विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

पगड़ी का दार्शनिक चिंतन 

रचना समीक्षा | डॉ. पद्मावती

कहानी: पगड़ी 
लेखक: सुमन कुमार घई 
 

हम हर दिन कई कहानियाँ सुनते है, कई कहानियाँ पढ़ते हैं और अगर रचनाकार हैं तो कई कहानियाँ लिखते भी हैं। कुछ कहानियाँ दिल को छू जाती हैं, कुछ से हम अभिभूत हो जाते हैं, कुछ रुला देती हैं लेकिन कुछ एक-आध कहानियाँ हमें उनके बारे में लिखने के लिए विवश कर देती है। ऐसी ही एक कहानी 15 जनवरी 2022 में वातायन-यूके, हिंदी राइटरर्स गिल्ड, कैनेडा और वैश्विक हिंदी परिवार के मंच पर आयोजित ‘दो देश-दो कहानियाँ’ के अंतर्गत सुनी थी जिसने उसकी समीक्षा लिखने को मजबूर कर दिया। कहानी का नाम है ‘पगड़ी’ और लेखक हैं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार और संपादक सुमन कुमार घई जो पिछले कई दशकों से कैनेडा की भूमि में हिंदी की अनवरत सेवा कर रहे हैं। 

समुचित शीर्षक, बोधगम्य भाषा, सरल शब्दावली, संवेगों का धारा प्रवाह और सुगठित कथानक . . . सभी अत्यंत सराहनीय और कथा को रोचक बनाने में सक्षम। उसके लिए तो सर्वप्रथम लेखक की रचनाशीलता को साधुवाद। 

कथा विदेशी पृष्ठभूमि में लिखी गई है। प्रवासी भारतीय होने के कारण लेखक भारत की मूल आत्मा से भली-भाँति परिचित है। कथा की मूल कड़ी है संस्कारों और इच्छाओं का अंतर्द्वंद्व। इस समीक्षा में इसी कारक का यथासंभव मनोवैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। 

कथा का आरंभ दारजी (हरभजन सिंह) की बैचेनी से होता है जहाँ वह नाश्ते के लिए नीचे न जाकर कमरे में ही रह जाते हैं और उनकी बहू उसके लिए खाना लेकर कमरे की ओर चल देती है। हरभजन नाश्ता कर पूरा कर लेते हैं, नीचे आकर अख़बार खोलकर बैठ जाते हैं और पढ़ने की औपचारिकता निभाने लगते हैं क्योंकि उनका मन कहीं और भटक रहा होता है। यहाँ उनके मन में चल रहे द्वंद्व से पाठक को उनके क्रिया-कलापों के द्वारा अवगत कराया जाता है जहाँ लेखक ने न संवादों का सहारा लिया है और न ही पात्र के आत्म कथन से ही स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है जो लेखक के स्तरीय रचना कौशल को दर्शाता है। कथा को गति मिलती है उस घटना के ज़िक्र से जहाँ गत शाम दारजी अपने जिगरी दोस्त बच्चन सिंह से उसके गैराज पर जाकर मिल आते हैं और वहाँ दोनों दोस्तों की वार्तालाप के दौरान बच्चन शरारती हाव-भाव से उन्हें स्ट्रिप डांस के बारे में जानकारी देता है जिसके मज़े वह हाल ही में लूट चुका होता है। और साथ ही साथ एक फड़कता हुआ मशवरा भी अपने यार पर छोड़ देता है कि जीवन में प्राण रहते हर व्यक्ति को कम से कम एक बार तो इस डांस का मज़ा अवश्य लूटना चाहिए। विदेशी संस्कारों की महक ओढ़े ताज़ा फ़लसफ़ा। न चाहते हुए भी दारजी इस फ़लसफ़े की चपेट में आ जाते हैं और मन में अवगुंठन पैदा हो जाती है। वे उद्विग्न हो जाते हैं और इस बैचेनी की परिणति स्ट्रिप बार के दरवाज़े पर जाकर होती है; जहाँ भरी दोपहर में वे अपनी बहू को यह कहकर निकल जाते हैं कि वे गुरुद्वारा जा रहे हैं। 

अंदर चारों ओर अँधेरा . . . वे एक कोने में जाकर बैठ जाते हैं . . . शराब और शबाब की महफ़िल सजी मिलती है . . .। काम वासना को उद्दीप्त करने की सभी सम्भावनाएँ उपलब्ध हैं . . . और फिर एक के बाद एक नृत्यांगनाएँ आती हैं और दर्शकों के सामने शनैः शनैः निर्वस्त्र होने लगती हैं। तीसरी लड़की, जो कि संयोग से भारतीय होती है, उस के आते ही दारजी में अपराध बोध जागृत हो जाता है . . . उनकी चेतना जग जाती है जिसके परिणाम स्वरूप उस लड़की में उन्हें अपनी माँ बहू बेटी पोती नज़र आने लगती है। वे शर्मसार हो जाते हैं . . . मन विकल हो जाता है। वे हाँफते हुए बाहर निकल आते हैं। हलक़ से उतरी शराब रंग दिखाने लगती है . . . पाँव लड़खडाने लगते हैं और उनकी पगड़ी नीचे गिर जाती है। पगड़ी का गिरना प्रतीकात्मक है जो उनके चरित्र की ओर इंगित करता है। बाहर खड़ा व्यक्ति उन्हें सँभालता है . . . ऐसी स्थिति में घर जाने के बजाय दारजी गुरुद्वारे जाना ही उचित समझते हैं। कहानी इस मोड़ पर आकर ख़त्म हो जाती है। 

देखा जाए तो अपने देश से मीलों दूर विदेश की धरती पर जीवन गुज़ार रहे हरभजन के लिए ‘अपने देश’ के प्रति लगाव सहज सामान्य ही है। दरअसल देश अर्थ ज़मीन के टुकड़े से नहीं बल्कि उससे पैदा हुए और जुड़े हर आदर्श और संस्कार से निर्मित ज्ञान और विवेक संपदा से होता है। और भारत भूमि तो ज्ञानभूमि है, तपोभूमि है। यहाँ की मिट्टी के कण-कण में संस्कार और आदर्श दबे हुए हैं। इस देश में जन्मे हर प्राणी को ये संस्कार थाती के तौर पर मिलते हैं। और ध्यातव्य है कि आदमी ग़लत नहीं होता, ग़लती आदमी से होती है। माना जाए तो हरभजन जी ने भी ग़लती की। इंद्रियों के विषय सामने आएँ, तो इंद्रियाँ विषय भोग की ओर दौड़ पड़ीं तृप्त होने को, बुद्धि सहायिका बनकर औचित्य का फ़लसफ़ा लेकर आई जिसने बार क्लब जाने के लिए बहू से झूठ भी बुलवाया। वहाँ दो विदेशी स्त्रियों को निर्वस्त्र होते देखा पर अपराध बोध न जागा लेकिन ‘भारतीय’ स्त्री को देखकर वे जाग गए। उनका विवेक जागृत हो गया क्योंकि वे ‘भारतीय’ स्त्री को नहीं, अपने आदर्श और संस्कारों को निर्वस्त्र होते हुए देख रहे थे। जब नीर क्षीर विवेक जागृत होता है, तभी ग़लती समझ में आती है और अपराध बोध जगता है। और विवेक को जागृत करने में चेतना में दबे हुए संस्कारों का ही हाथ होता है। फिसलन के इस बिंदू पर अपराध बोध का जागना सबसे बड़ी पात्रता मानी जा सकती है क्योंकि अगर अपराध बोध ही न जगे तो सुधार की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है। अपराध बोध आत्मग्लानि को जन्म देता है और तभी मनुष्य प्रायश्चित करने का संकल्प करता है। वही किया दारजी ने जब वे घर जाने के बदले गुरुद्वारे जाने का निर्णय लेते हैं। कहानी का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है जो अज्ञेय की कहानी ‘सेव और देव’ का स्मरण करा देती है जहाँ पुरातत्ववेत्ता प्रोफ़ेसर सैलानी बनकर शिमला की वादियों में घूमने आता है और वहाँ के निर्जन बीहड़ जंगल में जीर्ण-शीर्ण जर्जर अवस्था में उपेक्षित पड़े हुए एक मंदिर में अवस्थित माता के श्री विग्रह को चुरा लेने का निर्णय कर लेता है। पुरातत्ववेत्ता होने के कारण वह उस क़ीमती पत्थर का मूल्य जानता है और धन की लालसा में भगवान को चुराने का दुष्कर्म करने पर उतारू हो जाता है। यह वही प्रोफ़ेसर है जो इस बीहड़ जंगल में भी, जहाँ दूर-दूर तक किसी प्राणी की छाया तक नहीं होती, वहाँ पर भी मंदिर के अंदर पाँव रखने से पहले अपने जूते खोलकर प्रवेश करता है। यानी ये उसके संस्कार हैं जो ईश्वर की सर्वव्यापकता की पहचान रखते हैं लेकिन लालसा लोभ संवरण नहीं कर पाती। और वह अपराध कर बैठता है। लेकिन ऐन मौक़े एक ऐसी घटना घटती है जो उसके संस्कारों को झँझोड़ कर रख देती है जिससे उसका विवेक जाग जाता है। पश्चाताप में उसे अपराध बोध होता है और वह सँभल जाता है। वापस जाकर मूर्ति को यथा स्थान पर स्थापित कर जीवन भर की आत्मग्लानि से ख़ुद को बचा लेता है। यही स्थिति हरभजन के साथ भी होती है लेकिन कुछ परिवर्तन के साथ। उनका देश प्रेम उनके अंदर दबे हुए संस्कारों को बहिर्गत करने में उत्प्रेरक का काम करता है और पश्चाताप का कारण बनता है। स्वामी विवेकानन्द की एक पंक्ति यहाँ याद आती है जो उन्होंने एक बार युवाओं को उद्बोधन देते हुए कही थी कि, “भारत मर नहीं सकता, अगर भारत मर जाएगा तो पूरी दुनिया से आध्यात्मिकता और आदर्शों का लोप हो जाएगा”। 

मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि यह कहानी प्रवासी हिंदी साहित्य में लम्बे समय तक पढ़ी जाएगी क्योंकि लेखक ने फिर एक बार देश प्रेम की छतरी तले भारतीय आदर्श और संस्कारों को पुनः प्रतिष्ठित कर दिया है। कहानी की उत्कृष्ट परिणति के लिए लेखक को हार्दिक साधुवाद। 
 

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