विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

जाने की उन्हें ज़िद थी, वो मुलाक़ात अधूरी रह गई
होठों तक आयी तो मगर वो बात अधूरी रह गई। 
 
साथ कुछ पल मिले, मगर वक़्त का तकाज़ा रहा
गए ज़माने में किया, इक रात का बिसरा वादा रहा
चाँदनी कुछ मद्धम पड़ी तो मगर रात अधूरी रह गई। 
होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई। 
 
आगे बढ़ते जाने के उसूल कुछ हैं दुनियादारी के
घिर रहना बीते यादों में हैं विपरीत समझदारी के
संग मरने की थी क़सम ली साथ, अधूरी रह गई। 
होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई। 
 
बहार कभी जहाँ खिले, दो फूल को वो तरसे चमन
नैनों में जिनके थे बसे, उन्हें देखने ये तरसे नयन
पलकें पुर नम हो रहीं पर बरसात अधूरी रह गई। 
होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई। 
 
अक़्सर चाहत के फ़साने क़िस्मत को न मंज़ूर होते हैं
मंज़िल के ख़्वाब दो घायल क़दमों से मजबूर होते हैं
सुर्ख़ जोड़ी में सजी वधू पर बारात अधूरी रह गई। 
होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ