विशेषांक: फीजी का हिन्दी साहित्य

फीजी का हिन्दी साहित्य

फीजी विशेषांक का परिचय


हिन्दी भाषा का प्रयोग और लेखन पूरे विश्व में बहुत लंबे समय से होता रहा है। हर देश का अपना एक लेखन इतिहास है और हर देश में हिन्दी की अपनी एक स्थिति है। ’प्रवासी हिन्दी साहित्य’ के अंतर्गत हम सभी प्रवासी लेखकों के बारे में कुछ मुख्य विशेषताओं के माध्यम से कुछ चर्चा तो कर सकते हैं पर हमें यह भी याद रखना होगा कि हर देश की स्थितियाँ, भारतीय लोगों की भिन्न संख्या और भिन्न पृष्ठभूमियाँ होने के कारण वहाँ का साहित्य दूसरे देशों से कुछ भिन्नता रखता है। समालोचकों और सुधि पाठकों का यह दायित्व है कि वे हर देश के साहित्य को, वहाँ के हिन्दी भाषा के इतिहास और वर्तमान स्थिति को टटोलें। 

गिरमिटिया साहित्य की चर्चा बहुत समय से होती रही है। मॉरिशस के अभिमन्यु अनंत जी के लेखन पर अनेक शोध कार्य भी हो रहे हैं। मॉरिशस के साथ ही हिन्दी का साहित्य फीजी, सूरीनाम, गयाना, ट्रिनिडाड आदि में भी लिखा जाता रहा है। मानव जीवन के इतिहास की दीवार पर गिरमिटिया का जीवन अत्याचारों की ठुँकी कील है जिस से धोखे से लाए गए और कोड़ों की मार के बल पर प्रशासित हमारे पुरखों का खून रिसता रहा है। बिहार, अवध के प्रांतों से लाए गए इन पुरखों ने वहीं अपनी भाषा और संस्कारों के बल पर अपनी एक दुनिया बनाई और इन देशों को अपने श्रम से हरा-भरा किया। उन्होंने रामायण बाँची, आल्हा गाए, कबीर, मीरा, सूर को याद किया और अपनी भावी पीढ़ियों को ये संस्कार दिए। उनके संघर्षों और प्रयत्नों से उस एग्रीमेंट को समाप्त हुए और स्थितियाँ बदले अब बहुत समय हो चुका है।

यद्यपि ऊपर से देखने पर सारा गिरमिटिया जीवन और इन देशों में लेखन एक जैसा लगता है पर ध्यान से यहाँ के लेखकों को पढ़ें तो इनकी भिन्नता भी दिखाई देती है। मॉरिशस में बिहार मूल के लोग अधिक गए तो फीजी में बस्ती, अवध, गौंडा, फ़ैजाबाद, सुल्तानपुर और आज़मगढ़ से अधिक लोग ले जाए गए। इनकी भाषा अवधी रही जिसका प्रभाव यह रहा कि आज भी उनकी हिन्दी में अवधी का प्रभाव अधिक है। इस हिन्दी को वे ’फीजी हिन्दी’ या ’फीजी बात’ कहते हैं। फीजी के हिन्दी साहित्य के इस विशेषांक में हमने कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया है पर हमारी चेष्टा रही है कि हम इस देश की स्थिति, परिस्थिति और लोगों की मनोस्थिति का विवेचन करते हुए यहाँ के वरिष्ठ और समकालीन लेखकों को प्रस्तुत कर सकें। सन्‌ १८७९ से लेकर १९१६ तक लगभग ६०,००० भारतीय फीजी लाए गए थे। स्त्रियों-पुरुषों को अपने ’मास्टर’ की आज्ञा से अपने जीवन के काम करने होते थे, यहाँ तक की शादी भी ’मास्टर’ की अनुमति से होती थी। खेतों में कोल्हू के बैल की तरह कोड़े खाकर काम करने वाले ये लोग देर शाम रामायण और भजनों के सहारे अपने बिखरे साहस को जुटाते। १९१७ के बाद इस व्यवस्था को रोकने के प्रयास प्रारंभ हुए। पं. तोतराम सनाढ्य, पं. बनारसी दास चतुर्वेदी और श्री सी.एफ़. एन्ड्यूज़ के प्रयासों से जनवरी १, १९२० को यह व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त करके इन्हें “खुला” का नाम दिया गया और अपने पैसों पर भारत लौटने की स्वतंत्रता दी गई पर पैसे होते तो ये लौटते! धन के अभाव में इन्होंने वहीं रहना स्वीकार किया। अक्तूबर १०, १९७० को फीजी आज़ाद हुआ। फीजी इंडियन की संख्या तब लगभग ३७% बताई गई। दो बार हुए ’सैनिक कू’ के समय बहुत से भारतीयों को पलायन भी करना पड़ा पर आज भी वहाँ की जनसंख्या में लगभग ४० प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं। सरकार, व्यापार और व्यवहार के स्तर पर भारत के बाद हिंदी को मान्यता देने वाला दूसरा देश है फीजी।

हमारी चेष्टा रही है कि हम इस अंक में आपको फीजी के विशिष्ट इतिहास, हिन्दी लेखन और वर्तमान में हिन्दी की स्थिति के बारे में अधिक से अधिक सामग्री दें। अगर आप इस अंक को पढ़ने के बाद इस अंक में कुछ भी और जोड़ना चाहें तो आपका स्वागत है। हमारे विशेषांक अंतर्जाल पर होने के कारण हमें प्रकाशन के बाद भी इसमें सामग्री जोड़ने की स्वतंत्रता देते हैं। आशा है आप को इस विशेषांक के माध्यम से फीजी और हिन्दी साहित्य के लेखकों से जुड़ कर अच्छा लगेगा।
 

फीजी का हिन्दी साहित्य और संस्कृति – डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण जी से साक्षात्कार साक्षात्कारी– डॉ. शैलजा सक्सेना वीडियो के लिए क्लिक करें आगे पढ़ें
विदेशों में भारतवंशियों की प्रवासन की प्रक्रिया के कारण आज रामायण महाकाव्य का सांस्कृतिक महत्व और प्रभाव विश्व में विभिन्न कथाओं के माध्यम से फैला हुआ है। प्रवासी भारतीयों ने एक ओर जहाँ विदेश को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति की ध्वजा भी लहराई। भारत से इतर देश जैसे फीजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, कैनाडा आदि में अपनी-अपनी रामायण है, अपनी-अपनी कथाएँ हैं और अपने-अपने राम भी हैं। यह लेख फीजी में गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव और परंपरा पर आधारित है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बिछड़े इन गिरमिटिया मजदूरों ने अपना देश तो त्यागा परन्तु अपनी भाषिक परंपरा और सांस्कृतिक संपत्ति को कठिन काल में भी कायम रखा। भारतीय संस्कृति के ये महान साधक अपने स्वदेश की मिट्टी की महक और उर्जा अभी भी अपने माथे पर संजोए हुए हैं, और विदेशी परिवेश में राम नाम की माला जप… आगे पढ़ें
भारत से लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार किलोमीटर दूरी पर बसा देश फीजी प्रशांत महासागर का एक सुरम्य द्वीप है। क़रीबन नौ लाख की आबादी वाले इस देश में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। फीजी में भारतीयों का आगमन शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गन्ने के खेतों में मज़दूर के रूप में काम करने के लिए ब्रिटिश सत्ता के आदेश के अधीन सन 1879 से शुरू हुआ था। सन 1916 में इस प्रथा के बंद होने तक अर्थात 38 वर्षों में 85 हज़ार से अधिक भारतीय मज़दूर फीजी पहुँच चुके थे जो अधिकांशतः पश्चिम बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे एवं अवधी या भोजपुरी भाषा का प्रयोग करते थे। फीजी में हिंदी का उदय तथा विकास इन्हीं गिरमिट भारतीय मज़दूरों के माध्यम से हुआ था। फीजी में आज हिंदी के लिए जो ठोस ज़मीन पिछले 140 वर्षों में तैयार हुई, उसी के परिणामस्वरूप यह आज… आगे पढ़ें
आज पुन:स्मृति में आ गया बचपन में पढ़ा श्लोक, विद्या ददाति विनयं विनयाद याति पात्रताम"1जब अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के प्रवासी भवन में प्रोफेसर सुब्रमनी से मुलाकात का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके चेहरे की सौम्यता, विद्वता का तेज, उनके आंतरिक सौन्दर्य का परिचय अनायास ही दे रहे थे। भारतीय डायस्पोरा का प्रतिनिधित्व करता, फीजी हिंदी में आया उनका 1034 पृष्ठों का उपन्यास फीजी माँ: एक हज़ार की माँ  के भारत में लोकार्पण का शुभ अवसर था। उस अवसर पर उनकी पत्नी अंशु जी भी मौजूद थी, जो अपने मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्द सबसे घुलमिल गयी थी। भारतीय डायस्पोरा और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में,सुब्रमनी जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए, मैं, सुब्रमनी जी का साक्षात्कार लेना चाहती थी लेकिन समयाभाव के कारण ऐसा हो न सका। लेकिन उनकी प्रतिभा और विनम्रता मुझे उनके बारे में लिखने से रोक नहीं पायी। इस अवसर पर अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के अध्यक्ष श्री… आगे पढ़ें
कुछ पल होते हैं तन्हाई के मायूस मन फड़फड़ाता है  भीड़ में  कोई चिठ्ठी है बंद बोतल में  जिसे कोई नहीं मिला   बीच सागर में  ऐ मन! ज़रा सुनो  ज़िन्दगी एक स्वर्ण किताब है  ज़रा पढ़ कर तो देखो  कुछ दर्द हलके होंगे  मीठे पलों को चख कर तो देखो  दिल की हर धड़कन इक तार है  उसे मीठे मुस्कान से सिल कर तो देखो  कभी आँखों के नमी को  नीले बूंदों से मिला कर देखो  हर बार एक नई कहानी मिलेगी  कभी सागर की लहरों से  मिल कर तो देखो  आगे पढ़ें
पल भर में भय का बादल छाया जो बुन रही थी सपने कभी दरारें उनमें पड़ने लगीं आखिर मोड़ ऐसा क्यों आया? क़ुदरत की ये कैसी माया?   महामारी का वार है भारी टूटे हैं कुछ सपने ग़म नहीं जब करीब हैं अपने थोड़े ग़म भी हैं कहीं जब कुछ घर पहुँचे नहीं अपने।   रो रहे हैं सब कहीं मौत का तांडव हो रहा विनाश की भँवर में तड़प रही प्रकृति ना जाने कुसूर किसका है?   खून के आँसू रोती हूँ मैं जब पीड़ित रोगियों को देखती हूँ कभी कुंठा में सन जाती हूँ जब बेशर्मों को थूकते देखती हूँ जान-बूझकर रोग फैलाते देखती हूँ आखिर ये कैसा बैर है? वसुधैव कुटुम्बकम् को अपनाओ दोस्तों धर्म यही है तीर्थ यही है।   देर न हो जाए थोड़ी देर संभल जाओ आशा की किरण मिल जाएगी आज की उदासी कल किलकारी बन जाएगी ग़म की परछाई अस्थायी है थोड़ी… आगे पढ़ें
प्रवासी जीवन के अनुभवों को साझा करती रचनाधर्मिता हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है। मुख्यधारा का साहित्य उसे अनदेखा भी करता रहा है। अनेक प्रवासी रचनाकारों ने अपने संघर्ष, दुख-सुख और पहचान के प्रश्नों को इन रचनाओं में बखूबी उकेरा है। प्रो. सुब्रमनी रचित ‘डउका पुरान’ इसी कड़ी की एक महत्वपूर्ण रचना है। हिन्दी प्रवासी साहित्य विशेषज्ञ डॉ विमलेशकांति वर्मा के शब्दों में ‘भारत से हजारों मील दूर प्रवासी भारतीय किस प्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति करते है,1 उसकी एक बानगी प्रस्तुत करता है- डउका पुरान।   यह लेखक की अपने समय और समाज के प्रति निष्ठा है कि उन्होंने इस रचना को भाखा में लिखने का साहस किया। सुब्रमनी को यह लगता है कि अँग्रेजी भाषा में उनके चरित्र, स्थितियाँ और कथा शायद विश्वसनीयता का स्पर्श न कर सकें। आखिर अँग्रेजी का एक विख्यात प्रोफ़ेसर जिसके खाते में अँग्रेजी की अनेक पुस्तकें है, वो एक… आगे पढ़ें
जोगिन्द्र सिंह कँवल (1927-2017) फीजी के सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ लेखक माने जाते हैं। फीजी के हिंदी साहित्य जगत में श्री जोगिन्द्र सिंह कँवल एक युगांतर उपस्थित कर देनेवाले रचनाकार के रूप में अवतरित हुए। जोगिन्द्र सिंह कँवल का जन्म व शिक्षण पंजाब में हुआ था। आपने 1959 में फीजी के डी.ए.वी कॉलेज में शिक्षक के रूप में पदभार संभाला व बाद में 1960 में आपने खालसा कॉलेज में अध्यापन किया व 28 वर्षों तक वहाँ के प्रधानाचार्य रहे। स्वर्गीय जोगिंद्र सिंह कँवल को फीजी का एक प्रतिष्ठित शिक्षक तथा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक अमूल्य योगदानकर्ता के रूप में याद किया जाता है। आज भी कँवल जी अपनी रचनाओं के मार्फत जीवित हैं। पंजाबी और उर्दू भाषाओं का अधिकार होते हुए भी उन्होंने हिंदी में तीन काव्य संग्रह, चार उपन्यास, एक कहानी संग्रह, निबंध, आलेख, आलोचनाएँ आदि विविध विधाओं में लिखकर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। वे… आगे पढ़ें
‘फीजी माँ’ प्रो. सुब्रमनी की दूसरी औपन्यासिक कृति है जिसका प्रकाशन सन् 2018 में हुआ। यह 1026 पृष्ठों का एक बृहद नायिका प्रधान उपन्यास है जिसमें एक साधारण नारी बेदमती के अस्तित्व की खोज की कथा प्रस्तुत है। फीजी हिंदी प्रवासी भारतीयों द्वारा विकसित फीजी में हिंदी की नई भाषिक शैली है जो अवधी, भोजपुरी, फीजियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मिश्रण से बनी है। गिरमिट काल के दौरान फीजी ब्रिटिश सरकार के अधीन थी और उपनिवेशक प्रभाव के कारण हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों में अंग्रेजी, ई-तऊकई और देशज शब्दों का मिश्रण हुआ। फलस्वरूप इसकी प्रकृति और स्वरूप में परिवर्तन हुआ और यह एक धारा की ओर मुड़ने लगी जिससे यहाँ ‘फीजी हिंदी’ भाषा की उत्पत्ति हुई (जोगिन्द्र सिंह कंवल,1980, अ हंड्रेड इयर्स ऑफ़ हिंदी इन फीजी 1879-1979)। अतः हिंदी ने जैसा देश वैसा अपना वेश बनाया। इसकी साज-सज्जा तो बदली किंतु उसने अपने भाषिक संस्कार को सुरक्षित रखा। इसमें… आगे पढ़ें
साल उन्नीस सौ पैंसठ गन्ना कटाई के मौसम  सेठ के लड़कक सादी के दिनवा तय भय जिस दम  देखत सादिक चर्चा पूरे गाँव में होई गए  रही हफ्ता भर मौज लोग सब ख़ुशी मगन भाए।    नक्चान सादी के दिन गाँव में हलचल भारी  खुसी खुसी सब करे लगिन सादिक तैयारी चला नाउ फिर पियर-चाउर लै बटिस नउता  इधर सेठ गए टाउन लाइस ढेर के सउदा   अदमी काटें लकड़ी लई के टांगा आरी अउरतन करिन घर-आंगन के सफाई जारी करिन सफाई जारी अउर फिर बना मिठाई इम्लिक चटनी चटक वाला फिर भी दिहिन बनाई   फिर बना अदमी-अउरतन के झाप अलग से बीच में लागईन ऊँचा पर्दा घास-फूस के घास-फूस के बीच में बैठी एक दरबान इधर-उधर जो झाँकी तो ऊ पकड़ी कान   तेल्वान आईस तो बटुर गय पूरा गाँव पोतिन दूल्हाक तेल कई दफे सर से पाँव सर से पाँव आज दूल्हाक अइसन चमकायिन कनिकानी वाला चेहरा… आगे पढ़ें
‘मैं जग-सर में सरसिज सा फूल गया हूँ नित अपने ही मन के प्रतिकूल रहा है मैं चाह रहा लिखना अतीत की बातें पर सहसा कुछ थोड़ा सा भूल गया हूँ। मेरी अभिलाषा मिटकर धूल हुई है मेरी आशा मेरे प्रतिकूल हुई है मैं जीवन को अब तक पहचान न पाया जीवन में यह छोटी सी भूल हुई है।’  ये पंक्तियाँ फीजी के महान हिंदी सेवक पंडित कमला प्रसाद मिश्र की ‘पछतावा’ कविता की हैं, जिनमें गंभीर भावबोध को अभिव्यक्ति दी गई है। फीजी में हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन में किए गए अप्रतिम योगदान के लिए पंडित कमला प्रसाद मिश्र को हिंदी-जगत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1978 में पंडित मिश्र जी को उनकी हिंदी-सेवा के लिए ‘विश्व हिंदी सम्मान’ से सम्मानित किया गया था। सर्वविदित है कि अठारहवीं शताब्दी में भारत के तत्कालीन उपनिवेशवादी शासकों ने भारतीय मज़दूरों को कृषि कार्यों के… आगे पढ़ें
हिंदी भाषा और संस्कृति के वैश्विक प्रचार-प्रसार और संवर्धन में प्रवासियों भारतीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लगभग दो शताब्दी पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में गिरमिटिया मज़दूरों के रूप में ले जाए गए इन म्ज़दूरों ने अपने मातृदेश को ह्रदय में बसाए रखकर अपने नए गृहदेश की समृद्धि के विकास की अपार संभावनाएँ पैदा कीं। संघर्ष के वातावरण और वहाँ पहले से विद्यमान सामाजिक संरचना में सामंजस्य स्थापित करते हुए ये भारतवंशी शिक्षाविद, साहित्यकार, प्रशासनिक अधिकारी और देश की सत्ता के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के रूप में विशिष्ट पहचान बनाने में समर्थ हुए और देश के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और साहित्यिक परिदृश्य निर्माण में महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरे। प्रोफ़ेसर सुब्रमनी की गणना फीजी के उन अग्रणी पंक्ति के इतिहाकारों, साहित्यकारों और शिक्षाविदों में होती है, जिनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व आये थे लेकिन आज वे अपनी कर्मठता, परिश्रम और अद्भुत जीवटता के बल… आगे पढ़ें
प्रवासी भारतीयों की संघर्ष कथा के मौखिक दस्तावेज़   सन २०१७ गिरमिट प्रथा की समाप्ति की शत वार्षिकी थी। सन १९१७ में संवैधानिक परिधि में गिरमिट प्रथा की समाप्ति हुई थी और विदेश में बसे हुए हज़ारों प्रवासी भारतीय उस प्रवास की नारकीय यातना से मुक्त हुए थे। गिरमिट अनुबंध के अधीन प्रवासी भारतीयों को अपने देश वापस जाने की छूट थी पर जिन भारतीयों ने अपने कठिन परिश्रम से नए देश को रहने योग्य बनाया था, जिसे उन्होंने अपना देश मान लिया था, वहाँ उन्होंने बसने का निर्णय ले लिया था। एक सौ वर्ष तक जिनमें लगभग प्रवासी भारतीयों की तीन पीढ़ियाँ आती हैं, गिरमिट जीवन के अमानवीय अत्याचार सहे, कोलम्बर के द्वारा लांछित और अपमानित हुए पर अपने परिश्रम और निष्ठा से भारतीय आचार-विचार और जीवन मूल्यों में आस्था रखते हुए अपना विकास किया पर पूर्वजों की यातनाओं को भुला नहीं सके। इन यातनाओं की अभिव्यक्ति उनके लोकगीतों… आगे पढ़ें
(वर्ष 2015 में लिया गया उनका साक्षात्कार)   जोगिंदर सिंह कँवल फीजी में हिंदी लेखन के भीष्म पितामह थे। 88 वर्ष की आयु में चहल-पहल, महत्वाकांक्षाओं से दूर, बा की पहाड़ियों में साहित्य साधना में रत थे। जीवन के इस लंबी दौड़-धूप और यात्रा में उन्होंने अपनी मुस्कान नहीं खोयी, साहित्यकारों को सामान्य रूप से मिलने वाली सांसारिक असफलताओं के कारण उनमें कोई कटुता नहीं आई, उदासीनता और निराशा तो उनसे कोसों दूर है। बात-बात पर ठहाके अपनी कवयित्री पत्नी अमरजीत कौर के साथ वे निरंतर जीवन और भाषा के सत्यों का अन्वेषण कर रहे हैं। हिंदी के 4 उपन्यास, 3 काव्यसंग्रह, फीजी के हिंदी लेखकों की कविताओं, कहानियों और निबंधों के संग्रह, अपना कहानी संग्रह, अँग्रेज़ी में एक उपन्यास यानी वे पिछले 40 सालों से लगातार लिख रहे हैं। उनसे मिलकर मुझे हिंदी के लेखक विष्णु प्रभाकर, रामदरश मिश्र और प्रभाकर श्रोत्रिय की याद आती है। जिनकी कलम को… आगे पढ़ें
क्या याद है तुम्हें अपनी वो दीवाली उस गाँव के छोटे से घर पर अब तो कई साल बीत गए हैं छूट गया गाँव टूट गया वो घर हमारी दीवाली के बीच आमावस आ गई है हर दीवाली के दरमियां वनवास आ गया है अब हम  हम न रहे अब तुम  तुम न रहे तेरे मेरे बीच से दीवाली अजनबी हो चली है ये दीवाली वो दीवाली न रही॥ आगे पढ़ें
ऐ थम जा मदहोश परिंदे! ये चाँद सी तड़प सूरज सी जलन अरमानों को राख कर देगा हमारे सपनों को ख़ाक कर देगा ऐ थम जा मदहोश परिंदे! उड़ना मुझको आता नहीं जलना हमें  गवारा नहीं तुम उस डाली हम इस डाली इस से उस डाली जाना हमें गवारा नहीं ऐ थम जा मदहोश परिंदे! संबंधों में बिखराव अपनों से टकराव यू पल-पल जीना-मरना हमें गवारा नहीं ऐ थम जा मदहोश परिंदे! आगे पढ़ें
19वीं सदी के अंत व 20वीं सदी के आरंभ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आचंलिक क्षेत्रों से रोजी-रोटी की तलाश में अनुबंधित श्रमिक के तौर पर सात समुंदर पार फीजी गए भारतीय मूल के लोगों ने आरंभ में अत्यधिक कष्ट झेले किंतु उन्होंने फीजी को सजाया, संवारा और संपन्न किया आज इन गिरमिटियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी फीजी देश में में सुप्रतिष्ठित है, सुशिक्षित है और संपन्न है। विदेशी भूमि पर बहुजातीय देश में विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के बीच भारतीय मूल के इन लोगों ने अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित रखा है। भारतीय मूल के लोग वहाँ जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग है और हिंदी को दो रूपों में बोलते हैं पहला रूप आम बोलचाल की हिंदी का है और भारतीय उसका मातृभाषा के रूप में बड़ी सहजता से परिवार के साथ प्रयोग करते हैं यह वह रूप है जिसका विकास फीजी के भारतीयों के मध्य हुआ है।… आगे पढ़ें
मेरे वतन फीजी! तुझे छोड़ के हम कहीं नहीं जाएँगे यही रहेंगे हम तेरे पास और तुझे दुनिया का स्वर्ग बनाएँगे दुनिया के नक्शे पर तू छोटा सा एक सितारा है नाज़ है हमको कि तू प्यारा फीजी देश हमारा है जब तक ऐ मेरे वतन हमारे सिर पर तेरा आशीष रहेगा चाहें कितने बड़े ही झमेले हों हम खुशी-खुशी झेल जाएँगे! ऐ मेरे वतन फीजी! तुझे छोड़ के हम  कहीं नहीं जाएँगे तू हमारी मातृभूमि है तुझसे मिला हर पल बहुत सारा प्यार  तेरी आँचल की छाया में समाया मेरा छोटा सा यह संसार कसम तेरे पाक आँचल की उसमें कोई दाग लगने नहीं देंगे कुर्बान हो जाएँगे ऐ मेरे वतन! फीजी तुझे छोड़ के हम  कहीं नहीं जाएँगे जुड़े हैं पूर्वजों के बलिदान तुझसे, उसे हम कैसे भुला दें जो अधिकार मिला इस वतन में उसे हम कैसे गवाँ दें यहीं पर पैदा हुए, बड़े हुए, मरेंगे भी… आगे पढ़ें
गाँधी जयंती पर बचपन का क़िस्सा याद आ गया। नई इंग्लिश स्कूल में 8वीं कक्षा में कला शिक्षक पंडित केसकर जी हमें चित्रकला पढ़ाते थे। वे बड़े सख़्त अनुशासन प्रिय शिक्षक थे। उन्होंने हमें क्लास में चित्रकला हेतु नोटबुक लाने को कहा था। हम नोटबुक लाना भूल गए थे। हम सभी क्लास में खड़े होकर डर के मारे खड़े हुए थे। उन्होंने ऊँचे स्वर में दीवार के ऊपर लटकती महात्मा गाँधी की तस्वीर की तरफ़ इशारा करके नाराज़ होकर कहा था कि- "इस बूढ़े ने कहा था कि दुनिया में पहली ग़लती के लिए सबसे बड़ा दंड देना चाहिए, क्या किसी को मालूम है, वह दंड क्या है?” हमने उनकी भंगिमा और उनकी काठी की ओर देखकर भीगी बिल्ली बनकर कहा था कि "जी नहीं मालूम सर।" तब दार्शनिक मुद्रा में हँसकर पंडित केसकर जी ने कहा था कि – "महात्मा गाँधी कहते थे कि आदमी की पहली ग़लती के… आगे पढ़ें
कभी तेरे कंधे पर बैठकर घूमा करते थे कभी तेरी गोदी में बैठकर क़िस्सा सुना करते थे कभी एक थाली में साथ खाते थे वो दिन कुछ अलग थे जब हम साथ रहा करते थे भाई मेरे, तेरे साये में हम कितने महफ़ूज़ रहा करते थे।   आगे पढ़ें
एक छोटी सी पोटली एक मीठा सा सपना लेकर झगरू चला सात समुद्र पार बारह सौ मील दूर जब आँख खुली तो पाया रमणीक द्वीप साहब का कटीला चाबुक और भूत लैन में एक अँधेरा कमरा रोया, गाया, भागा, बहुत चिल्लाया अपने को कोसा लेकिन तोड़ न पाया वो समुद्री पिंजरा! दिन, रात, महीने, साल धीरे-धीरे बीते गिरमिट की काली रात घाव के ऊपर घाव और इज़्ज़्त भी लुट गई जटायू की भाँति कट गए पंख जब पिंजरा खुला अकेला तट पे पड़ा वो उड़ न सका फिर छूटी पोटली और रेत हुआ  सपना॥   आगे पढ़ें
फीजी हिंदी हमार भासा कोई से पूछ लो आइके देख लो फीजी के लोग है कुछ अलग हमार बात फीजी बात है बहुत सुन्दर बात हम यही भासा छोटे से है बोलता इसमें थोड़ा अवधी इसमें थोड़ा भोजपुरी इंग्लिश भी है फीजियन  मसाला भी है सब भाषा के मिलावट इसमें बनगे एक अलग भासा अब यही हमार वजूद  हमार पूर्वजों  के इतिहास हम लोगन के पहचान सब कोई माँगो फीजी हिंदी के उठाओ इसमें पढ़ो, लिखो, गाओ मजबूत बनाओ शर्माओ नहीं  गर्व से बोलो फीजी हिंदी हमार भासा है॥   आगे पढ़ें
फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग सवा सौ वर्षों का है और यह साहित्य प्रधानतः भारतीयों के फीजी आगमन, उनके संघर्ष और विकास का दस्तावेज़ कहा जा सकता है। फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य की मूल संवेदना प्रवास की पीड़ा है जो साहित्य में आद्यन्त देखने को मिलेगी यद्यपि उसका स्वरूप विविध सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बदलता हुआ दिखता है। प्रवास में जहाँ व्यक्ति के मन में एक ओर नई जगह जाने का उत्साह है, चुनौती है, नई आशाएँ और कामनाएँ हैं वहीं दूसरी ओर विछोह की पीड़ा है, विस्थापन का कष्ट है और भविष्य की आशंकाएँ हैं। इन दोनों भावों में डूबता उतराता मानव प्रवास का निश्चय करता है। अपनों का विछोह, अपनी मिट्टी का विछोह प्रवासी के मन में एक गहरी कसक उत्पन्न करता है। इस कसक को व्यक्ति नए सुखमय भविष्य की आशा में भुलाने की चेष्टा करता है। यदि नया वातावरण अधिक… आगे पढ़ें
सन्‌ १९६५ की जुलाई, हिंदू कॉलेज के एक कॉरीडोर में मैं रैगिंग कर रहा था। जिनकी रैगिंग हो रही थी, वे हिंदी ऑनर्स के विद्यार्थी थे, जिन पर रौब गाँठने के लिए मैं देसी अँग्रेज़ी में रैगिंग के हथकंडे अपना रहा था। सब छात्र डरे-डरे से थे, सिवाय एक लंबे, दुबले, साँवले लड़के के, जो हम सबसे उम्र में बड़ा लग रहा था। अचानक उसने ज़बर्दस्त ब्रिटिश अँग्रेज़ी में मुझे धिक्कारना शुरू किया कि मैं क्यों रैगिंग कर रहा हूँ, जब कि यह ठीक नहीं। मैं उसे जबाब देने के लिए शब्द और ग्रामर ढूँढ ही रहा था कि उसने कहा, "मैं हज़ारों मील दूर से भारत में यह सोच कर आया था कि यहाँ भारतीय संस्कृति में मेरा स्वागत होगा, लेकिन यहाँ तो उलटा हो रहा है।" हम सब चौंक गए। हज़ारों मील दूर से यह विद्यार्थी आया है? मैंने विनीत स्वर में पूछा, "आप कहाँ से आए हैं,… आगे पढ़ें
सरकार कुछ भी कहे, इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा सरकार की सहमति और भागीदारी के बिना कभी की समाप्त हो गई होती। इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से गिरमिट मज़दूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है? भारत  अंतरआत्मा दुर्भाग्य से बहुत दिनों से सो रही थी। अब उसे इस समस्या की विराटता का अनुभव हुआ है। और मुझे कोई संदेह नहीं है कि वह अपने को अभिव्यक्त किए बिना चैन नहीं लेगी। मैं सरकार से कहूँगा कि हमारी भावनाओं की अवहेलना ना करें। ‘गोपालकृष्ण गोखले, 4 मार्च, 1912 भारत की इम्पीरियल लेजिस्लेटिल काऊंसिल में।  भारत ने 1947 में आज़ादी प्राप्त की। यह माना जाता है कि 1857 की क्रांति भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। मेरे विचार से लाखों भारतीयों को शर्तबंदी की प्रथा से निकालने वाला, उन्हें खुले आकाश के नीचे साँस लेने… आगे पढ़ें
पीपल की छाँव में अपने गाँव में बचपन में झूला करती        थी झूला हरियाली के मौसम में चूडियों की खनक   पायल की झनक राग में मिलाती राग       गुनगुनाती       कभी मुस्कुराती कभी खिलखिला कर     हँसती, पतझड़ आता पत्ते झड़ते ढेर लग जाते कुछ से झूला सजाती कुछ से पहाड बनाती, आया समझ में पीपल       का महत्व नित्य शाम दिया     जलाती परिक्रमा           करती मन में सपने सजाती      मन-चाह पाती सुन्दर घर-परिवार पाँव रखूँ कभी  धरती पर   कभी आँसमा पीपल की छाँव जैसे हो अपना खुशनुमा-संसार पीपल जैसे पवित्र हो  अपना प्यार जीवन का झूला झूले हँसते- मुस्कुराते जैसे बचपन वाली पीपल की छाँव में कभी गाँव लौटूँ तो  माथा टेकूँ अपने बचपन वाली  पीपल की लूँ आशीर्वाद  हर सावन में    गाँव लौटूँ झूला झूलूँ हर बार… आगे पढ़ें
मेरे राजा भइया      सावन की हवाएँ          चल रही हैं    तेरे मेरे बचपन की        याद दिला रहीं हैं  वक़्त बदल गया   बदलते वक़्त के संग       बहुत कुछ बदल गया  खो गया बचपन का             आँगन  विरान हो गया गाँव    सूनी हो गई खेतों की                 सुहाग   न रही दादी चाची       न रही कोई सहेली           न रहा कुछ खास                   निशानी  तू भी किस देश चला     न राह का पता दिया      न दिशा का संकेत    मैं परदेश में अकेले ही               रह गई   बिना बताये ही             चला गया, सावन में तेरी राह देखती आँख भिगोती     … आगे पढ़ें
दुलहन सी सजी-धजी  अप्सरा सी मनमोहक  प्रकृति में सिमटी हुई  पग पग घाटी के आँचल              में हरियाली                                  फैलाती  ओस की बूँद पर जैसे  सूरज का पहला             किरण का              लालिमा का                         झलझलाहट  इतना सुन्दर देश है                      हमारा॥   झूम-झूम कर             नाचती गाती  नज़र को अपनी तरफ  आकर्षित करती मंद-मंद हवा के संग,           देश मेरा नीला नमकीन      पानी से घिरा  लहरों से लहर मिल तटों से टकराती  कोसों मील तक  सफेद रेत बिछाती  नारियल के लम्बे-लम्बे             पत्ते  हवाओं में शोर मचाते,… आगे पढ़ें
हँसुआ चलाए के मौसम फिर से आए गए। जिधर देखो उधर सब खेत में हरियर और पीयर रंग देखाए लगा। कड़ा घाम और हवा के बहाव में तो इतना सुन्दर दिखाए जैसे कोई हरियर और पीयर मक्मल के चद्दर बिछाए दीस सब तरफ। जिधर देखो बस उधर सब खेत में धान पक गए। झुण्ड के झुण्ड चिड़िया आए के वही चद्दर पे बैठे और सब तरफ खाली चिड़ियन के चहचाहट सुनाए दे लगा। मौसम ठीक होए के कारण ई साल सब के खेत में बहुत अच्छा फसल भये। अब तो सब के मन में बस यही बात रहा कि अगर टेम पे सब धान कटाए, दवांए और ओसाये लिया जाये तो मेहनत असूल होए जाई।  अबकी साल केसो भी आपन काका से अधिया पे खेत लई के काफी धान बोये लीस रहा। लान्गालांगा, लम्बासा में बुधई काका के पास सब से जादा जमीन रहा लेकिन बिमारी के कारण अब बहुत… आगे पढ़ें
दूर पहाड़न में बसा रहा,  आपन सुन्दर गाँव हरा-भरा खेतन रहिन,  अउर अंगनम अमवक छाँव।   लोग मेहनती, करें  धान गन्ना के खेती करें वहिम संतोक,  जो धरती मइया देती।   कोई मजूर गरीब,  कोई किसान गन्ना के फिर भी रहा एकताई,  अउर सुम्मत जनता में।   फिर बना गाँव में,  एक स्कूल अउर मन्दिर सिक्छा के सम्मान रहा,  सब लोगन के अन्दर।   सुखी रहिन सब, चले ऊ  गऊँअम एक मण्डली करें मदद सब में, चाहे  होए सादी या मरकी।   भये मुसीबत, ख़तम भये  जब जमिनवक लीस मतंगाली जमीन लईके,  बस घराईक जगह दिहिस।   करिन लोग रातू से,  रोए-रोए के बिनती अइसा दइदो हमको लीस,  पर ऊ माँगे ढेर पइसा।   रोवत–गावत, आपन  पुरखन के धरती छोड़ीन बिखर गइन सब इधर–उधर,  जीवन डग मोड़ीन।   का जानत रहिन कि,  एक दिन अइसन भी आई आपन समझिन जिसके,  वही होई जाई पराई।   आज हुँवा जंगल है खड़ा, … आगे पढ़ें
इन दिनों गिरमिटिया शब्द उसके मन को छलनी कर देता था। उसका वश चलता तो इसे शब्दकोश से निकालकर, समुद्र के बीचों-बीच जाकर फेंक आता। इसका कारण यह था कि कॉलेज में जैकसन सबके सामने उसकी और उसके दोस्तों की मज़ाक उड़ाने के लिए उन्हें गिरमिटिया कहा करता था। सभी अपमान का घूँट पीकर रह जाया करते। आज जैक्सन जब अपने साथियों के साथ सामने से आता दिखाई दिया तो उसके दोस्त उसे समझाने लगे कि वह उसके मुँह ना लगे। “क्यों रे गिरमिटिया . . . कैसे हो?” “. . . . .” “आज तो तू कुछ बोल ही नहीं रहा? क्या गूँगा हो गया गिरमिटिया?” “. . . . .” “इन साले गिरमिटियों को जब फीजी से भगाया गया तो सब ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा चले गए जो निर्लज्ज थे, वे यहीं रह गए। यह लोग वही हैं!” अब उसके धैर्य का बाँध टूट गया। “सुनो जैक्सन! उन लोगों… आगे पढ़ें
इस विशेषांक में
बात-चीत
साहित्यिक आलेख
कविता
शोध निबन्ध
पुस्तक चर्चा
पुस्तक समीक्षा
स्मृति लेख
ऐतिहासिक
कहानी
लघुकथा
ऑडिओ
विडिओ