विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

सूखे पत्ते

कहानी | सतीश सेठी

एक लम्बे अरसे के बाद विदेश से रघुबीर अपने शहर वापिस लौटा। बहुत उत्सुक था अपनी भूली-बिसरी यादों को फिर से जीने के लिए। जब वो अपने शहर टैक्सी द्वारा अपने घर पहुँचा तो रात बहुत हो चुकी थी। माता–पिता का स्वर्गवास हुए तो एक अरसा हो चुका था और अब घर में बड़ी बहन रहती थी। दरवाज़ा खटखटाया, बड़ी बहन ने दरवाज़ा खोला और रघुबीर को घर के अन्दर ले गई । रघुबीर को उसके पुराने कमरे में ठहराया गया जहाँ उसने अपना सारा सामान टिका दिया। लम्बा हवाई सफ़र फिर रेलगाड़ी से रेलवे स्टेशन और फिर टैक्सी से घर तक का सफ़र, रघुबीर बहुत थक चुका था। हाथ-मुँह धो के थोड़ी देर आराम करने के लिए रघुबीर बिस्तर पे लेट गया। आँखें आधी सी बन्द हुईं ही थी, उसे आभास हुआ जैसे किसी ने पुकारा हो, धीरे से सर के बालों को सहलाते पूछा, “सफ़र कैसा रहा तुम्हारा। बड़ी ही देर बाद आए हो अपने घर वापिस।” इन्हीं ख़्यालों में खोया था, अचानक आवाज़ आई—खाना लग गया है, जल्दी से आ जाओ सभी इन्तज़ार कर रहे हैं। मन में बरबस ही ख़्याल आया, मेरा इन्तज़ार करने वाली जो मेरे घर पहुँचने से पहले घर की दहलीज़ पे आ खड़ी होती थी वो तो कब की इन्तज़ार से मुक्त हो चुकी। अब कौन इन्तज़ार करता है मेरा उस की तरह?

खाने पे सभी परिवारजनों से बातचीत हुई। इधर–उधर की बातें पड़ोस की बातें और कुछ रिश्तेदारों की बातें चल रहीं थीं मगर थकान से चूर रघुबीर को ज़्यादा कुछ समझ नहीं आ रहा था। खाना खाते-खाते नींद से भरी आँखें बंद हुई जा रहीं थी। रघुबीर कमरे में जाते ही बिस्तर पे लेट गया ना जाने कब उसे गहरी नींद आ गयी। इतनी गहरी नींद मुद्दत के बाद आई थी रघुबीर को और पता ही ना चला कब सुबह हो गई।

सुबह जल्दी तैयार हो कर रघुबीर बड़ी उत्सुकता से घर से पैदल ही निकाल पड़ा और अपना गली मुहल्ला घूमने लगा। पूरे पंद्रह वर्ष बाद विदेश से लौटा था। बहुत सी यादें , पुराने क़िस्से मन में तरंगों की तरह उठ रहे थे।

पड़ोस में रहने वाली वो बज़ुर्ग औरत जो हमेशा सफ़ेद कपड़े पहनती, सर पे मोतिया रंग की सफ़ेद कढ़ाई वाली चुनरी ओढ़े रहती और सर्दी के मौसम में ऊपर से ग़र्म हल्का आसमानी रंग का शॉल भी ओढ़ लेती थी। गोरा रंग ऊँचा क़द सब उसे दादी कहते थे। रघुबीर दादी को अक़्सर याद करता रहता और सोचता कि उससे एक दिन ज़रूर मिलेगा। मुहल्ले के सभी बच्चे जब उन्हें प्रेम से दादी माँ कह के बुलाते तो वो बड़ी प्रसन्न होती और वो भी सब से बड़ा ही दुलार करती थी। दादी माँ कहते ही वो कितनी दुआयें देती सर पे हाथ फ़ेर आशीर्वाद देती। दादी को मिलने रघुबीर उनके घर पहुँचा तो पता चला दादी पिछले वर्ष स्वर्ग सिधार गई थी। रघुबीर बड़ा दुखी हुआ और उसका का दिल बहुत उदास हो गया। सोच रहा था काश वो एक साल पहले आया होता तो दादी का आशीर्वाद मिल जाता। सभी बच्चे प्रेम से मुहल्ले में एक कड़कती आवाज़ वाली औरत को सरदारनी मौसी और उसके भाई को सरदार मामा कहते थे, पता चला वो भी पिछले वर्ष स्वर्ग सिधार गए थे। कितने ही बचपन के दोस्त शहर छोड़ कहीं और जा बसे थे। बहुत कुछ बदल चुका था।

रघुबीर टैक्सी में सारा शहर घूमने के लिए निकल पड़ा। कुछ बचपन के दोस्तों से रास्ते में मुलाक़ात करते वो अपने स्कूल पहुँच गया। पुराना लोहे का बड़ा सा दरवाज़ा जिस पर स्कूल का नाम लिखा था, देख के रघुबीर बड़ा खुश हुआ। प्रिन्सिपल साहिब से इजाज़त ले कर रघुबीर सारे स्कूल में घूमा आया मगर उसे कोई पुराना अध्यापक नहीं मिला। सब सेवा निवृत हो चुके थे। उसे तो स्कूल छोड़े अरसा हो चुका था और वक़्त बहुत आगे निकल चुका था। फिर टैक्सी में बैठ वो पुरानी हवेली की ओर निकल पड़ा जो स्कूल से थोड़ा आगे थी। रघुबीर ने जब नज़र उस ओर दौड़ाई जहाँ पुरानी हवेली हुआ करती थी कभी, तो देखा वहाँ कितने ही छोटे-छोटे घर बन चुके थे और हवेली का निशाँ तक नहीं बचा था। कितना कुछ बदल गया था उसे लगा उस कि यादों का सारा ख़ज़ाना जैसे खो गया हो।

शहर में जगह-जगह घूमा मगर उसे कुछ भी वैसा ना लगा जो पहले जैसा हो। कुछ पुराने दोस्त मिले, पुरानी बातें बहुत हुईं लेकिन सब की ज़िन्दगी में ज़िम्मेदारियाँ बढ़ चुकी थीं कुछ परेशान तो कुछ बहुत समृद्ध और व्यस्त हो चुके थे। रघुबीर को लगा कि यहाँ सब बदल गया, किसी को किसी का इन्तज़ार नहीं सभी अपनी दुनियाँ में व्यस्त हो चुके थे। सोच रहा था कि काश वो कभी शहर छोड़ कर ना जाता। उसे बहुत मायूसी हुई, लगा उसकी यादों का पुराना ख़ज़ाना ज़मीन में गहरा गड़ गया है। उसे लगा जैसे वो गहरी नींद से वर्षों बाद आज उठा हो और सब कुछ बदल गया हो।

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