“शंकर दा नहीं रहे मुनिया।” “ओह“ शंकरदा की उम्र हो चुकी थी। अभी-अभी मिल के आ रही थी उनसे चन्दननगर के इस बार के विज़िट के दौरान। शंकर दा मेरे पिताजी से दो-तीन साल बड़े थे। मेरे परदादा जी एक डॉक्टर थे और प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था उन्होंने। उनकी बाद में झेलम में पोस्टिंग हुई थी। बाद में जब वे चन्दननगर आ कर रहने लगे, तो शंकर दा हमारे घर काम पर लगे थे। शंकर दा अपने भाई-बहनों के साथ सामने ही एक मिट्टी की कुटिया में रहते थे। हमारे घर में उस वक़्त गायें हुआ करती थीं। गायों की देख-रेख से ले कर घर-आँगन बुहारने तक का काम शंकर दा ही करते थे। बाद में दादाजी और दादीजी और फिर आख़िरी तक हमारे घर वे काम करते रहे।  गर्मी की छुट्टियों में मैं हर साल दादा-दादी जी से मिलने चंदननगर जाया करती थी। कोरबा से… आगे पढ़ें
1962 में मैं उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत मण्डल के इलाहबाद सब-डिविज़न में एस। डी। ओ। लगा हुआ था। हमारे विवाह के कुछ महीने बाद श्रीमती जी के बड़े भैया का मॉन्ट्रियाल कैनेडा से पत्र आया। इसमें उन्होंने कैनेडा की कई इंजिनियरिंग कम्पनियों के नाम और पते लिखे थे, और साथ साथ मुझे एप्लाई करने का सुझाव भी दिया था। पत्र पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि मेरा बाहर जाने का जो स्वप्न था, उसके पूरा होने का समय आ गया है। बस, एक सप्ताह के अन्दर ही मैं ने सब कम्पनियों में जॉब के लिये पत्र डाल दिये। चाहे मुझे ’मुकद्दर का सिकन्दर’ कहिये या कुछ और, छह सप्ताह में ही मॉन्ट्रियाल की एक इंजिनियरिंग कम्पनी का नियुक्ति पत्र ’अपॉइन्टमैण्ट लैटर’ आ गया और मुझे चार महीने के अन्दर जॉइन करने को कहा। मेरा अगला क़दम कैनेडा की इमिग्रेशन लेने का था और इसके लिये मैं ने दिल्ली… आगे पढ़ें
मार्च का आरंभ था। दूसरा सत्र समाप्त होने वाला था। इस कारण स्कूल में पढ़ाई का ज़ोर बढ़ चला था। मार्च की छुट्टियों से पहले बच्चों की रिपोर्ट देनी होती है। उसके लिए हम अध्यापकों को अपनी कक्षाओं को कई टैस्ट देने थे, हम सभी उसमें व्यस्त थे।  उस दिन, कक्षा में पहुँच कर मैंने बच्चों को गणित का प्रश्नपत्र बाँट दिया। जो भी सवाल उस प्रश्ननपत्र में पूछे गए थे, बच्चे उनसे अच्छी तरह अवगत थे। कई सप्ताहों से इन्हीं पर काम किया जा रहा था। प्रश्नपत्र से सम्बंधित ज़रूरी बातें समझा कर मैंने निश्चिन्तता की साँस ली और मेज़ पर रखा कागज़-पत्रों का ढेर अपनी ओर खिसका लिया। पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ाई का स्तर बढ़ा हो या नहीं, काग़ज़ी लिखा-पढ़ी का बोझ बहुत ही बढ़ गया है। इतने दिनों में न जाने कितनी चीज़ें जमा हो गई थीं, जिन पर ध्यान… आगे पढ़ें
वह सचमुच एक अत्यंत साधारण सी औरत थी। लोगों की आँखों के सामने से गुज़र जाए तो कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता। अधिकतर लोगों को उसका नाम भी नहीं पता था। पड़ोस भर में वह मुन्ना की माँ के नाम से ही जानी जाती थी। मुन्ना की माँ के माँ-बाप का पता नहीं था एक अनाथ आश्रम में बड़ी हुई थी इसीलिए प्यार की बहुत भूखी थी। अनपढ़ भी थी, केवल प्रेम की भाषा में पारंगत थी। कुछ ऐसी स्मृतियाँ उसके साथ जुड़ी हैं कि आज कई दशकों के बाद भी उसे मैं कभी भूल न सकी, जब तब उसका ध्यान आ ही जाता है।  उसके पति एक साधारण से टैक्सी चालक थे, साधारण सी आय थी, जितना कमाते, उतना घर गृहस्थी में ख़र्च हो जाता। कलकत्ते जैसे शहर में रहकर भी उनके घर में एक पंखा तक न था। अभाव का जीवन था। पति-पत्नी और… आगे पढ़ें
गाँधी जयंती पर बचपन का क़िस्सा याद आ गया। नई इंग्लिश स्कूल में 8वीं कक्षा में कला शिक्षक पंडित केसकर जी हमें चित्रकला पढ़ाते थे। वे बड़े सख़्त अनुशासन प्रिय शिक्षक थे। उन्होंने हमें क्लास में चित्रकला हेतु नोटबुक लाने को कहा था। हम नोटबुक लाना भूल गए थे। हम सभी क्लास में खड़े होकर डर के मारे खड़े हुए थे। उन्होंने ऊँचे स्वर में दीवार के ऊपर लटकती महात्मा गाँधी की तस्वीर की तरफ़ इशारा करके नाराज़ होकर कहा था कि- "इस बूढ़े ने कहा था कि दुनिया में पहली ग़लती के लिए सबसे बड़ा दंड देना चाहिए, क्या किसी को मालूम है, वह दंड क्या है?” हमने उनकी भंगिमा और उनकी काठी की ओर देखकर भीगी बिल्ली बनकर कहा था कि "जी नहीं मालूम सर।" तब दार्शनिक मुद्रा में हँसकर पंडित केसकर जी ने कहा था कि – "महात्मा गाँधी कहते थे कि आदमी की पहली… आगे पढ़ें
सन्‌ १९६५ की जुलाई, हिंदू कॉलेज के एक कॉरीडोर में मैं रैगिंग कर रहा था। जिनकी रैगिंग हो रही थी, वे हिंदी ऑनर्स के विद्यार्थी थे, जिन पर रौब गाँठने के लिए मैं देसी अँग्रेज़ी में रैगिंग के हथकंडे अपना रहा था। सब छात्र डरे-डरे से थे, सिवाय एक लंबे, दुबले, साँवले लड़के के, जो हम सबसे उम्र में बड़ा लग रहा था। अचानक उसने ज़बर्दस्त ब्रिटिश अँग्रेज़ी में मुझे धिक्कारना शुरू किया कि मैं क्यों रैगिंग कर रहा हूँ, जब कि यह ठीक नहीं। मैं उसे जबाब देने के लिए शब्द और ग्रामर ढूँढ ही रहा था कि उसने कहा, "मैं हज़ारों मील दूर से भारत में यह सोच कर आया था कि यहाँ भारतीय संस्कृति में मेरा स्वागत होगा, लेकिन यहाँ तो उलटा हो रहा है।" हम सब चौंक गए। हज़ारों मील दूर से यह विद्यार्थी आया है? मैंने विनीत स्वर में पूछा, "आप कहाँ से… आगे पढ़ें
(जन्म- 1 जुलाई1945 – निधन- 25 मार्च 2020)    स्तब्ध हूँ! यक़ीन नहीं हो रहा है.... एक हँसता-खिलखिलाता, बेहद प्यारा, ज़िंदादिल इंसान गुज़र गया .... अभी 4-10 नवम्बर 2019 को हम सब प्रवासी भारतीय साहित्यकार सुषम जी के साथ ‘टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला महोत्सव- भोपाल’ में कला और साहित्य पर बात-चीत करते हुए, सत्रों में शिरकत कर रहे थे। हर रोज़ हँसते खिलखिलाते, चुटकियाँ लेते, कभी सुबह नाश्ते पर, कभी लंच पर, कभी पुस्तक प्रदर्शनी देखते तो कभी सभागार में साथ-साथ घूमते-फिरते जगह-जगह रुक कर फोटो खिचाते। हम सब देश-विदेश से आए तमाम साहित्यकार शाम को अनौपचारिक महफ़िलें सजाते. गीत, ग़ज़ल, कविता का समां होता और समां को जीवंत करता सुषम जी का सुर, लय, ताल और अभिनय के साथ ‘मधुमति’ फ़िल्म का प्रिय गीत ‘दैय्या रे दैय्या चढ़ गयो पापी बिछुआ’ .... न जाने कितनी स्मृतियाँ आँखों के आगे तैरने लगती हैं..… क्या पता था कि यह… आगे पढ़ें
  1966-69 के दौरान मैं दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. कर रही थी; हिंदी मेरा ऑप्शनल विषय था; प्राध्यापक थीं सुषम बेदी। कक्षा में बजाय उन्हें सुनने के, मैं उन्हें निहारा अधिक करती थी। जब वह पहली बार हमारी क्लास में आईं तो हमने सोचा कि वह भी एक छात्रा थीं किन्तु जब वह सीधे ब्लैकबोर्ड के पास खड़ी हो गईं तो माथा ठनका। ख़ूबसूरत तो थीं ही, उनकी पोशाक साड़ी, सादी किन्तु उत्तम थी। वह शब्दों को बहुत तोल-तोल कर बोलतीं थीं, जैसे बोलने के साथ-साथ सोच भी रही हों। पहली ही नज़र में वह हम सभी छात्राओं को अच्छी लगीं और उनकी क्लास में कभी गड़बड़ नहीं हुई क्योंकि पाठ्यक्रम से वह कभी नहीं भटकती थीं और न ही हमें भटकने देती थीं। मेरी पढ़ाई सरकारी स्कूल में हुई थी और मेरी सभी सहपाठिनें कॉन्वेंट स्कूल की पढ़ीं-लिखी थीं, अंग्रेज़ी में फर्स्ट-क्लास लेने के बावजूद मुझे बोलने… आगे पढ़ें
कुछ लोग जीवंतता के प्रतीक होते हैं। सदैव हँसते, मुस्कुराते, जीवन को जीतते से प्रतीत होते हैं। ऐसे लोगों के भी जीवन का अंत होता है यह सोचना बड़ा मुश्किल है। २१ मार्च की सुबह उठते ही ऐसी ही शख़्सियत के देहावसान की ख़बर मिली। फ़ेसबुक पर जितने भी लोग उनसे परिचित थे, सभी के पेज पर उनकी ही यादों की चर्चा थी। हिन्दी साहित्य का जाना-पहचाना नाम, अमेरिका में हिन्दी अध्यापन क्षेत्र में सर्वोपरि लिए जाने वाला नाम, सुषम बेदी जी के देहावसान का समाचार किसी बहुत बुरे सपने की तरह सामने आया।  सुषम बेदी जी जिससे भी मिलती थीं, उसे उतना ख़ास महसूस कराती थीं कि सभी को लगता था जैसे वह उनके बहुत क़रीब हों। कहा जाता है ना कि जीवन में पद प्रतिष्ठा से भी अधिक यदि कुछ मायने रखता है तो वह यह कि आप जिस जिसके जीवन को छूते हैं, उसे कैसे… आगे पढ़ें