विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

मेरे मन में बोझिल मंज़र
तेरे मन में गहरे साये 
फिर भी सुबह के होने पर 
हम दोनों ही तो मुस्काए
 
कुछ शब्दों ने व्यक्त किया, 
कुछ काव्य ने दोहराया, 
बाक़ी का घनघोर अँधेरा, 
अभिव्यक्ति से घबराया
 
तुम टूटे काँचों के शीशों में
अपना साया ढूँढ़ रहे हो
नासूरों से बहता ख़ून 
मरहम नहीं वह पाता है
 
बीते लम्हों के
अफ़सानों में जा-
एक बार फिर जम जाता है
 
मेरे मन की आशंकाएँ
गहरे बादल सी घिर आयी हैं 
बोझिल बादल भटक रहा है
बरसात नहीं कर पाता है
अपने मन के सूनेपन में
एक बार फिर खो जाता है
 
फिर भी शाम के ढलने पर 
हम दोनों ही तो घर आए
बुझते दिए में लौ लगा
एक बार फिर मुस्काए . . .

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