विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

जाने क्यों और कैसे
रोज़ ही अपने को
कटघरे में खड़ा पाती, 
वही वकील, 
वही जज, 
और वही 
बेतुके सवाल होते, 
मेरे पास
न कोई सबूत
और न गवाह होते, 
कुछ देर छटपटा कर
चुप हो जाती, 
मेरी चुप्पी 
मुझे गुनहगार ठहराती, 
वकील और जज
दोनों हाथ मिलाते, 
मैं थककर लौट आती
अपने घर को समेटने में
फिर से लग जाती . . .! 
 
सिलसिला चलता रहा . . . 
फिर एक दिन 
न जाने क्या हुआ
बहुत थक गई थी शायद . . .
ज़िन्दगी से नहीं, 
उसकी कचहरी से, 
सोचा—
यदि मैं कटघरे में खड़े होने से
इनकार कर दूँ तो . . .! 
बस तुरन्त
अपने को साबित करना
बंद कर दिया, 
हर काम
डंके की चोट पर
आरंभ कर दिया, 
मैं सही करती रही
और वही करती रही 
जो मन भाया, 
और वक़्त . . . 
वह मेरी गवाही
देता चला गया . . .!! 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ