बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें
लेकिन भींच लेता हूँ मुट्ठी में
कसकर सोच की लगाम
चाहे कितना भी दबा लूँ
अंतस की आग को
फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से
थक गए हैं मेरे हवास
लगा-लगा कर होंठों पर ताला
अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से
जिसे कब का बे-मायने कर दिया है
तुम्हारी हठधर्मियों ने
चाह कर भी कस नहीं पाता मन
ढीली हुई रिश्तों की दावन को
सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता
ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द
तुम्हारे ग़ुरूर को बेधने को
मेरी चुप्पियाँ
तुम्हारी अना की जीत नहीं
अपितु गृह कुंड में शान्ति की आहुति है
अच्छा होगा जो अब भी
थाम लो तुम
अपनी कुंद सोच के क़दम
ऐसा न हो रह जाए कल
तुम्हारी ज़िद की मुट्ठी में
केवल पछतावा।