जाने क्यों और कैसे
रोज़ ही अपने को
कटघरे में खड़ा पाती,
वही वकील,
वही जज,
और वही
बेतुके सवाल होते,
मेरे पास
न कोई सबूत
और न गवाह होते,
कुछ देर छटपटा कर
चुप हो जाती,
मेरी चुप्पी
मुझे गुनहगार ठहराती,
वकील और जज
दोनों हाथ मिलाते,
मैं थककर लौट आती
अपने घर को समेटने में
फिर से लग जाती . . .!
सिलसिला चलता रहा . . .
फिर एक दिन
न जाने क्या हुआ
बहुत थक गई थी शायद . . .
ज़िन्दगी से नहीं,
उसकी कचहरी से,
सोचा—
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो . . .!
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया,
हर काम
डंके की चोट पर
आरंभ कर दिया,
मैं सही करती रही
और वही करती रही
जो मन भाया,
और वक़्त . . .
वह मेरी गवाही
देता चला गया . . .!!