मैंने ख़ुद को जब भी दुविधाओं में पाया है,
न जाने क्यों तुम्हारा ही चेहरा
मेरे सामने उभर आया है
गहन अँधेरों ने जब भी
अपना विशाल रूप दिखाया है,
तुम्हारे आग़ोश में बीते
उन पुराने सवेरों से ही तो
मैंने ढाढ़स बँधाया है
धुँधले कुहासों ने जब
रास्ते के हर मोड़ को छिपाया है
तब तुम्हारे आदर्शों ने ही तो
मुझे आगे बढ़ाया है
और मन के सन्नाटों ने जब
हर साज़ को दबाया है
जब तुम्हारी ही आवाज़ को मैंने
गूँजता हुआ पाया है
ज़िन्दगी की उधेड़बुन ने जब जब
मेरे वुजूद पर प्रश्नचिन्ह उठाया है
तब तुम्हारे ही वुजूद में मैंने
अपने अस्तित्व को समाया है
सात समुंदर की दूरी से भी यक़ीन रखो
तुमने मेरी राह का हर पत्थर हटाया है