विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

मेरे टेलीस्कोप में धरती नहीं है

कविता | धर्मपाल महेंद्र जैन

अध्ययन कक्ष में 
अपने आसपास घना अँधेरा रच कर 
टेबल लैंप की केंद्रित रौशनी में 
खुली आँखों से एकाग्र होने की मेरी कोशिश 
और फिर टेलिस्कोप से 
आकाश की सीमाओं में झाँकना 
बहुत अजनबी बना देता है मुझे ख़ुद से। 
यूँ भी निहारिकाओं और 
आकाशगंगाओं के बारे में पढ़ते हुए
अपनी दीवार के उस पार के लोग 
अजनबी लगने लगे हैं मुझे। 
 
कसैली कॉफ़ी की सिप के साथ 
मैं पुनः खो जाना चाहता हूँ 
ब्रह्मांड और उसके उल्कापिंडों में 
प्रकाशवर्षों की दूरियों को मापते हुए
जिन्हें कभी मैंने महसूस नहीं किया
अरबों तारों और उनके सौर मंडलों के बारे में
सोचना बेमानी लगता है अब। 
 
पेंसिल की नोक भोथरी हो गई है
ग्रहों और तारों का 
रेखीय पथ खींचते हुए। 
अपने हाथों से 
पहियों वाला पटिया धकेलते हुए 
वो रोज़ रोटी की आस में आता है इधर
बाहर से आ रही चरमराहट
जानी पहचानी है
जो मेरे कान सुनते हैं 
मेरी आँखें नहीं देखतीं
मेरे टेलीस्कोप में धरती नहीं है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ