विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

निकल कर पहाड़ों की गोद से
मैं लहराती, इठलाती, 
अल्हड़ बाला सी
मस्ती में उछलती
पत्थरों पर कूदती
वृक्षों की टहनियों पर झूलती
शिखरों पर पले सपनों को 
हृदय की गुफा में छुपा
ज़मीन से जुड़ी रहती
गाँव-गाँव, शहर-शहर
विचरण करती
दिशा भ्रमित होकर भी
अपना पथ स्वयं बनाती
अपने अस्तित्व से
प्यासों की प्यास बुझाती
गर्मी की तपिश दूर कर
ठंडक भी पहुँचाती
ऊपर से नीचे गिरने का
साहस ले, झरना बन गिरती
संबंधों की डोरी पकड़े
वनस्पतियों संग बहती
वन्य जीवों का जीवन बनती
अग्नि से मेरा नहीं
दूर-दूर का नाता
जंगलों में लगती आग तो
मेरा जल ही उसे बुझाता 
निरंतरता का सबक़ ही
सीखा है मैंने, 
वही मुझमें विश्वास जगाता
कभी शिवलिंग पर चढ़ाई जाती
और मैं धन्य हो जाती
आँगन बीच खड़े, 
तुलसी के बिरवे में
जल बन, औषधि उपजाती
मेरी राह में जब-जब भी
बाधाएँ आतीं
महाकाली का रूप धर
मैं उदण्ड हो उछलती
सारी सीमाएँ तोड़
कल-कल निनाद कर
अपना क्रूर रूप दिखाती
पीकर सारे जग के मैल
उन्हें गंगाजल बनाती
स्त्रीलिंग हूँ, स्त्री की भाँति
अनेक नामों से जानी जाती
सृजनकर्ता हूँ मैं, सूखी
ताल-तलैया बसाती
अपनी नन्ही नदियों को
जीने की प्रक्रिया
बह-बह कर सिखलाती
अंत में राहों की खोज करते करते
अपने नाम सहित
अथाह सागर की गोद में समा जाती
अपने मीठे नीर से
क्षीर-सागर की प्यास बुझाती
सूरज की उष्मा से उड़कर
बदली संग अठखेलियाँ करती
और फिर गरज कर
पृथ्वी पर गिरती
पर्वत और घाटियाँ सजाती
धरा को पुष्पित, पल्लवित करती
मानवता को उत्थान, पतन का
अनूठा पाठ पढ़ाती
मैं नदी हूँ, बहने के लिए आती
और सदा बहती ही रहती। 

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