विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

तेरी याद साथ है

चिन्तन | आयुषी पुरोहित

इतवार की ख़ूबसूरत सुबह थी, सूरज ने पलकें खोलीं और एक नयी दिन की शुरूआत हो गयी। और इस दिन के साथ शुरू हुआ यादों का सिलसिला। खट्टी-मीठी यादें। समय के साथ साथ हम ढल तो जाते हैं, पर एक चीज़ है जो कभी नहीं बदलती वे हैं—यादें। प्रकृति का नियम है की जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी हम में बदलाव आएगा, आना भी चाहिये तभी तो हम मनुष्य रुपी जीवन का भरपूर आनंद हर मायने में उठा सकते हैं। इन्हीं कुछ विचारों के साथ आज मैंने एक बार और क़लम उठा ली। 

अपने देश से कोसों दूर बैठे कई बातें, कई छायाएँ अनायास ही आँखों के सामने आ जाती हैं, जैसे नानी का घर, दादी की सीख, संक्राति की पतंगबाज़ी, पोष-बड़ों का आनंद, धुलैंडी (होली) के रंग इत्यादि। वाह! क़ुदरत तेरा भी जवाब नहीं, मस्तिष्क में समाये, अपनों के साथ बिताए हज़ारों पल किस तरह एक चलचित्र के समान आँखों के सामने चलने लगते हैं, ये एक करिश्मा नहीं तो और क्या है! जब हम बड़े हो रहे होते हैं तब ऐसे न जाने कितने लम्हे होते हैं, जो हम अपनों के साथ बिताते तो हैं पर उनकी क़ीमत नहीं समझ पाते, फिर आता है एक ऐसा समय जब भाग दौड़ भरे, व्यस्त जीवन के कुछ ख़ाली समय में हम उन्हीं यादों को फिर से सजीव करने के प्रयास में जुट जाते हैं। 

स्थान परिवर्तन होने से मुझे और कुछ शिक्षा मिली हो या नहीं, पर एक आला अनुभव अवश्य मिला—अपने देश से प्रेम का बोध। नए मित्र, नए अनुभव, नया कार्यस्थल और नयी जीवनशैली तो निश्चित ही प्रिय लगती है, पर कहीं न कहीं मन में एक बात सदा रहती है—मेरा देश, वह लगाव, जिसको परिभाषित करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है, पर भावना अवश्य है। जब नए देश में बिताये कुछ ही महीने हुए, तब सभी मित्रों ने पूछा, “मन लग जाता है?” मेरा उत्तर बड़ा ही सादा होता था—हाँ! इस उत्तर पर अगर आप व्याख्या चाहते हैं तो मेरा उत्तर फिर सादा सा है, वे अनगिनत यादें और अपनों का आशीर्वाद। 

मेरी उम्र ज़्यादा तो नहीं है पर छोटा मुँह बड़ी बात, रिश्तों की समझ और इज़्ज़त है, एक प्रेम भाव है अपने देश के प्रति, संस्कृति के प्रति कि शायद मैं कहीं भी रहूँ मुझे अकेलेपन का एहसास नहीं होने देगा यह भाव। इसी भाव को मेरी अधिकतर बातों में जीवंत रखने की कोशिश सदा जारी रहती है। इसके पीछे मेरा उद्देश्य सरल है, कब न जाने कौन सी बात सीखने को मिल जाये, और यादों की किताब में एक नया पाठ जुड़ जाए। 

ऐसे ही एक दिन टहलते हुए मेरी मुलाक़ात एक ७४ वर्षीय महिला से हुई, पहियेदार कुर्सी पर बैठी उस महिला को देख मैंने मुस्कान दी और हमारी वार्तालाप यहाँ से शुरू हुआ। थोड़ी भूमिका के बाद, हमारी बात ने जीवन के कुछ मायनों पर चर्चा का मोड़ लिया, पहल महिला से हुई। बड़े ही सहज भाव से महिला ने कहा, “दुर्घटना होने के बाद मुझे काम छोड़ना पड़ा, और मैं अपनी माँ के साथ रहने लगी। शायद जो प्रभु ने सोचा, हमारे हित के लिए ही सोचा।”

मेरे मन में कई प्रश्न तो थे पर मैं उस महिला के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने के भय से प्रश्नों को टाल गयी। महिला बोल रही थी और मैं उनकी हर एक बात को बड़े ध्यान से सुन रही थी। 

उन्होंने कहा, “पिछले कई साल मैंने अपनी माँ के साथ नयी जगह देखकर, नया कुछ सीख कर बिताये और ये वर्ष मेरी ज़िन्दगी के सबसे यादगार पल रहेंगे। तुमको आज मैं एक अनुभव से सीख देना चाहूँगी।” 

मैंने हाँ में सिर हिला दिया। फिर वे बोलीं, “जीवन अपूर्वानुमेय है, हमें सभी के साथ यादें बनानी चाहिएँ, मीठी यादें, क्योंकि जब यादें रहती हैं तब जीवन बहुत खुशरंग लगता है।” 

यह कहकर वे अपने घर की ओर चल दीं और मैं एक हलकी सी मुस्कान लिए वापिस अपने रास्ते। मुस्कान इसलिए क्योंकि जो मैं सोच रही थी, आज किसी नेक महिला ने मुझे उसका एहसास फिर से दिला दिया। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी एक पुरानी मित्र को फ़ोन मिलाया, “कैसी है तू? आज तेरी बहुत याद आ रही थी!“ . . .  

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