक महत्व और प्रभाव विश्व में विभिन्न कथाओं के माध्यम से फैला हुआ है। प्रवासी भारतीयों ने एक ओर जहाँ विदेश को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति की ध्वजा भी लहराई। भारत से इतर देश जैसे फीजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, कैनाडा आदि में अपनी-अपनी रामायण है, अपनी-अपनी कथाएँ हैं और अपने-अपने राम भी हैं। यह लेख फीजी में गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव और परंपरा पर आधारित है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बिछड़े इन गिरमिटिया मजदूरों ने अपना देश तो त्यागा परन्तु अपनी भाषिक परंपरा और सांस्कृतिक संपत्ति को कठिन काल में भी कायम रखा। भारतीय संस्कृति के ये महान साधक अपने स्वदेश की मिट्टी की महक और उर्जा अभी भी अपने माथे पर संजोए हुए हैं, और विदेशी परिवेश में राम नाम की… आगे पढ़ें
भारत से लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार किलोमीटर दूरी पर बसा देश फीजी प्रशांत महासागर का एक सुरम्य द्वीप है। क़रीबन नौ लाख की आबादी वाले इस देश में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। फीजी में भारतीयों का आगमन शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गन्ने के खेतों में मज़दूर के रूप में काम करने के लिए ब्रिटिश सत्ता के आदेश के अधीन सन 1879 से शुरू हुआ था। सन 1916 में इस प्रथा के बंद होने तक अर्थात 38 वर्षों में 85 हज़ार से अधिक भारतीय मज़दूर फीजी पहुँच चुके थे जो अधिकांशतः पश्चिम बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे एवं अवधी या भोजपुरी भाषा का प्रयोग करते थे। फीजी में हिंदी का उदय तथा विकास इन्हीं गिरमिट भारतीय मज़दूरों के माध्यम से हुआ था। फीजी में आज हिंदी के लिए जो ठोस ज़मीन पिछले 140 वर्षों में तैयार हुई, उसी के परिणामस्वरूप… आगे पढ़ें
आज पुन:स्मृति में आ गया बचपन में पढ़ा श्लोक, विद्या ददाति विनयं विनयाद याति पात्रताम"1जब अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के प्रवासी भवन में प्रोफेसर सुब्रमनी से मुलाकात का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके चेहरे की सौम्यता, विद्वता का तेज, उनके आंतरिक सौन्दर्य का परिचय अनायास ही दे रहे थे। भारतीय डायस्पोरा का प्रतिनिधित्व करता, फीजी हिंदी में आया उनका 1034 पृष्ठों का उपन्यास फीजी माँ: एक हज़ार की माँ के भारत में लोकार्पण का शुभ अवसर था। उस अवसर पर उनकी पत्नी अंशु जी भी मौजूद थी, जो अपने मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्द सबसे घुलमिल गयी थी। भारतीय डायस्पोरा और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में,सुब्रमनी जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए, मैं, सुब्रमनी जी का साक्षात्कार लेना चाहती थी लेकिन समयाभाव के कारण ऐसा हो न सका। लेकिन उनकी प्रतिभा और विनम्रता मुझे उनके बारे में लिखने से रोक नहीं पायी। इस अवसर पर अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के… आगे पढ़ें
‘मैं जग-सर में सरसिज सा फूल गया हूँ
नित अपने ही मन के प्रतिकूल रहा है
मैं चाह रहा लिखना अतीत की बातें
पर सहसा कुछ थोड़ा सा भूल गया हूँ।
मेरी अभिलाषा मिटकर धूल हुई है
मेरी आशा मेरे प्रतिकूल हुई है
मैं जीवन को अब तक पहचान न पाया
जीवन में यह छोटी सी भूल हुई है।’
ये पंक्तियाँ फीजी के महान हिंदी सेवक पंडित कमला प्रसाद मिश्र की ‘पछतावा’ कविता की हैं, जिनमें गंभीर भावबोध को अभिव्यक्ति दी गई है। फीजी में हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन में किए गए अप्रतिम योगदान के लिए पंडित कमला प्रसाद मिश्र को हिंदी-जगत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1978 में पंडित मिश्र जी को उनकी हिंदी-सेवा के लिए ‘विश्व हिंदी सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।
सर्वविदित है कि अठारहवीं शताब्दी में भारत के तत्कालीन उपनिवेशवादी शासकों ने भारतीय मज़दूरों को कृषि… आगे पढ़ें
प्रवासी भारतीयों की संघर्ष कथा के मौखिक दस्तावेज़
सन २०१७ गिरमिट प्रथा की समाप्ति की शत वार्षिकी थी। सन १९१७ में संवैधानिक परिधि में गिरमिट प्रथा की समाप्ति हुई थी और विदेश में बसे हुए हज़ारों प्रवासी भारतीय उस प्रवास की नारकीय यातना से मुक्त हुए थे। गिरमिट अनुबंध के अधीन प्रवासी भारतीयों को अपने देश वापस जाने की छूट थी पर जिन भारतीयों ने अपने कठिन परिश्रम से नए देश को रहने योग्य बनाया था, जिसे उन्होंने अपना देश मान लिया था, वहाँ उन्होंने बसने का निर्णय ले लिया था। एक सौ वर्ष तक जिनमें लगभग प्रवासी भारतीयों की तीन पीढ़ियाँ आती हैं, गिरमिट जीवन के अमानवीय अत्याचार सहे, कोलम्बर के द्वारा लांछित और अपमानित हुए पर अपने परिश्रम और निष्ठा से भारतीय आचार-विचार और जीवन मूल्यों में आस्था रखते हुए अपना विकास किया पर पूर्वजों की यातनाओं को भुला नहीं सके। इन यातनाओं की अभिव्यक्ति… आगे पढ़ें
फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग सवा सौ वर्षों का है और यह साहित्य प्रधानतः भारतीयों के फीजी आगमन, उनके संघर्ष और विकास का दस्तावेज़ कहा जा सकता है। फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य की मूल संवेदना प्रवास की पीड़ा है जो साहित्य में आद्यन्त देखने को मिलेगी यद्यपि उसका स्वरूप विविध सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बदलता हुआ दिखता है। प्रवास में जहाँ व्यक्ति के मन में एक ओर नई जगह जाने का उत्साह है, चुनौती है, नई आशाएँ और कामनाएँ हैं वहीं दूसरी ओर विछोह की पीड़ा है, विस्थापन का कष्ट है और भविष्य की आशंकाएँ हैं। इन दोनों भावों में डूबता उतराता मानव प्रवास का निश्चय करता है। अपनों का विछोह, अपनी मिट्टी का विछोह प्रवासी के मन में एक गहरी कसक उत्पन्न करता है। इस कसक को व्यक्ति नए सुखमय भविष्य की आशा में भुलाने की चेष्टा करता है। यदि नया… आगे पढ़ें
जाति नहीं है अनुशासन
न ही यह कोई व्यवस्था है
यह ख़ालिस अराजकता
गयी परोसी थाली में
घूँट-घूँट में गयी पिलायी
ये ज़हर था
यह नहीं था पानी!
हाथ हथौड़े, क़लम नहीं था
बहा पसीना खाता था
रक्त नहीं चूसा है मैंने
न ही मैं परजीवी।
मैं सूरज था
मुझसे तेरे खेत-खलिहान
तुम लगा रहे थे
मुझे ग्रहण।
मैं मौन खड़ा समय की सीढ़ी पर
देख रहा था वर्ण प्रपंच।
तुम लिख रहे थे गणित समय का
मैं भी मानक और इकाई था
फिर भी ज़िक्र नहीं मेरे होने का?
ये सृजन नहीं सियासत थी!
अनामिका अनु
'दलित' कविता
हंस पत्रिका (दलित विशेषांक)
हम मानव एक निश्चित गुणसूत्र संख्या के साथ पैदा होते हैं। हम सब की मूलभूत आवश्यकताएँ भी एक सी हैं। मानव रूप में जन्म लेते ही मानवाधिकार हमें… आगे पढ़ें
प्रेषक: सतीश खनगवाल
भारतीय समाज की बुनावट में आरंभ से ही परम्पराओं और प्रथाओं का विशेष योगदान रहा है। यही हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी रही है। लोकगीतों की गूंज तो जर्रे-जर्रे में रही है। बकौल कमलेश्वर लोकगीत दलितों की विरासत है। उन्हीं लोकगीतों और लोक कथाओं की गुम होती चली जा रही अस्मिता और पहचान को खोजने के लिए हाशिए से केन्द्र में तेजी के साथ आ रही है। आज नई पीढ़ी तत्पर है। देखा जाए तो भगवान बुद्ध के सामाजिक न्याय के सिद्धांत की डोर को मध्यकाल के संतों/फकीरों/और सिद्धों ने फिर से पकड़ा था। रविदास से ही हीरा डोम, हीरा डोम से अछूतानन्द और अछूतानन्द से बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और डॉ. अम्बेडकर से मान्यवर कांशीराम आदि ने जन-जन को जाग्रत करने का प्रयास किया था। वे हमारे इतिहास पुरूष हुए हैं और सामाजिक बदलाव के सूत्रधार भी। उनसे हमें प्रेरणा भी मिलती रही है। … आगे पढ़ें
हम सब जानते हैं, दलित साहित्य का आविर्भाव दलित तबके को द्विजों द्वारा सदियों से मिलती आई हकमारी से उपजी खुदमुख्तारी की एसर्टिव भावना के तहत हुआ है। लोकतंत्र के मानवाधिकारपूर्ण सामाजिक सेटअप में इस अनिवार हस्तक्षेप का आना लोकतंत्र को पूरता है। अँगरेज़ शासन कालीन जमाने के भारत से ही अभिव्यक्ति के औजार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जो कुछ अवसर देश की उत्पीड़ित-वंचित जन को मिले हैं उनमें देश में ‘उदार’ एवं निहित स्वार्थी दोनों तरीके के विदेशी शासकों-प्रशासकों एवं अन्य वर्चस्वशाली वर्गों की मदद का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष बड़ा हाथ रहा है। शिक्षा अथवा ज्ञान के जो व्यवस्थित संसाधन और औजार भारतीय परम्परा से आए उनपर संस्कृति एवं शासन के पहरुओं अर्थात राजन्य या कि शक्तिशाली वर्ग से आने वाली मुट्ठीभर सूक्ष्मसंख्यक प्रभु जातियों का कब्ज़ा था तथा इस शिक्षा-ज्ञान का ओरिएंटेशन प्रभु वर्ग के हितों के अनुकूल था। समाज के सवर्णवादी एवं ब्राह्मणवादी कुचक्रों… आगे पढ़ें
आजकल देश की सभी भाषाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है। हिंदी में भी गंभीर दलित साहित्य लेखन हो रहा है। हिंदी में दलित साहित्य एक प्रकार का विरोध, आक्रोश और क्रोध का साहित्य है। इस में समाज से बहिष्कृत किये जाने का, समाज के द्वारा पीड़ित हो जाने का ज़िक्र है। सवर्ण समाज के द्वारा सदियों से उन्हें हाशिये पर रखे जाने के बाद दलित उस रूढ़ बंधन से निकलने की कोशिश में हैं। उस संघर्ष से हम दलित साहित्य में रूबरू होते है। उस संघर्ष में समानता, समरसता और सामाजिकता का आग्रह दिखाई देता है। कविता की विधा में भी गंभीर लेखन हो रहा है। दलित के शोषण के दो मुख्य कारण है; ग़रीबी और अशिक्षा। हीरा डोम अपनी कविता ’अछूत की शिकायत’ में भगवान से शिकायत करते हैं कि आप प्रहलाद, गजराज, विभीषण और द्रौपदी की रक्षा में तत्परता दिखाते है; हम ने ऐसा… आगे पढ़ें
जाति-व्यवस्था और जातीयता के संघर्ष वर्तमान भारत के लिए चुनौती है। इसे लेकर इतिहासकार चाहे पुराणों, स्मृतियों और महाकाव्यों के बारे में कोई भी राय रखें पर भारतीय जनमानस और सत्ता वर्ग आज भी उन्हीं के अनुसार व्यवहार करता दिखाई देता है। समाज में निरन्तर बढ़ती जातीय संघर्ष की घटनाएँ, जाति के आधार पर होने वाला उत्पीड़न इस बात का सबूत हैं। भारत में जाति-व्यवस्था के इतिहास और इसके विकास क्रम को समझना हमारे वर्तमान के लिए बहुत ज़रूरी है वरना हम अपने वर्तमान में बढ़ते इस जातीय संघर्ष को नहीं रोक पाएँगे। यह एक बड़ी चुनौती भी है। इतिहासकारों को इस मुद्दे को अपने हाथ में लेना ही होगा और जाति और वर्ण के वर्तमान और इतिहास को उसके वास्तविक रूप में ढूँढ़ कर निकालना ही होगा। जाति और वर्ण जो प्राय: एक ही अर्थ के द्योतक माने जाते हैं पर ये एक दूसरे के पर्याय नहीं… आगे पढ़ें
पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी समाज में पढ़ना और लिखना, तथा लिख-पढ़ कर रचना (साहित्य-लेखन), इन क्षेत्रों में सवर्ण पुरुषों का ही घोषित विशेषाधिकार रहा है। जब इस आरक्षित क्षेत्र में दलितों और स्त्रियों ने प्रवेश करना चाहा तो स्थापित स्वनामधन्य साहित्यकारों की ओर से यह प्रश्न आया कि स्त्रियों और दलितों पर पहले ही से लिखा जाता रहा है और दूसरा कि इन नए-नए लेखनी चलाने वालों की लिखंत में ऐसी क्या ख़ास बात है कि उसे साहित्य और इन्हें साहित्यकार की संज्ञा दी जा सके? इस प्रश्न के जवाब में दलितों और स्त्री साहित्यकारों ने यह कहा कि हमारे द्वारा लिखा गया साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है और आपके द्वारा लिखा गया साहित्य सहानूभूति का साहित्य है इसलिए हमारे द्वारा लिखा साहित्य आपके द्वारा लिखे साहित्य से भिन्न है और क्योंकि अनुभूति की प्रमाणिकता का परचम हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में पहले ही फहराया जा चुका था इसलिए सीधे-सीधे… आगे पढ़ें
दलित लेखन एक एसा विषय है जिस पर बिना बात किये नहीं रहा जा सकता है। भारत में सबसे अधिक किसी वर्ग पर अत्याचार हो रहे हैं वह है – दलित और पिछड़ा समाज। दलित किसी धर्म का हो सकता है जिसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता हो, जिसे न्याय पाने में कठिनाई आ रही हो। जब ऐसे समाज के रचनाकार अपनी क़लम से लिखेंगे तो जीवन की सच्चाई को लिखेंगे, न कि बनावटी और दिखावटी यथार्थ को प्रस्तुत करेंगे। वह जिए हुए सच को अपनी रचनाशीलता में नया आयाम देने का प्रयास करेंगे। ऐसे में उनका पूर्ववर्ती लेखन से भिन्न होगा। वह कल्पना की उड़ान की निजता नाम मात्र की होगी।
दलित कथा लेखन की परंपरा प्रेमचंद से अवश्य प्रारंभ होती है लेकिन दलित लेखकों द्वारा यह विधिवत परंपरा महीप सिंह द्वारा संपादित पत्रिका सारिका के 1982 से प्रारंभ होता है। किंतु इसके पूर्व चाँद पत्रिका का… आगे पढ़ें
भारतीय साहित्य की सभी भाषाओं में लगभग एक ही समय पर दलित साहित्य का सूत्रपात हुआ। अस्मितामूलक विमर्शों के दौर में, दलित साहित्य अस्मिता और अस्तित्व दोनों के संकट को जीवित अनुभव के रूप में प्रस्तुत करता है। जाति के प्रश्न पर सदियों से चली आती असमानताएँ भारतीय जन समाज में इस तरह विन्यस्त हैं कि एक बड़ा वर्ग हाशियाकृत उपस्थिति में जीवन जीने को विवश है। जातिवाद का सबसे भीषण संकट स्पर्श-जनित है। अस्पृश्यता एक ऐसा अभिशाप है जिससे मुक्ति के लिए सामाजिक संरचनाओं में व्यापक परिवर्तन अपेक्षित है। संवैधानिक व्यवस्था हर नागरिक के लिए बराबरी के अधिकार को सुनिश्चित करती है लेकिन सामाजिक संरचनाएँ भेदभाव को ख़त्म नहीं होने देतीं। सशक्तिकरण की अनेक तदबीरों में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। दलित साहित्य इसी आकांक्षा का मूर्तिमान रूप है।
आज़ादी के बाद(भी) और आज़ादी के बावजूद दलित-जीवन के अंधकारमय पृष्ठों से यातना और संघर्ष की इबारत… आगे पढ़ें
डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंधवी ने अपनी पुस्तक ‘भारत और हमारा समय’ में इस बात का उल्लेख किया है कि ‘भारत से बाहर मैंने कई अप्रवासी भारतीय देखें है। उनकी भारतीयता से बहुत गहरे तक प्रभावित भी हुआ। किन्तु यहाँ आकार बहुत दु:खद और दयनीय त्रासदी मुझे दिखाई देती है कि भारतवर्ष में ही कई प्रवासी अभारतीय हैं।’ उनकी चिंता भारतीय भाषाओं, विशेषत: संस्कृत और संस्कृति को लेकर थी। किन्तु उनके शब्द ‘भारत में प्रवासी अभारतीय’ बहुत कुछ कहते हैं। यदि भारतीयता भारत भूमि पर रहने वाले सभी लोगों की भावनाओं को समावेशित करके बनती है तो केवल वेद, पुराण आदि की परंपरा के निर्वाह पर ही ज़ोर क्यों है? इसमें कुरान, बाइबिल और त्रिपिटक की उपेक्षा क्यों है? क्या वर्ण-जाति-व्यवस्था और तदजनित ऊँच-नीच, अस्पृश्यता के रहते भारतीयता की किसी अवधारणा की कल्पना की जा सकती है? शायद नहीं, शायद नहीं, कदापि नहीं। इसी तरह सामप्रदायिक भेदभाव और घृणा के… आगे पढ़ें
दलित रचनाकारों की कहानियों में चित्रित दलित स्त्री और उसके सामाजिक परिवेश पर मैंने अपनी दृष्टि केन्द्रित रखी है। अनेक रचनाकार लेखन के माध्यम से युग की धड़कनों को रेखांकित कर रहे हैं। स्त्री इनके लेखन में कहीं केन्द्र में है व कहीं हाशिए पर।
वर्णवादी कुव्यवस्था के कारण समाज के सबसे निचले पायदान पर पड़ी दलित स्त्री की अति दयनीय यथार्थ स्थिति का चित्रण तो इन्होंने किया ही है पर इनकी दृष्टि केवल चित्रण तक ही सीमित नहीं रही है, इस विषमता मूलक स्थिति के लिए उत्तरदायी कारकों की भी इन्होंने अच्छी पड़ताल की है। विषमतामूलक स्थितियों के लिए उत्तरदायी शक्तियों को पहचान उनके विरुद्ध दलित जन में चेतना जागृत कर उन्हें संगठित हो कर समता के लिए संघर्ष करने का आह्वान इनकी रचनाओं में मिलता है।
स्त्री समाज की मूलभूत ईकाई है, पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री विशेषकर दलित स्त्री जाति व पितृसत्ता रूपी दोहरे अभिशापों… आगे पढ़ें
(गुजराती साहित्य के संदर्भ में)
अस्पृश्यता (UNTOUCHABILITY) को आज रोग बना दिया गया है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत इस बात पर विकास के नाम पर पिछडेपन में जा रहा है। कहते हैं कि भारत इक्किसवीं सदी में पहुँच चुका है। ग़लत, भारत आज भी पुरानी सदी में ही है। विकास मात्र भौतिकता का हो लेकिन समाज के बाक़ी हिस्सों का न हो तो उसे विकास नहीं कहा जाता। समाज के सारे अंगों का जिस दिन विकास होगा तभी भारत का सच्चा विकास होगा।
गाँधीजी ने कहा था कि – "अस्पृश्यता का प्रचलन मेरे लिए असहनीय है। मैं इसे क़तई पसंद नहीं करता… अस्पृश्यता की प्रथा को जड़ से ख़त्म कर देना चाहिए।" अस्पृश्यता हिन्दु धर्म में ही वर्ग विभाजन का काम करती है। फिर भी जड़ बनी मानसिकता के चलते हिन्दु ही हिन्दु का दुश्मन हो, उस तरह का व्यवहार किया जाता है, निम्न वर्ण… आगे पढ़ें
दलित साहित्य!!!
क्या है दलित साहित्य? ... सबसे पहले, बहुत पहले; जब मैंने यह शब्द-युग्म पहली बार सुना था तब मन में यह विचार कौंधा था कि "दलित साहित्य" नामकरण कहीं ऐसे साहित्य के लिए तो नहीं है कि जिसे साहित्य-जगत में कुछ कमतर माना गया हो या कि फिर जैसे प्राचीन साहित्याचार्यों ने साहित्य के जो विभिन्न भेद किये थे– उत्तम (ध्वनि काव्य), मध्यम (गुणीभूत व्यंग्य काव्य) और अधम (चित्र काव्य); तो आज के युग में कहीं ऐसा कोई भेद तो नहीं है यह दलित साहित्य। (क्योंकि तब साहित्य के किसी भाग के किसी जाति-समुदाय आधारित नामकरण की स्थिति मेरे मस्तिष्क में किंचित में भी नहीं आई थी। ) ...ख़ैर! थोड़ा अध्ययन करने पर यह भाव निर्मूल हो गया, संदेह तिरोहित हो गया।
क्या है दलित साहित्य? क्या वह साहित्य दलित साहित्य है जो तथाकथित रूप से दलित कहे जाने वाले समुदाय के किसी व्यक्ति/किन्हीं व्यक्तियों द्वारा… आगे पढ़ें
तेजेन्द्र शर्मा बहुमुखी पप्रतिभा के साहित्यकार हैं। प्रवासी कहानियों में उनका कोई तोड़ नहीं है। कहानियों की प्रस्तुति इतनी मार्मिक और शानदार करते हैं कि लगता है कोई फ़िल्म चल रही है। बहुत कम लोग जानते हैं कि कविता तेजेन्द्र शर्मा की प्रिय विधा है। वह जिस मन से कविताएँ और ग़ज़लें लिखते हैं उसी मन से उसे पढ़ते और गाते भी हैं। तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं पर पर कुछ लिखूँ उससे पहले एक कहानी सुनाती हूँ। 'बात उन दिनों की है जिन दिनों हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर बंगला के अप्रतिम कथाकार शरत चंद्र की जीवनी 'आवारा मसीहा' लिख रहे थे। उन्हीं दिनों शरतचंद से मिलने के लिए जब वह बंगाल पहुँचे तो पता चला कि, आजकल शरतचंद किसी वेश्यालय में रह रहे हैं। अपने प्रिय रचनाकार की इस घटना ने विष्णु जी को अचंभित किया। वह जानते थे शरत चंद महान और लोकप्रिय साहित्यकार हैं… आगे पढ़ें
हिन्दी भाषा साहित्य में कथाकार श्री तेजेन्द्र शर्मा की पहचान विश्व-व्यापी है। उनकी जीवन-यात्रा के समान ही कहानियों की यात्रा ने "जितनी ज़मीं उन्हें मिली, उतना आसमां छुआ है”। वैसे तो गीत लिखे जायें, कविता, या कहानी लेखक की संवेदनाओं की झलक उनमें व्याप्त होती है।
लेखक को एक व्यक्ति की भूमिका में देखने का अवसर मुझे वर्ष 2018 में मिला जब मैं पारिवारिक यात्रा पर लंदन (यू.के.) गई। मैंने तेजेन्द्र जी के दो कहानी संग्रह, ग़ौरतलब कहानियाँ और बेघर आँखें, भारत में पढ़े थे। लंदन के नेहरू सेन्टर में एक साहित्यिक सम्मेलन में आदरणीय से भेंट हुई। वे अपने किरदार में भी उतने ही सच्चे दिखे जितना वो अपने लेखन में होते हैं। किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार से जिस तरह मिलते हैं वैसे ही एक नये उभरते हुए रचनाकार के प्रति आदर/स्नेह भाव रखते हैं। तेजेन्द्र जी ने मुझे कथा यू.के. के एक आयोजन में रचना पाठ हेतु… आगे पढ़ें
आज सौ वर्षों से अधिक की हो चुकी हिंदी कहानी ने अपनी इस विकास-यात्रा में विभिन्न आन्दोलनों और विमर्शों से गुज़रते हुए परिवर्तन के विविध पड़ावों को पार किया है। इस कालखण्ड में हिंदी कहानी युद्ध के मैदानों से सड़कों, सड़कों से घरों और घरों में रसोई से लेकर शयनकक्ष तक पहुँची है। सरल शब्दों में कहें तो हिंदी कहानी के विषयों का फलक इन सौ वर्षों में निरंतर रूप से विस्तार को प्राप्त हुआ है; और तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ भी अपने में इसी विस्तार के एक बड़े हिस्से को समेटे हुए हैं।
1980 में ‘प्रतिबिम्ब’ नामक कहानी से अपने कथा-लेखन का आग़ाज़ करने वाले तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में समय के साथ कथ्य के स्तर पर व्यापक परिवर्तन दिखाई देते हैं। देखा जाए तो तेजेंद्र शर्मा के समग्र कथा-साहित्य के विषयों के तीन स्रोत प्रतीत होते हैं। एक, जो खुराक जीवन से उन्हें मिली यानी जो… आगे पढ़ें
बदलते समय के परिदृश्य में हिंदी कथा साहित्य का क्षेत्र भी बदला है और आज हम सभी इस बदलाव को पूरी तरह से न सही परंतु आंशिक रूप से थोड़ा और अधिक स्वीकार कर चुके हैं या यूँ कहें कि हम स्वीकार कर रहे हैं।
प्रश्न यह है कि किस स्वीकारोक्ति की बात हो रही है? तो उत्तर है कि भारत से इतर रचे जाने वाले साहित्य की।
प्रत्येक देश और उस देश में स्थित समाज का अपना कोई न कोई महत्व होता है। वह महत्व सामाजिक क्षेत्र का भी हो सकता है, आर्थिक क्षेत्र का भी और राजनैतिक क्षेत्र का भी हो सकता है और सांस्कृतिक क्षेत्र का भी।
परंतु हर वह देश प्रत्येक व्यक्ति के लिये महत्वपूर्ण एवं सुखद अनुभूति प्रदान करनेवाला होता है, जहाँ उसके नागरिक सुखी एवं स्वतंत्र रूप से निवास कर सकें। वह देश एवं उसका समाज तभी अपने नागरिकों के लिये गौरव… आगे पढ़ें
समकालीन प्रवासी कथा साहित्यकारों में तेजेन्द्र शर्मा का नाम चर्चित कहानीकारों में से है। प्रवासी साहित्यकार अपनी अन्वेषणीय व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से न सिर्फ़ भारतीयों बल्कि पश्चिमी संस्कृति से जुड़े लोगों की वेदनाओं और पीड़ाओं को महसूस करके, नई-नई कथाओं का सृजन कर रहे हैं। इससे कथा संसार को बहुत विस्तार मिला है।
जो भारतीय विदेशों में नौकरियाँ करने जाते हैं वे अपने परिवेश और आत्मीय संबंधों से दूर रहकर एक नई दुनिया बसाते हैं। उनके लिए वहाँ की संस्कृति, स्थितियों-परिस्थितियों और लोगों के साथ तारतम्य स्थापित करना आसान नहीं होता है। जिसकी वज़ह से अनगिनत द्वंद्वों-अंतरद्वंद्वों से उनका सामना होता है और बहुत-सी समस्याएँ सामने आती हैं जिनको एक उत्कृष्ट साहित्यकार अपनी सूक्ष्म दृष्टि से पकड़ कर कहानियों या कविताओं का रूप देता है।
अगर हम तेजेंद्र शर्मा जी की कहानियों की बात करें तो उनका अन्वेष्णात्मक दृष्टिकोण ही उनकी कहानियों को विषयगत विविधता देता… आगे पढ़ें
हमें अपने जीवन कला, संस्कृति, साहित्य, रंगमंच आदि के क्षेत्रों में कुछ ऐसे व्यक्तित्व मिलते हैं जिन्हें हम चलती फिरती संस्था कह देते हैं। ये लोग अपनी अद्भुत प्रतिभा से हमें प्रभावित करते रहते हैं। ब्रिटेन के साहित्य एवं समाज से जुड़े कथाकार तेजेन्द्र शर्मा एक ऐसी ही शख़्सियत हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि अभिमन्यु अनंत के बाद प्रवासी साहित्य का सबसे पहचाना नाम तेजेन्द्र शर्मा ही है।
तेजेन्द्र शर्मा किसी एक विधा से जुड़े व्यक्ति का नाम नहीं है। वे कहानीकार, कवि, ग़ज़लकार, मंच अभिनेता-निर्देशक, सिनेमा कलाकार, टीवी सीरियल लेखक, रेडियो पत्रकार, संपादक, मंच संचालक होने के साथ साथ ’कथा यूके’ संस्था के महासचिव भी हैं। हिन्दी भाषा और साहित्य को ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स एवं हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में ले जाने का श्रेय हम सीधे-सीधे तेजेन्द्र शर्मा को दे सकते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा ब्रिटेन के एक अकेले कथाकार हैं जिनके लेखन… आगे पढ़ें
मनुष्य जन्म व्यक्ति को मिला एक अनमोल वरदान है। जीवलोक की अनेक लक्ष योनियों से गुज़रकर मनुष्य जन्म मिलता है। मनुष्य की विशेषता यह है कि वह परिवार बनाकर रहता है। उसका परिवार उसके जीवन की ऊर्जादायिनी शक्ति होती है। परिवार नामक शक्ति की सहायता से ही वह जीवन में आनेवाली असंख्य बाधाओं का हँसकर सामना करते हुए उन पर विजय प्राप्त करता है। माँ, बाप, पति, पत्नी, बेटा, बेटी, भाई, बहन आदि अनेक सदस्यों से परिवार नामक इकाई बनती है। परिवार से ही समाज बनता है। इस समाज को आगे बढ़ानेवाली संस्था के रूप में विवाह संस्था सर्व प्रचलित है। वैवाहिक संस्कार से ही दो अपरिचित स्त्री और पुरुष प्रेम के बंधन में बँधकर अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं। विश्वास की डोर थामे दो अपरिचित स्त्री-पुरुष आजीवन एक-दूसरे का सुख-दुःख में साथ देते हुए प्रेमपूर्वक जीवन जीते हैं। उनके जवीन की नाव विश्वास के भरोसे ही… आगे पढ़ें
विश्व में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया बहुत पहले शुरू हो चुकी थी, जिसके तीन चरण देखे जा सकते हैं लेकिन यहाँ विशेषतः अन्तिम चरण अर्थात् 1990 के बाद के भूमंडलीकरण एवं इसकी स्थिति को समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसी वैश्विक परिघटना है जो वैश्विक परिदृश्य पर आधारित है। समस्त विश्व की अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण भूमंडलीकरण का आधारभूत तत्व है, जिसमें माल, सेवा, वित्त, सूचनाएँ संस्कृतियाँ सभी कुछ परस्पर देशों में अबाधित रूप से प्रवाहित होती हैं। इसके अंतर्गत आर्थिक गतिविधियाँ स्वतंत्र बाज़ार के नियमों से संचालित होती हैं और बाज़ार का महत्त्व बढ़ने लगता है। परिणाम स्वरूप कॉरपोरेट जगत के अधिकार क्षेत्रों का विस्तार होने लगता है।
दरअसल वैश्वीकरण का आधार ही बाज़ार और उपभोक्तावाद है जो विश्व की स्थानीय एवं सांस्कृतिक भिन्नता को एक रंग में रँगना चाहती है। यदि कहें तो भूमंडलीकरण एक ऐसी आँधी है जिसने तमाम विश्व की अस्मिताओं के समक्ष उनके अस्तित्व… आगे पढ़ें
वरिष्ठ साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा के कृतित्व पर लिखना, चुनौती भरा काम है। एक ऐसा साहित्यकार जो भारत में रहते हुए वैश्विक साहित्य रच रहा था और अब वर्षों से विदेश में रहते हुए वैश्विक साहित्य के साथ-साथ भारतीय संस्कृति पर भी लिख रहा है। जिसकी हर कहानी नया विषय, नया थीम लिए होती है। जो यह मानता है कि जब तक कुछ नया कहने को ना हो, नहीं लिखना चाहिए! यानी हर बार कुछ नया रचें! नयेपन की ललक के बावजूद शर्मा जी की कहानियों में मौत, स्त्री विमर्श और मानवीय संवेदनाएँ स्थायी चरित्र के रूप में विद्यमान रहते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा की अब तक प्रकाशित लगभग अस्सी-ब्यासी कहानियों में अनेक बार मौत का चित्रण हुआ है परन्तु हर बार मौत अलग-अलग चरित्रों में, अलग सामाजिक स्तर में और बिल्कुल पृथक अंदाज़ में आती है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि शब्दों के माध्यम से चरित्र की मौत हुई… आगे पढ़ें
विश्व रंग, भोपाल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में
सुषम जी और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों से
सम्मान ग्रहण करते हुए
जिंदगी को गूंगा करता
मौत को वाचाल
वक्त
क्यों
मुझसे, तुमसे
बड़ा हो जाता है - सुषम बेदी
मेरी पुस्तक ‘प्रवासी लेखन : नयी जमीन : नया आसमान’ की पांडुलिपि तैयार थी। पुस्तक की भूमिका किसी वरिष्ठ लेखक से लिखवाने के अनुरोध के लिए विचार कर रहा था। प्रवासी साहित्य में सुषम बेदी जी के योगदान को देखते हुए लगा वही इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहेंगी। ब्रिटेन में जल्दी ही पुस्तक का लोकार्पण होना था। मैं संकोच में था! क्या वें इतनी जल्दी लिख पाएँगी! मैं उन दिनों फीजी के भारतीय हाई कमीशन में काम कर रहा था। वहाँ से मैने पुस्तक की पांडुलिपि के साथ एक मेल भेजा जिसमें मैंने सुषम बेदी जी से पुस्तक की भूमिका लिखने का अनुरोध किया। दो दिन बाद मेरे पास सुषम जी… आगे पढ़ें
सन्दर्भ : कितने-कितने अतीत
किसी भी साहित्यकार के लिए उसका देशकाल भौगोलिक जगत या समय से निश्चित नहीं होता। निश्चित होता है मानवीय संवेदना के ग्राफ से जिसके पैमाने हर व्यक्ति के लिए अपने-अपने होते हैं लेकिन अपने मूल रूप में वह निज से मुक्त होकर व्यापक मनुष्यता से जुड़े होते हैं। सुषम बेदी की कहानियाँ बार-बार इसी सत्य का एहसास कराती हैं। इन कहानियों के केंद्र में परिस्थितियाँ या जीवन-स्थितियाँ छोटी-छोटी हैं यानी हमारी रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली असंख्य स्थितियाँ जो अक्सर हमारी नज़र से छूट जाती हैं या जिनको कभी हमने इतना महत्व नहीं दिया कि वह साहित्य के माध्यम से मानवीय सभ्यता के संकट को निर्देशित कर सकें। सुषम जी अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इन्हीं जीवन स्थितियों को अपने साहित्य में पुनर्जीवित करती हैं और बड़े धैर्य के साथ छोटे-छोटे ब्योरे, छोटे-छोटे प्रसंग जीवन व्यापी प्रश्नों को हमारे समक्ष उपस्थित कर देते… आगे पढ़ें