विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें 
लेकिन भींच लेता हूँ मुट्ठी में 
कसकर सोच की लगाम 
चाहे कितना भी दबा लूँ 
अंतस की आग को 
फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से 
थक गए हैं मेरे हवास 
लगा-लगा कर होंठों पर ताला 
अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से 
जिसे कब का बे-मायने कर दिया है
तुम्हारी हठधर्मियों ने 
चाह कर भी कस नहीं पाता मन 
ढीली हुई रिश्तों की दावन को 
सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता
ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द 
तुम्हारे ग़ुरूर को बेधने को 
मेरी चुप्पियाँ 
तुम्हारी अना की जीत नहीं 
अपितु गृह कुंड में शान्ति की आहुति है 
अच्छा होगा जो अब भी
थाम लो तुम 
अपनी कुंद सोच के क़दम
ऐसा न हो रह जाए कल
तुम्हारी ज़िद की मुट्ठी में
केवल पछतावा। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ