विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

समाजों का कैनवास–सम्भावनाओं की धरती

साहित्यिक आलेख | अनिल जोशी

कैनेडा के गद्यकारों के संग्रह का नामकरण ‘सम्भावनाओं की धरती’ उचित ही किया गया है। चूँकि कई लोग यह समझते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन तो भारतीयों के लिए रच-बस चुके हैं परंतु कैनेडा में अभी बहुत सम्भावना है। दूसरा आशय शायद यह है कि यह धरती अपनी सम्भावनाओं को प्राप्त करने के बहुत अवसर देती है। दोनों दृष्टियों से यह नामकरण समीचीन है। इस संकलन को पढ़ने के बाद यह लगता भी है कि कैनेडा भारतीयों के लिए एक महत्त्वपूर्ण सम्भावनाओं की धरती है। इसमें बीज डाला जा चुका है, जो पुष्पित और पल्लवित हो रहा है और जिसकी सुगंध भारतीय डायस्पोरा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। 

अपने विस्तार और व्यापकता के चलते गद्य संग्रह का एक अलग महत्त्व है। यहाँ पर सुविचारित, सुचिंतित रूप से कैनेडा के जीवन के सूत्र मिलते हैं। जब तक आप किसी देश का गद्य नहीं पढ़ते हैं, आपको उस देश की परिस्थितियों, कठिनाइयों, जटिलताओं, समस्याओं, चुनौतियों का पता नहीं चलता। न ही यह पता चलता है कि समकालीन समाज उन समस्याओं और चुनौतियों को किस रूप में ले रहा है। वह अपने मातृ समाज से कितना और किस रूप में अलग है। कई कहानियाँ ऐसी हैं, जो भारतीय समाज की रूढ़ियों और परंपराओं को तोड़ती हैं। जब समाज बदला है, समय बदला है तो क्या वे रूढ़ियाँ ऐसे ही रहेंगी? इसी प्रकार पारिवारिक जीवन में पति और पत्नी के पारस्परिक सम्बन्ध में भी बहुत परिवर्तन आए हैं। यह परिवर्तन बदली हुई परिस्थितियों में अवश्यंभावी है। इसका बदलता स्वरूप और उसके पीछे की सोच इस संग्रह में दिखाई देता है। आज घरेलू हिंसा एक चुनौती की तरह कैनेडा के समाज में व्याप्त है। यहाँ उसका भी उल्लेख है। उसी प्रकार भारतीय समाज से गए अर्ध शिक्षित और अशिक्षित व्यक्तियों का जीवन कई बार अपनी सोच के चलते नर्क बन जाता है। परंतु यह गद्य संग्रह उनको भी एक आईना दिखाता है और अपने समय के अनुसार बदलने का आह्वान करता है। कुल मिलाकर यह गद्य संग्रह वर्तमान कैनेडा का जीवंत दस्तावेज़ है ।

लघुकथा, व्यंग्य, संस्मरण, निबंध इस संग्रह की उपलब्धियाँ हैं। ’लघु कथाएँ तो जैसे एक बड़े संसार को एक छोटी कथा में पिरो कर एक गहरे सूक्ष्म प्रभाव के साथ मन में असर कर जाती हैं। लघु कथा विधा के विकास को इस संग्रह की लघु कथाओं में देखा जा सकता है। इस संग्रह की ’व्यंग्य कथाएँ‘ अपनी विषयवस्तु, उसकी ट्रीटमेंट और निष्पत्ति के सम्बन्ध में गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। भाषा शैली और पंच ऐसा है कि आप भारत में लिखे जा रहे व्यंग्य से उसका भेद नहीं कर सकते। संस्मरण तो इस संग्रह की एक उपलब्धि है। संस्मरण की प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यह अपने माता-पिता हों या परिवार का कोई और सदस्य, संस्मरण दो देशों, दो प्रकार के मूल्यों को जीने वाली दो पीढ़ियों को प्रस्तुत करते हैं या यह कहा जाए कि यह कल, आज और कल का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। शैलजा सक्सेना का कबीर पर लिखा निबंध कबीर का समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। कुल मिलाकर यह सभी आलेख इस संकलन को एक मुकम्मल तस्वीर देते हैं। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इस पुस्तक में कोरोना पर कहानी और लेख भी हैं। यदि ऐसे बहुचर्चित विषय का समावेश इस संकलन में न होता तो आश्चर्य होता! ऐसे जीवंत, प्रामाणिक, विचारोत्तेजक संकलन के लिए संपादक मंडल और तकनीकी टीम को बहुत बधाई। 

कई बार यह कहा जाता है कि भारतीय कहानियों में पश्चिमी पात्र नहीं होते। इसका एक अर्थ यह भी लगाया जाता है कि भारतीयों को स्थानीय स्तर की समस्याओं और स्थानीय निवासियों के रहन-सहन रीति-रिवाज़ सोच आदि का पता नहीं लगता परंतु एक ख़ुशी की बात यह है कि इस संग्रह की कुछ कहानियाँ उस टैबू को तोड़ती हैं और स्थानीय निवासियों की जीवन शैली और कठिनाइयों को समझने का प्रयास करते हैं। अर्चना दीप्ति कुमार द्वारा लिखी गई कहानी ‘मेरा न्यायधीश’ एक विद्यार्थी के व्यवहार के सम्बन्ध में लिखी गई ऐसी ही एक विचारशील कहानी है। इसी प्रकार हंसा दीप की कहानी ‘शत प्रतिशत’ कैनेडा के समाज की स्थितियों और चुनौतियों को हमारे सामने रखते हैं। आइए इस संग्रह की कहानियों पर विचार करें—

अचला दीप्ति कुमार की कहानी ‘मेरा न्यायघीश’ शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता, असंवेदनशीलता और विद्यार्थियों को वस्तु समझने के सवाल को उठाती है। कहानी में एक विद्यार्थी डेविड है, जो अपनी पृष्ठभूमि के चलते एक अलग व्यवहार, एक अलग प्रकार की संवेदना माँगता है और ऐसा होने पर अपनी प्रतिभा का आविष्कार करने लगता है। वहीं जब उसे असंवेदनशील व्यवहार और एकरूपता का सामना करना पड़ता है तो टूट जाता है और असामाजिक व्यवहार करने लगता है। लेखिका लिखती हैं—सितंबर की चहल-पहल आरंभ हुई। तीसरी कक्षायें स्कूल के दूसरे कोने में थीं, अत: मुझे डेविड कम दिखा। धीरे-धीरे फिर उसका नाम स्टाफ़रूम में सुनाई देने लगा। धीमी गति से वह फिर अपने पुराने रूप में लौट रहा था। दो-तीन बार प्रिंसिपल उसे मेरे कमरे में भी लाये। जल्दी से पास का डेस्क ख़ाली करके मैंने उसे बिठाया। खोई-खोई उदासीन आँखों से वह चारों ओर देखता रहा। मैंने उससे बात करने की भी कोशिश की पर बहुत जल्दी मुझे प्रतीत हो गया कि स्नेह का वह तन्तु, जो मुझे उससे बाँधे था अब टूट गया है। अनजाने में ही सही, मैंने अपने आपको उन वयस्कों के गिरोह में शामिल कर लिया था, जिन्होंने समय-समय पर उसे धोखा दिया था, उसके कोमल मन पर चोट पर चोट पहुँचाई थी। 

डेविड का सम्भावनाओं को न पाना एक दुर्घटना है और इसमें दोष शिक्षकों का भी है, शिक्षा व्यवस्था का भी है। एक कहानी के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था के ज्वलंत सवालों पर विचार करना इस कहानी की उपलब्धि है। 

‘दादा जी’ संस्मरण में लेखिका आशा बर्मन अपने दादाजी के जीवन पर विचार करती हैं और उनके आदर्शों पर विचार करते हुए उन्हें प्रेरक मानती हैं। एक छोटे से संस्मरण में इतने सफल, सार्थक, प्रेरणादायक जीवन को प्रस्तुत करना लेखिका की उपलब्धि है। घटनाओं, उदाहरणों के साथ प्रस्तुत की गई दादाजी की जीवन दृष्टि प्रेरित करती है। लेखिका लिखती हैं—प्रेमचन्दजी ने लिखा है कि वृद्ध लोगों को अपने अतीत की महानता, वर्तमान की दुर्दशा और भविष्य की चिन्ता से अच्छा और कोई विषय बातचीत के लिये नहीं मिलता। पर दादाजी ऐसे न थे। न उन्होंने कभी अपने माता-पिता विहीन बचपन की दुखद बातें करके अपने मन को दुखी बनाया और न कभी भविष्य की चिन्ता की। वे वर्तमान में ही जीते रहे। वर्तमान के हर पल को आनन्द के साथ, अत्यन्त सहजता के साथ जीनेवाला ऐसा दूसरा प्राणी मैंने आज तक नहीं देखा। न उन्हें राजनीति में दिलचस्पी थी और न ही घर के पचड़ों में। परिवार के व्यवसाय में नियमित रूप से जाते ज़रूर थे, वहाँ पर भी काम कम करते और हँसी मज़ाक अधिक। 

आशा बर्मन के पास संस्मरणों का एक ख़ज़ाना है। उनका संस्मरण ‘ममतामयी मिसेज वास: एक संस्मरण’ पश्चिमी समाज के प्रति बनाई हुई कुछ धारणाओं को तोड़ता है। उनके दूसरे बच्चे के जन्म से पूर्व मिसेज वास की बनाई नर्सरी यह बताती है कि वह अपने कार्य या प्रोफ़ेशन के माध्यम से किस प्रकार जीवन गढ़ती हैं। आशा बर्मन के जीवन में मिसेज वास का महत्त्व माँ, सास या घनिष्ठ रिश्तेदार से कम नहीं है। ऐसे संस्मरण को पढ़ना पश्चिमी समाज को गहरे से जानना है। लेखिका लिखती हैं—इस घटना के तीन माह के बाद एक शाम को जब हम अदिति को लेने उनके घर गए तो उनके बेटे डेविड ने हम दोनों से ऊपर के फ़्लोर पर चलने का अनुरोध किया। पूछने पर उसने बताया कि आपके लिए एक सरप्राइज़ है। ऊपर जाकर जो देखा, वह सचमुच एक सुखद सरप्राइज़ था, इतना सुखद कि मेरे आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने हमारे बेबी के लिए नर्सरी तैयार की थी, जिसमें एक बेबी के लिए पलंग के साथ ही साथ हाई चेयर, स्ट्रोलर सभी क़रीने से सजा था। हमसे पूर्व ही उन्होंने हमारे बच्चे के स्वागत की तैयारी कर ली थी। डेविड ने उपहास करते हुए बताया कि उसने अपने समवयसी मित्रों को यही बताया है कि मेरी माँ को बेबी होने वाला है। 

इंदिरा वर्मा ‘कैनेडा में’ नामक संस्मरण में अपनी भारत से कैनेडा की प्रारंभिक यात्रा का उल्लेख करती हैं। वह बताती हैं कि किस प्रकार उन्होंने कैनेडा में पहले साक्षात्कार का सामना किया था। ऐसा करते समय उनके सामने कुछ दिलचस्प सवाल खड़े हो जाते हैं, जैसे मैं पश्चिमी ड्रेस पहनूँ या साड़ी। हाथ मिलाऊँ या नहीं। इस संस्मरण के माध्यम से कैनेडा में आनेवाले भारतीयों की प्रारंभिक दुविधाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। लेखिका लिखती हैं—अब प्रश्न यह उठा कि इंटरव्यू में पहना क्या जाए। हम तो साड़ी या सलवार पहनते हुए आए थे। विदेशी पहनावा तो केवल देखा था दूसरों पर, और यह दूसरों पर ही ठीक लगता था। अपना पहनना तो दूर, कल्पना करना भी कठिन ही था। फिर कौन सी दुकान से क्या ख़रीदा जाये, यह समझ भी नहीं थी। किससे पूछें, क्या करें? अँग्रेज़ लोगों के साथ कभी बातचीत भी नहीं हुई थी, इंटरव्यू कैसे देंगे? अन्ततः इंटरव्यू में जाने का समय आ गया। अब मरता क्या न करता वाली हालत हो गई, साथ ही साथ अपना देश प्रेम जागृत हो उठा। क्यों न साड़ी ही पहनी जाए? हमारा पहनावा है और अपने विषय में भी तो कुछ बताने का यह अच्छा अवसर दिखाई दिया। जो होगा देखा जाएगा। हाँ, इतना तो पता था कि यहाँ पर पुरुष वर्ग से इस तरह की सिचुएशन में हाथ मिलाना चाहिए। सोचा, कुछ तो विदेशी होना चाहिए। 

प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी धीरेंद्र वर्मा की बेटी इंदिरा वर्मा का संस्मरण ‘मेरे बाबूजी!”, धीरेंद्र वर्मा के कैनेडा प्रवास के बारे में बताता है। एक प्रसिद्ध भारतीय विद्वान धीरेंद्र वर्मा की जीवंतता और ऊर्जा को जानना प्रेरणा देता है। वह 80 वर्ष की आयु में भी पेंटिंग सीख सकते थे, उन्होंने न केवल अपने विचारों, सोच अपितु अपने उत्साह और ऊर्जा से भी जीवन गढ़े हैं। लेखिका लिखती हैं—80 वर्ष की उम्र में बाबूजी ने पेंटिंग सीखी तथा परिवार के सभी सदस्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जो हम सबके घरों में हैं तथा उनकी याद दिलाते हैं। चित्रकारी में उनकी रुचि देखते ही बनती थी। छोटे बच्चे को मानो नया खिलौना मिल गया। कैनवस, रंग तथा अनेक साधन जुटाये व अपना समय व्यतीत करने का सुगम साधन ढूँढ़ लिया। भगवत गीता का एक सरल अनुवाद अँग्रेज़ी में एक मित्र के साथ मिलकर किया, विशेषकर हिंदी न जानने वाले बच्चों के लिए। मानसमंदता अर्थात्‌ (menta। retardation) के ऊपर हिन्दी में एक पुस्तक लिखी क्योंकि उस समय मैं ऐसी एक संस्था में काम करती थी और उन्हें लगता था कि यह क्षेत्र ऐसा है, जिसके विषय में बहुत कम ज्ञान है, भारत में तो और भी कम! 

कृष्णा वर्मा की कहानी ‘कैसे हाशिए’ रूढ़ीवादी और दकियानूसी मान्यताओं पर आघात करती है। किसी तलाक़शुदा या जिस व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो गयी है, उससे सम्बन्ध बनाना कहानी में वर्णित समाज के लिए कल्पनतीत है। लेखिका प्रश्न करती है कि ऐसे समझदार, संवेदनशील लोगों को यह समाज हाशिए पर क्यों डाल देता है। एक घटना के माध्यम से यह कहानी भारत के समाज के एक वर्ग की सोच पर प्रश्नचिह्न लगाती है। वे लिखती हैं—समीरा बिना कुछ बोले आटोरिक्शा में बैठ गई और रास्ते भर माँ की दकियानूसी बातों को सोच-सोच कर परेशान होती रही। लेकिन वह दुख और ग़ुस्से की आती-जाती लहरों में डूबी नहीं बल्कि अपने मन को दृढ़ कर आश्वस्त करती रही कि हो न हो मैं इन क़समों की लकीरों और रूढ़ियों के हाशिए को तो तोड़ कर ही दम लूँगी। उसका ऑटो कुछ दूर ही पहुँचा था कि लाल बत्ती हो गई। भीड़ भरी सड़क पर बसों, कारों के बीच ऑटो लाल बत्ती पर ज्यों ही रुका समीरा ने झट से माला गले से खेंच कर तोड़ते हुए उसके सारे मनके सड़क पर दे मारे ताकि बसों व कारों के पहियों के नीचे दब कर माँ की दी क़सम चूर-चूर हो जाए और समीरा इन रूढ़ियों से मुक्त। 

धर्मपाल महेंद्र जैन अपने व्यंग्य ‘संस्कृति के आधुनिक संस्कार’ में दो समाजों: भारत और कैनेडा और दो संस्कृतियों से प्राप्त पुराने और नए संस्कारों की रोचक और दिलचस्प तुलना करते हैं। कैनेडा में गाँजा-भाँग की प्रजातियों के सेवन को वैध बनाए जाने का मज़ाक उड़ाते हैं और उन्हें आधुनिक संस्कार मानते हैं। वे लिखते हैं—कैनेडा और अमेरिका की ठंडी हवा में मीठी-मीठी ख़ुमारी है। प्राणवायु के साथ लोगों को मेरिजुआना और गाँजे के धुएँ का लुत्फ़ मुफ़्त मिलता है। यहाँ भारत जैसा भेदभाव नहीं है कि नशीले पदार्थ खाना-पीना हो तो युवा फ़िल्म स्टारों के फ़ॉर्म हाउस में गुपचुप पहुँचो। यहाँ की उदार और सहिष्णु सरकारों ने गाँजे-भाँग की प्रजातियों कैनिवस और मेरिजुआना के सेवन को वैध बना रखा है। लोग खुले आम पॉट पीते हैं, ऑइल लेते हैं, बीज ले जाते हैं और मस्त रहते हैं। प्रजा को नशेड़ी बना कर रखो तो सरकार का निठल्लापन छुप जाता है। कैनिवस और मेरिजुआना अब कनेडियन व अमरीकी संस्कृति के आधुनिक संस्कार हैं। आगे लिखते हुए वे कहते हैं—साहित्यिक गोष्ठियों के आयोजकों की नींद हराम हो गई है, पहले कविता सुनाने के लिए कविवर को दो मिनट मिलते थे तो वे दस मिनट में माइक छोड़ पाते थे। अब कैनवस का शिव प्रसाद ग्रहण कर कवि जी आएँगे तो उन्हें माइक से हटाने के लिए चार हृष्ट-पुष्ट सिक्युरिटी कर्मियों को मंच पर बैठाना पड़ेगा। कुछ प्राचीन लेखक भाँग का गोला गटक कर अंटशंट लिखते थे, अब वैसा लिखना सहज सम्भव हो जाएगा। पर किसी कवि ने कैनिवस का गोला गटक ही लिया और मोक्ष पाने की बजाय मति भ्रम पा गए तो मंच, दंगल का अखाड़ा बन जाएगा। 

फिर तो इन सब के सेवन के बाद क्या-क्या हो सकता है, अपने व्यंग्य के माध्यम से उस जमा-घटा की मज़ेदार तस्वीर बनाते हैं। समाज और संस्कारों को समझने के लिए यह एक बेहतरीन व्यंग्य है। 

अपने एक और व्यंग्य ‘सारा टैक्स जाता कहाँ है’ में धर्मपाल महेंद्र जैन अपने व्यंग्य की धार से अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाते हैं और विश्व की एक शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के कमज़ोर पहलुओं, उसके मर्म पर उँगली रखते हैं। वे बताते हैं कि बड़े-बड़े दावों और आँकड़ों आदि के चलते भी एक व्यक्ति क्या महसूस कर रहा है? या व्यक्ति का जीवन सरकारी नीतियों के चलते किस प्रकार प्रभावित हो रहा है, उसकी दिलचस्प और मज़ेदार व्याख्या करते हैं। वे लिखते हैं—सरकार की नक़ल करते-करते मेरा घाटा ख़ूब बढ़ गया तो पिछले हफ़्ते मैंने हिसाब लगाया। मैं पैंतीस परसेंट इनकम टैक्स देता हूँ, तेरह प्रतिशत जीएसटी (एचएसटी), सात प्रतिशत से अधिक पेंशन प्लान में और छह प्रतिशत मैचिंग अंशदान सरकार को सौंप देता हूँ। घर के लोन पर तीस प्रतिशत ईएमआई और कार की लीज़ पर बारह प्रतिशत बैंक ले लेता है। इसके ऊपर प्रॉपर्टी टैक्स और हेल्थ प्रीमियम भी देता हूँ। आपका गणित अच्छा हो तो जोड़ लगाना और मुझे ख़र्चे का टोटल बताना, क्योंकि सरकार अब भी कह रही है जनता को पैसे बचाना चाहिए। आपका गणित मेरे जैसा या मेरी सरकार जैसा कमज़ोर हो तो हिसाब लगाने की ज़रूरत नहीं है। मेरी और मेरे देश दोनों की नियति घाटे में चलना है। खाने-पीने और कपड़ों का ख़र्च मैंने कभी अपनी जेब से दिया नहीं। ये सब ख़र्चे मेरे क्रेडिट कार्ड वाले देते हैं। मैं उनका मिनिमम पेमेंट करता रहता हूँ और वे लिमिट बढ़ाते रहते हैं। 

‘जूता पुराण’ में स्वर्गीय नरेंद्र शर्मा जूतों को अपने व्यंग्य का आधार बनाते हैं। उनकी उपयोगिता, उनके प्रयोग, उसमें बैठे पूँजीवाद, समाजवाद और उनके कारण से व्यक्ति को होने वाले विभिन्न प्रकार के अनुभवों की दिलचस्प चर्चा करते हैं। यह एक सारगर्भित और सटीक व्यंग्य है। वे लिखते हैं—जूतों में कुछ विशेषताएँ पायी जाती हैं। हमेशा नया जूता ही काटता है। आपने कभी सुना है कि पुराने जूते ने काट लिया। जूतों में भेदभाव की भावनाएँ भी होती हैं। जैसे, पुरुषों के जूतों लिए पुल्लिंग शब्द और स्त्रियों के जूतों के लिए स्त्रीलिंग शब्द। अगर आप जनतंत्र प्रणाली का सच्चा रूप देखना चाहते हैं तो जूतों की सभा में जाना न भूलें। छोटे, बड़े, सभी जाति, वर्ग के जूते एक ही क़तार में रखे मिल जाएँगे। 

निर्मल सिद्धू की कहानी ‘अस्थि कलश’ प्रवासियों के जीवन, महत्त्वाकांक्षाओं व उनकी जीवन शैली पर मार्मिक सवाल उठाती है। विक्की का पिता बलदेव उसे कैनेडा जाकर न रहने की सलाह देता है और वहाँ के समाज की सामाजिकता और जीवन शैली पर सवाल उठाता है। वे लिखते हैं, “वो लाख चले जाएँ दूसरे ग्रहों पर, लेकिन इस मशीनी युग में सब के सब मशीन बन के रह गये हैं। ऐशपरस्त तो हैं ही मतलबपरस्त भी कम नहीं। ख़ुश्क लोग, ख़ुश्क उनका देश। अपना मतलब है तो बात करते हैं, नहीं तो किसी की परवाह नहीं करते . . .”  बलदेव भी पीछे नहीं हट रहा था। “यह उनका अपना जीने का ढंग है, इससे हमें क्या लेना-देना है?” विक्की ने बहस जारी रखी। “और भी सुनो पुत्तर, उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं किसी के लिये कोई आदर-मान नहीं, कोई सत्कार नहीं है। ऐसे देश में रहा तो जा सकता है परन्तु अलग-थलग सा होकर। अपनी पहचान बनाते एक उम्र निकल जाती है। साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं, बस दौड़ते रहो, दौड़ते रहो . . .” बलदेव विचलित हो उठा था। 
उसकी चेतावनियों की परवाह न कर विक्की जब कैनेडा जाता है तो उन प्रवासियों के जीवन शैली और सोच के कारण मृत्यु का शिकार हो जाता है। वह दृश्य संवेदना और सनसनी से भरा हुआ है। वे लिखते हैं—विक्की ने भी रिंकू को देख लिया था। वह समझ गया कि लवली अपनी पिस्तौल लेने अंदर की ओर भागा है। वह नहीं चाहता था कि विवाह में कोई पंगा खड़ा हो। इसलिए रिंकू और बिट्टू को समझाने के लिये वह कार की तरफ़ बढ़ा। बल्ली और हैप्पी भी उसके पीछे लपके, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। धाँय-धाँय . . . की आवाज़ के साथ रिंकू के पिस्तौल से निकली गोलियाँ विक्की के शरीर में धँस चुकी थीं। वह लहरा कर वहीं सड़क पर ढेर हो गया। रिंकू और बिट्टू ने गाड़ी स्टार्ट की और भाग लिए। लवली बाहर आया तो विक्की की हालत देख कर सकते में आ गया। बल्ली और हैप्पी गन उठाये कार के पीछे भागे परन्तु सब बेकार हुआ। हत्यारे तो कब के सुरक्षित भाग चुके थे। 

बलदेव के हाथ में रखा अस्थि कलश किसी व्यक्ति की स्मृति ही नहीं है बल्कि सुख की अंधी दौड़ में लगे प्रवासियों की सोच का विश्लेषण करती है। वे प्रवासी जो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते ग़लत रास्तों पर पड़ जाते हैं। धनार्जन या सुख-सुविधा जुटाना ही जीवन का मूल नहीं पर अब उस जीवन में अस्थि कलश है और एक लंबा और स्याह रास्ता। प्रवासियों के जीवन को चित्रित करती यह एक मार्मिक कहानी है। 

परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव की कहानी ‘उलझन’ प्रवासी जीवन की ऐसी ही एक दर्दनाक, मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करती है। जिसमें एक व्यक्ति अपनी माँ का ही उपयोगी या अनुपयोगी होने के नाते विश्लेषण करता है। आर्थिक दृष्टि से अनुपयोगी हो जाने पर उसे छोड़ देता है। अनजान शहर में, एक अनजान भाषा के साथ अपनी नियति को खोजती एक बूढ़ी औरत इस कहानी की मुख्य पात्र है। वह अपनी कहानी कुछ यूँ कहती हैं—वह महिला बोली, “बेटी यह बात नहीं है, मुझे मेरे बेटे ने कैनेडा बुलाया था। चार महीने से यहाँ हूँ। सारा दिन घर का काम कर-करके मैं थक जाती न कोई बोलने को, न बात सुनने को। मन बहुत घुट गया है पर यह बात नहीं है। आज तो उसने हद ही कर दी। कहता है कमाई तो है नहीं तुम्हारी, उस पर काम भी ठीक से नहीं करती हो, जाओ कहीं और ठिकाना देखो। यह भी नहीं देखा कि रात होने को है, ठंड भी इतनी है। कहाँ जाऊँगी। मियाँ बीबी का झगड़ा और ग़ुस्सा मुझ पर। अब मैं कहाँ जाऊँ। कपड़े लत्ते लेने का भी समय नहीं दिया। यह टेलीफ़ोन नम्बर मेरे एक दूर के रिश्तेदार का है। शायद दो-चार दिन को सहारा दें। फिर आगे की देखूँगी। एक यही आसरा है, नहीं तो सड़क पर सोना होगा।” 

यह कहानी प्रवासियों कि उस मनोवृति को भी विश्लेषित करती है, जो व्यक्तियों को वस्तु मानती है। यह कहानी वह गहरा दंश छोड़ जाती है, जो मन के अंदर गहरा असर करता है। 

परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव की लघुकथा ‘बोझ उतर गया’ भी क़ीमती, सजावटी लेकिन उपयोग न होने वाले सामान की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न उठाती है और अंततः मुख्य पात्र किसी और को वह सामान दे बेहतर महसूस करता है। वे लिखती हैं—वह सोचती कौन देखता है इन सब को? कभी-कभार आने वाले दोस्त भी अब दर्शन नहीं देते। सालों बीत गये हैं, इन्हें प्रयोग में लाए। प्रति माह इन्हें निकाल कर साफ़ करना और वापिस अलमारी में सजा देना मात्र ही इनकी उपादेयता रह गई है। इस जीवन का क्या भरोसा? न जाने अंबरीश की तरह, मुझे भी ईश्वर बिना किसी अग्रिम सूचना व चेतावनी अपने अपने परिवार के साथ इतने सुदूर शहरों में बस गये हैं कि पोते-पोतियों को देखने को भी मन तरस जाता है। भगवान सदा सुखी रखे उन्हें। जुग-जुग जिए मेरे लाल। 

प्रीति अग्रवाल अनुजा की लघुकथा ‘देहरी’ भी देहरी से बाहर निकलने के परिणामों पर विचार करते हैं और ऐसे शब्दों, मुहावरों पर सवाल उठाती है। उनकी लघु कथा ‘मैं, श्यामली’ भी भारत में दहेज़ प्रथा और उसके परिणामस्वरूप होने वाले शोषण और बेमेल विवाह की बात करती है। उनकी लघुकथा ‘पाव भर सच’ भी इस दुनिया में लुप्त होते सच की खोज की कहानी है। 

भारतेंदु श्रीवास्तव की कहानी ‘आधुनिक औरंगजेब’ उत्तर प्रदेश में उनके द्वारा अनुभव किए गए उस आतंकित वातावरण की कहानी है, जो राम के स्मरण, कीर्तन आदि पर भी सवाल खड़े करती है और उसे अपराधिक बना देती है। वे लिखते हैं—माताजी और मेरे भाई का चेहरा भयभीत सा लगने लगा। मैंने कीर्तन समाप्त होने पर अनुज से पूछ तो वह टाल गया। तब मैंने माताजी से पूछा, कुछ हिचकिचाने के बाद वह बोली, “बेटा भारतेन्दु, रज्जू को डर है कि कहीं पुलिस ने यदि सुन लिया कि यह लोग राम भगवान का कीर्तन कर रहे हैं तो आफ़त आ जाएगी।” मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि कितना डरावना वातावरण हो गया था। मेरा भाई पी.सी.एस. अधिकारी है और वह भी अपने घर में राम का खुलकर भजन करने में डर रहा है। मैं कुछ और नहीं गा सका और बोला, “अम्मा! आज मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है कि हमारे पूर्वजों ने क्या महसूस किया होगा। जब औरंगजेब की सेनाएँ हिंदुओं को सताती थीं। स्वाधीन भारत में पाकिस्तान बनने के बाद भी यह स्थिति है, क्या इसीलिए बाबूजी ने नौकरी त्याग दी थी गाँधीजी की घोषणा करने पर? क्या तुमने स्वतंत्रता संग्राम में इसी अनुभव के लिए सक्रिय भाग लिया था?” 

मानुषी चटर्जी की कहानी ‘स्पेस’ मुख्य रूप से पश्चिमी समाज में व्याप्त उस धारणा की बात करती है, जो सम्बन्धों में ‘स्पेस’ की माँग करती हैं। भारतीय समाज इतना घुला-मिला और गुँथा हुआ समाज है कि अपने विकास और रचनात्मक जीवन के लिए किसी व्यक्ति को कोई ‘स्पेस’ चाहिए, यह उसकी कल्पना में शायद नहीं आता। परंतु पति का देहांत होने के बाद उसे सहायता करनेवाले घनिष्ठ मित्र और आत्मीय भी कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी पर दूर देश में चले जाते हैं। वह उसका आधार ‘स्पेस’ देना ही बताते हैं। वे लिखती हैं—दो दिन बाद अमित का फ़ोन आया था, “कल बाहरेन जा रहा हूँ, तीन साल के कन्ट्रैक्ट जॉब पर, ख़्याल रखना अपना। इस बीच मेरे बग़ैर जीना सीखो। ख़ुशी अपने में होती है, कोई और ख़ुशी नहीं दे सकता किसी को फिर मिलेंगे।” वह हक्की-बक्की रह गई थी। इतिहास ने दोहराया था अपने को शायद। फ़र्क़ बस इतना था कि अमित ने जो रास्ता चुना, वह मनोज के साथ कभी नहीं कर पाई थी। डॉ. जोन्स के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे, “स्पेस हनी, स्पेस। ऐंड लर्न टु लेट गो . . . दैट इज द मंत्रा।”

सम्बन्धों में ‘स्पेस’ इस कहानी का मुख्य सूत्र है, जो हमें दो समाजों और व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध और उसके विकास के बारे में लेखिका की दृष्टि से अवगत कराते हैं। अपने चरम बिंदु में सामान्य कहानियों के क्लाईमेक्स से अलग होते हुए यह कहानी पश्चिम की एक महत्त्वपूर्ण धारणा की व्याख्या करती है। 

राज महेश्वरी का ‘प्रोफ़ेसर आदेश जी: एक संस्मरण’ दिल को छूता है। त्रिनिडाड में कई दशकों तक हिंदी की सेवा करने के बाद और एक क़द व ऊँचाई प्राप्त करने के बाद भी प्रोफ़ेसर हरिशंकर आदेश की विनम्रता और सादगी प्रेरणादायी है। एक कठिन समय में हरिशंकर आदेश जी की राज महेश्वरी जी से मुलाक़ात के बाद यह घटना राज महेश्वरी को प्रोफ़ेसर हरिशंकर आदेश का प्रशंसक बना देती है। प्रोफ़ेसर आदेश का यह गुण पूरे हिंदी समाज के लिए प्रेरक हैं। वे लिखते हैं—सदैव उनके प्यार एवं उत्साह भरे, आत्मीय शब्दों का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा है। मेरे पूजनीय स्वर्गीय पिताजी कभी किसी की आलोचना नहीं करते थे। यदि सम्भव होता तो वे केवल उत्साह और सहायता ही प्रदान करते थे। आदरणीय प्रोफ़ेसर आदेश जी में भी मैंने यही गुण और अन्य अनुकरणीय गुण एवं करतबों का भंडार पाया। राज महेश्वरी जी की रचना ‘अनमोल कटु वचन’ आत्म विश्लेषण और आत्म परिष्कार को प्रेरित करती है। 

विजय विक्रांत की कहानी ‘टैक्सी ड्राइवर का एक दिन’ डायरी का एक पन्ना शीर्षक से संगृहीत है। यह संस्मरणनुमा डायरी टैक्सी ड्राइवर के जीवन में आने वाले खट्टे-मीठे-कड़वे पलों को याद करते हैं और एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में भारतीयों के जीवन के अनुभव को साझा करती है। वे लिखते हैं—बहुत ही धीमी आवाज़़ में वो कहने लगे, “आज हमारी शादी की पैंसठवीं सालगिरह है। तीन साल से मेरी पत्नी डिमेंशिया से बीमार है और किसी को भी नहीं पहचानती है। आज मैं उसकी मनपसन्द की ड्रेस साथ लाया हूँ और इसी ड्रेस में मैं उसे देखना ही नहीं बल्कि आज का सारा दिन उसके साथ बिताना चाहता हूँ। चाहे वो मुझे पहचाने या न पहचाने, मैं तो रोज़ बिना नागा अपनी डार्लिंग के साथ नाश्ता करता हूँ। आज बसों की हड़ताल के कारण मेरा सारा आने-जाने का हिसाब गड़बड़ हो गया है, इसी लिए टैक्सी लेनी पड़ी। अब तक हम नर्सिंग होम पहुँच गये थे और सर जी अपने सामान सहित बाहर आ गये थे। जब वो टैक्सी का किराया दे रहे थे तो एकाएक मुझे अपने माँ-बाप याद आ गये। यदि वो ज़िन्दा होते तो शायद इसी उमर के होते। अटूट प्यार की गाथा सुनकर मैं तो एक दम हैरान रह गया। श्रद्धा से मेरा दिल भर आया और मेरे नतमस्तक होकर यह कहने पर कि “सर जी, शादी की सालगिरह की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, आपका ये ट्रिप मेरी ओर से इस शुभ दिन की भेंट है।” 

उनका व्यंग्य लेख ‘कोरोना की डायरी का पन्ना’ एक कठिन समय में हास्य और व्यंग्य का सहारा लेकर जीवन की मस्ती और उत्साह को ढूँढ़ता है। यह एक कठिन काम है पर उन्होंने बड़े दिलचस्प तरीक़े से यह किया है। वे आगे लिखते हैं—अरे इन सब बातों के दौरान में आपको कुछ अहम बातें बतानी तो मैं भूल ही गया। आईसोलेशन के इस माहौल में आजकल रेडियो पर जो गाने बजते हैं। उनका इशारा भी मेरी तरफ़ होता है। आपस की दूरी को क़ायम रखने के जो गाने अब दिन रात बजाये जाते हैं, उनमें से कुछ हैं। ‘चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे’, ‘फिर भी कभी इस नाम को तेरे आवाज़ मैं न दूंगा’, ’कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ’, ‘तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर’ वो लोकप्रिय गाने जो पहले ख़ूब बजाये जाते थे लेकिन अब बिल्कुल बन्द हो गये हैं। उनके कुछ नमूने हैं: • लग जा गले से फिर ये हसीं रात हो न हो, शायद इस जन्म में मुलाक़ात हो न हो’ • बाँहों में चले आओ, हम से सनम क्या पर्दा • आ नील गगन तले प्यार हम करें • आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी मुलाक़ात आधी • बरसात में हम से मिले तुम, सजन, तुम से मिले हम। 

इस संग्रह की एक और विशेषता इसके संस्मरण हैं। इसी कड़ी में विद्याभूषण धर द्वारा उनके माता और पिता की स्मृति में लिखा गया संस्मरण ‘फूल और माली’ दिल को छूता है। माता-पिता की स्मृति में लिखे गए उनके शब्द अर्थपूर्ण है—इस पुरुष ने रात-दिन एक करके और अपने सपनों की होली जला कर अपने बच्चों की हर ख़ुशी पूरी की। उनकी हर ख़ुशी में उनके साथ ख़ुश हुआ और उनके छोटे से दर्द से ख़ुद दर्द का एहसास किया और इस बात की पूरी कोशिश की कि उसके बच्चे जीवन में सिर्फ़ सफल ही नहीं एक भी बनें। और माँ का तो क्या कहना, जिसके कोमल होंठों ने लोरियाँ गा कर सुनाई। जिसने ख़ुद गीले में सोकर हमें सूखे पर अपने कोमल हाथों से थपकियाँ दे कर सुलाया। आज वही कोमल हाथ वृद्ध अवस्था में सूख चुके हैं। नीली-नीली रगें हथेली पर साफ़ दिख रही हैं और गुज़रे दिनों का परिश्रम याद दिला रही हैं। इस नारी ने हमें अपनी कोख में सहेजा और हर पीड़ा सह कर हमें जनम दिया। और फिर कभी प्यार से तो कभी मार से हमें जीवन का हर वह पाठ पढ़ाया, जो हमें आज तक नेक राह पर बढ़ने को हमेशा प्रेरित करता है। बचपन में हुई पिटाई अब अमृत तुल्य लग रही है पर तब कितना ग़ुस्सा आता था। 

डॉक्टर शैलजा सक्सेना एक सशक्त रचनाकार हैं। उनकी कहानी ‘उसका जाना’ पश्चिम में विशेष रूप से व्याप्त एक महत्त्वपूर्ण संकल्पना घरेलू हिंसा पर बात करती हैं। साथ ही यह कहानी निम्न या निम्न मध्यम वर्ग के भारत से कैनेडा में जाने, बस जाने, नौकरी या करियर ढूँढ़ने और उसके परिमाणत: अस्त-व्यस्त जीवन की भी पड़ताल करती है। एक निम्न वर्ग का क्लीनर जब रिश्तेदारों के सहारे विदेश चले जाता है और उसकी समझ, रूढ़िवादी धारणाओं और अहंकार के चलते उसका नौकरी और परिवार से मतभेद, मनभेद और असंतुलन हो जाता है तो उसकी पत्नी और परिवार पर क्या गुज़रती है? यह कहानी उस ख़ुलासे के माध्यम से हमें घरेलू हिंसा की उस मर्मस्पर्शी दास्तान तक ले जाती और उसका हृदयस्पर्शी चित्रण करती है। वे लिखती हैं—कितनी बार तो माँ के पास डबलरोटी ख़रीदने के लिए पैसे नहीं होते, जबकि वहाँ पास के जग्गू की बेकरी से पाँच रुपये में इतनी बड़ी डबलरोटी ले आते थे वे लोग, “क्यों आये हैं वो यहाँ?” बेला तकिये में मुँह डाल कर फफक कर रो दी थी। उसके बाद से तो यह सिलसिला बन गया था कि जब बापू आते तो माँ की पिटाई एक-दो बार होती ही थी। एक-दो बार तो चुन्नू-बंटी भी उठ बैठे, बंटी ने अगले दिन माँ के नीले पड़े गाल को देख कर कहा था, “बापू से कह दो माँ कि वो यहाँ न आया करे।” एक बार मकान मालिक ने भी आकर पूछा था कि रात को आवाज़ें क्यों आ रहीं थीं, माँ ने बेला के माध्यम से ही बहाना कर दिया था। वह अँधेरे में गिर पड़ी थी कि उसकी नज़र कमज़ोर हो गई है। 

आख़िरकार इस दर्द, बेबसी और अत्याचार को कब तक छुपाया जा सकता है। लीला साहस एकत्र करती है और एक स्थानीय डॉक्टर से आपबीती कहती है और अपने अत्याचार, आपदा और शोषण को चुनौती देती है। इस एक कहानी के माध्यम से शैलजा सक्सेना ने निम्न वर्ग के भारत से कैनेडा जाने, नौकरी ढूँढ़ने, विभिन्न प्रकार की दकियानूसी धारणाओं का शिकार होने और उनके चलते परिवार व पत्नी का शोषण करने की गहरी दास्तां प्रस्तुत करते है। यह और ऐसी कहानियाँ ऊपर से सुखी और समृद्ध प्रवासी समाज के दरवाज़ों में छुपी हुई उस घृणित गंध को बाहर करते हैं, जो उस समाज की सोच को विकृत, हिंसक और अत्याचारी बना रहा है। 

उनकी लघुकथा ‘यह दुनिया-वो दुनिया’ सतही और दोगले लेखक की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। 

उनका निबंध ‘कहत कबीर सुनो भाई साधो’ इस संग्रह की एक विशेष उपलब्धि है। यह निबंध उनकी जानकारी, विश्लेषण शक्ति, संश्लेषण शक्ति और सटीक निष्कर्षों को प्रस्तुत करता है। यह निबंध कबीर और उनके लेखन को समझने की कुंजी है—फिर स्थानीय समाचार पत्र में तीसरे पन्ने को उत्सुकता से खोल, कार्यक्रम की रिपोर्ट ज़ोर-ज़ोर से पढ़ कर सुनाने लगे पर अंतिम पंक्तियों तक आते-आते धूप सी चमकती उनकी आवाज़ पर क्षोभ और दु:ख के काले बादल छा गए, लिखा था: 'वर्मा जी के भव्य घर को देखते हुए उन्हें आधुनिक युग का प्रेमचंद तो नहीं ही कहा जा सकता। उन्होंने साहित्य को बहुत कुछ दिया है तो साहित्य ने भी उनका घर भर दिया है। हम इसके लिए उनके ईमानदार प्रकाशकों को भी धन्यवाद देते हैं! 

‘हिंदी प्रचारिणी सभा की आवश्यकता’ नामक संस्मरण में श्याम त्रिपाठी कैनेडा की अत्यंत महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘हिंदी चेतना’ की कथा बताते हैं। उन्होंने वर्षों तक इस पत्रिका का संपादन किया। पश्चिम में हिंदी पत्रिका निकालना अपने आप में एक चुनौती है। एक तरफ़ तो आपको क़ानूनी प्रावधानों को पूरा करना है और दूसरी तरफ़ अपनी भाषा के समर्थकों, लेखकों को जुटाना और उसके निरंतर प्रकाशन की व्यवस्था करनी है। वे लिखते हैं—उस समय इस पत्रिका का रूप बहुत ही छोटा था, जैसे कि 'नवनीत या सरिता' की तरह। सारी पत्रिका हस्तलिखित होती थी और इसे मैं तीन महीने तक इसकी फोटो कॉपी करवाकर लिफ़ाफ़े में डालकर सदस्यों के पास डाक से भेज देता था। उस समय इसकी केवल 50 प्रतियाँ छपती थीं। इतनी त्रुटियाँ हो जाती कि मुझे अंक निकालने से पहले ही क्षमा याचना करनी पड़ती थी। इसकी सदस्यता बढ़ने लगी। वार्षिक शुल्क केवल 10 डॉलर था। कोई भी आजीवन सदस्य नहीं था। इस प्रकार दो वर्षों तक यह सिलसिला इस प्रकार चला। 

यह एक कठिन और चुनौतीपूर्ण कला है। उनकी साधना का अभिनंदन। 

समीर लाल ‘समीर’ की कहानी ‘कड़वी निंबोली’ विशेष है, जहाँ वे अपनी स्मृतियों में माँ की याद को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। यह माँ, वह माँ नहीं है, जो फोटो में दिखाई देती हैं बल्कि वह है, जो बेटे की कल्पना में जीवंत, जागृत और ममतामयी है। वे लिखते हैं—आज वो मौसी के साथ माँ के बिस्तर पर सो गया। मौसी उसके सर पर माँ की तरह ही हाथ फिराती रही। माँ की ख़ुशबू आ रही थी उसके पास से। उसने मौसी से माँ के बारे में पूछा। मौसी ने उसे बताया कि मौत क्या होती है और यह भी, माँ अब मर चुकी है और अब कभी वापस नहीं आएगी। पता नहीं क्यूँ अपनी सबसे प्यारी मौसी से यह सुन कर उसका मन बैठ गया। आज मौसी उसे अच्छी नहीं लग रही थी और उसके पास से आती माँ की ख़ुशबू भी न जाने कहाँ खो गई थी। वो करवट बदल कर नम आँख लिए सो गया। 

समीर अपने रोचक और दिलचस्प व्यंग्य ‘बेबी खाना खा लिया’ में गहरे मुद्दों को भी व्यंग्य की धार पर प्रस्तुत करते हैं। बात चाहे पितृसत्तात्मक समाज या मातृसत्तात्मक समाज की हो, चाहे भाषा की बात हो अथवा सम्बन्धों को दिखाने और जीने में अंतर। इन सब के माध्यम से वह भारतीय समाज के मूल्यों और मान्यताओं को रेखांकित करते हैं। 

अपने व्यंग्य लेख ‘विज्ञान और कला: एक अध्ययन’ में वे भारत में अपनी रचना क्षमता के विकास में आने वाली चुनौतियों, कठिनाइयों की बात करती हैं और वे उस संयोग को महत्त्व देते हैं, जिसके कारण सब चुनौतियों से एक कलाकार अपनी सम्भावनाओं से पार पाता है। वहीं पश्चिम में यह एक विज्ञान है। उनकी दोनों व्यंग्य रचनाएँ पूर्व और पश्चिम दोनों समाजों का एक सटीक, सारगर्भित, अर्थपूर्ण, तुलनात्मक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। 

सविता अग्रवाल ‘सवि’ की कहानी ‘एक और विदाई’ पश्चिम में व्याप्त एक और विकृति की ओर इशारा करती है। जहाँ माँ-बाप के दबाव के चलते शादी तो हो जाती है परंतु पति या पत्नी एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते। अन्य सम्बन्धों के कारण उनके जीवन में कटुता और मालिन्य आ जाता है। वे लिखती हैं—छह माह बीत गए। एक दिन कोई दूर के रिश्ते में चाची लगती थीं वह आ गई। तब रात को विमला की सास उनसे सुरेन्द्र की पहली पत्नी जिससे उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका था, के बारे में बात कर रही थीं। अचानक विमला दूध का गिलास ले कर आ गई। दोनों एकाएक चुप हो गयीं, विमला को शक हुआ, वह झट से बाहर चली गई और चुपचाप उनकी बातें सुनने लगी। तब उसे पता लगा कि वह अपने पति की दूसरी पत्नी है। उस रात वह सो न सकी, अपने भविष्य को लेकर वह चिंतित थी। अपने माता-पिता से भी वह क्या कहती। वे तो पहले ही ग़रीबी से तंग थे। बेटी का बोझ कैसे उठाते। 

पारिवारिक सम्बन्धों में अपूर्ण जानकारी, महत्त्वाकांक्षा आदि के चलते झूठ, दोगलेपन का सहारा लेना पड़ता है, जिसके कारण बहुत सी मासूम जिंदगियों को कठिन नियति स्वीकार करनी पड़ती है। 

उनका लिखा ‘पिताजी का प्यार’ और ‘माँ’ संस्मरण स्मृतियों में डूब जाता है और जीवन की प्रारंभिक मीठी और भीगी यादों में खोकर जीवन के नए अर्थ ढूँढ़ता है। 

सुमन कुमार घई की कहानी ‘सुबह साढ़े सात बजे से पहले’ नए समाज की नई चुनौतियों को हमारे सामने रखती है। जिसे भारतीय समाज अकल्पनीय मानता है यानी पत्नी की कमाई करें और पति उसके आधार पर जीवन यापन करें। कैनेडा में रहने वाला एक दंपत्ति उस मिथ को तोड़ता है और तय करता है की बदलती हुई परिस्थितियों में अपनी रचनात्मक क्षमताओं को तलाशने के लिए यह आवश्यक है कि पत्नी नौकरी करे और पति घर का कामकाज देखे। वे लिखते हैं, “देखो राजीव, मेरी नौकरी इतनी अच्छी है और इतना तो कमा ही लेती हूँ कि तुम्हें कोई चिंता होनी ही नहीं चाहिए। आराम से घर रहो आज के बाद तुम घरेलू पति और मैं कमाऊ पत्नी!” कहते हुए मीना मुस्कुराने लगी। राजीव ने भी हँस के टाल दिया और प्लेटें उठा कर सिंक में रखने लगा। “न, न, “ मीना हँसी– “सिंक में नहीं, धो कर डिश वाशर में लगाइये जनाब। अभी से आपका नया करियर शुरू हो रहा है।” 
एक भारतीय मन के लिए यह कठिन है परंतु नए समाज व नयी परिस्थितियों, नई चुनौतियों के बरक्स यही स्वीकार्य जीवन है। इस तरह से यह संग्रह पश्चिम में रह रहे प्रवासी मन की एक प्रामाणिक तस्वीर भी प्रस्तुत करता है। 

सुमन घई की कहानी ‘लाश’ एक अत्यंत सशक्त कहानी है। यह कहानी एक लावारिस पड़ी लाश की है, जिसे लोग अज्ञात व अपरिचित समझ रहे हैं। यह कहानी वास्तव में उस समाज की अपेक्षाओं, महत्त्वाकांक्षाओं, चुनौतियों और गुत्थियों को प्रस्तुत करती है, जिसके शिकार केवल कैनेडा में रहने वाले प्रवासी ही नहीं हैं। क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी ढंग से अपने परिचित और रिश्तेदारों को बुलाना, उन्हें नए परिवेश में सैटल करने का प्रयास करना, अपनी बेटियों को एक आत्मविश्वासी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करने के बजाए संकोची, शर्मीली, अपने में ही रहने वाली महिला के रूप में बढ़ोतरी उन्हें एक ऐसे रास्ते पर ले जाता है, जिसका अंत और नियति पूरे समाज के सोच और चिंतन पर सवाल खड़ा करता है। उसका मूढ़ होना, अवसाद में होना या उसका पागलपन होना वास्तव में उसके समाज का ही प्रतिबिंब है। वे लिखते हैं, “बता रही हूँ। अपराध-बोध में जीती रही बेचारी। एक ऑफ़िस में काम करती थी। वहाँ पर भी नहीं बता पाई अपनी शादी के बारे में। पेट से हो गई तो वहाँ पर भी पेट के साथ-साथ सवाल भी उभरने लगे। क्या कहती किसी से? बस अपने अन्दर ही अन्दर घुटती रही। अपनी ज़िन्दगी अपने जीने को ही पाप समझती रही। नौकरी छोड़ दी एक दिन। बेटा भी पैदा हो गया। उसके बाद तो अपराध-बोध और भी बढ़ गया। अपने ही बेटे को पाप की निशानी मान बैठी। माँ थी पर ममता नहीं थी। जन्म तो दिया पर प्यार से चूमा तक नहीं उसे कभी। नरेन्द्र और इसके माँ-बाप इसकी हालत देखकर और दुखी थे। पर अपना किया तो पलट नहीं सकते थे। बात बस वहीं अटकी हुई थी। सभी जी रहे थे एक ही छत के नीचे। एक-दूसरे से टूटे हुए। कोई सम्बन्ध था तो बस दोष का उस परिवार में। कोई अपने को दोष देता तो कोई दूसरे को।” वे आगे लिखती हैं, “बेचारी बेटी होकर भी कभी बेटी न हुई, शादी हुई पर बीवी न बनी, जन्म तो दिया माँ न बन सकी। ममता अगर मन में उठी तो मन के पाप ने उसे दबा लिया। मर तो बेचारी उसी दिन गई थी, जिस दिन इसकी शादी हुई थी। लाश को कभी न कभी तो गिरना ही था। आज वह भी गिर गई।” 

हंसा दीप की कहानी ‘काठ की हांडी’ कोरोना की बात करती है। केवल आज ही नहीं बल्कि कई दशकों तक इस विषय की संवेदना, गुत्थियों को लेखक प्रस्तुत करते रहेंगे। हंसा दीप की कहानी भी कोरोना के इस कठिन दौर में जीवन के उत्सर्ग का चित्र प्रस्तुत करती है। यह कहानी इस कठिन दौर में जब हर घर में मौत दस्तक दे रही है, जीवन के स्वरों को साधने की कोशिश करती है। कहानी की रोज़ा इस दुनिया के सुख, जीवन और नयी पीढ़ी के लिए अपने को बलिदान करने के लिए प्रस्तुत है। वे लिखती हैं—एक घंटे का समय बीत चुका था। आधी जगी, आधी सोयी वह स्टीव से बातें कर रही थी। डिरांग की आँखें धीरे-धीरे खुलने लगी थीं, रोज़़ा की बंद होने लगी थीं। किन्तु उसके होठों पर मुस्कान थी क्योंकि सामने स्टीव खड़ा था, उसका हाथ पकड़ने के लिए। जीवन का लेन-देन हो गया था। मौत ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया था। ऊपर वाली छत धुँधलाने लगी थी। पल भर में लिया गया फ़ैसला सुकून की मौत दे गया था। अपनी मृत्यु वरण करने का सुख हर किसी को नहीं मिलता, रोज़ा को मिला था। काठ की हांडी स्वयं चूल्हे पर चढ़ गयी थी ताकि आग बरक़रार रहे। 

हंसा दीप की कहानी ‘शत प्रतिशत’ पश्चिमी समाज, परिवार वहाँ पर दिखते तनाव, बच्चों पर होने वाला शोषण की बात करती है। इन सबके कारण उनका विकसित न हो पाना, लुंज-पुंज आत्मविश्वास ही इसके मूल में है—वह जहाँ बैठा था वहीं से उसे एक ज़ोर का तमाचा पड़ा था। जिसके दबाव से वह कुरसी से गिर कर दीवार से टकराया था। सिर पर, हाथ पर और नाक पर चोटें लगी थीं और हरे-नीले निशान बन गए थे। नाक के रास्ते ख़ून बहने लगा था टप टप। दूध की सफ़ेदी में ख़ून की लालिमा मिलकर एक नए मटमैले रंग को जन्म दे रही थी, उस अबोध और मासूम बच्चे के मन को मैला करते हुए। उसके बाद जब भी दूध का कप हाथ में होता उसके हाथ काँपने लगते, ज़ोर से आँखें भींच करके दूध गटक जाता वह, कप नीचे रख कर ही साँस ले पाता। इस कहानी के केंद्र में वह युवक है, जिसको बचपन में प्यार, स्नेह और विश्वास का वातावरण नहीं मिला। वे लिखती हैं—मुक्ति पाने का दिन। हर उस ख़्याल से मुक्ति, जो आज तक उसका पीछा ही नहीं छोड़ पाया। हर उस चोट से मुक्ति जो शरीर से होती दिल तक पहुँची थी, लहुलुहान करने। शरीर के अंगों की चोट के घाव तो कब से भर चुके थे किन्तु उन चोटों ने जो मन पर घाव दिए वे इतने सालों बाद भी ताज़ा हैं। किसी को अपना नहीं मान पाया वह। हर कोई आतातायी ही लगता रहा उसे। जो भी उसके क़रीब आता उसे लगता वह एक मुखौटा पहने है। मुखौटा उतरेगा तो एक हिंसक पशु शिकंजे में कस लेगा उसे। वह छटपटाता रहेगा, बचते-बचाते हुए मदद की गुहार लगाता रहेगा। वे आगे लिखती हैं—उसके मस्तिष्क में कुलबुला रहे थे वे सारे सवाल जो अब उत्तर पा चुके थे और उनकी जगह ले रहे थे ख़ून से लथपथ वे शरीर जो अब किसी से न्याय की उम्मीद भी नहीं कर सकेंगे। जिन लोगों की मदद की वे अपने नहीं थे पर उसे बहुत सुकून मिला था यह सब करके। यह मानवता की पहचान थी जो अभी शेष है उसमें। अपनी द्वेष की भावना को ख़त्म करने के लिए यह रक्तपात आवश्यक था क्या, अपने साथ हुए दुर्व्यवहारों को जोड़ते-जोड़ते उसने उनका गुणा कर लिया था और अब एक के बाद एक भाग लगाकर, इन्हें विभाजित कर अपने चेतन मन से बाहर कर रहा था। 

यह संवादहीनता उसके व्यक्तित्व को एक असामाजिक का आकार देती है। अपने व्यक्तित्व की निष्प्रयोजनता को देखकर वह आत्महत्या करना तय करता है। समाज का एक सहृदय और दिलचस्प व्यक्तित्व उसे जीवन का मार्ग दिखाता है। पश्चिम में परिवारों, विशेषकर बच्चों के लालन-पालन में एक प्रकार की लापरवाही, सम्बन्धहीनता और असम्पृक्तता दिखाई देती है। यह परिवारों को तोड़ती तो है ही बल्कि व्यक्तित्व के विकास को भी अवरुद्ध करती है। इनको समझना और फिर अपनी दिशा तय करना किसी भी समाज के लिए श्रेयस्कर होगा। 

इस संग्रह की अंतिम कहानी हरीश मसंद की ‘स्पर्श’ है। यह बहुत ही सशक्त और प्रभावी कहानी है। वे इस कहानी में बहुत ही आत्मीय और घनिष्ठ छोटे भाई के जीवन के पहलुओं को परत-दर-परत खोलते हैं—मेरी माँ, पिताजी, भाई, बहन, इन सभी ने मुझे यहाँ अकेला कैसे छोड़ दिया? ऐसा तो आज तक नहीं हुआ था। यह दिन है कि रात? सुबह है कि शाम? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरा दिमाग़ सुन्न पड़ चुका था, मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। मैं बहुत घबरा गया। मैंने चीखना चाहा, लेकिन मेरे गले से आवाज़ नहीं निकली। यह सच था या सपना? ज़रूर सपना होगा। अगर यह सपना था, तो समाप्त क्यों नहीं होता? यह कैसे हालात थे मेरे, जहाँ मेरे शरीर और दिमाग़, दोनों ने मेरा साथ छोड़ दिया था। मैं रोने लगा, लेकिन मेरी आँखों से आँसू नहीं गिरे। फिर भी मैं रोता रहा, न जाने कब तक। इसके अलावा मैं कुछ कर भी नहीं सकता था। मुझे चुप कराने कोई नहीं आया। फिर अचानक मेरी नाभी में हल्का-हल्का दर्द उठने लगा। मेरा ध्यान बँट गया। धीरे-धीरे यह दर्द मेरे शरीर के ऊपरी भाग में फैलने लगा। ज्यों-ज्यों दर्द फैलता गया, त्यों-त्यों मेरी पीड़ा बढ़ती गयी। फिर यह पीड़ा इतनी बढ़ गयी कि मुझसे सहन नहीं होती थी। दर्द के उत्पीड़न से मैंने चिल्लाना चाहा, लेकिन चिल्ला न सका, बस तड़पता रहा। मेरा शरीर मेरा कारागार बन गया, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता न था। इस भयानक अनभव से मेरी आत्मा काँप उठी। जब उसका जन्म होता है, तब की व्यग्रता और इंतज़ार, एक छोटे भाई के नाते बचपन के खेल-कूद, उसके करियर को चुनने और उसमें डूबने की कहानी और अंत में उसका त्रासद अंत। वे लिखते हैं—वहाँ कितने लोग थे, इसका तो मुझे अनुमान नहीं, लेकिन उनकी संख्या अधिक ही रही होगी। सभी जाने-पहचाने चेहरे थे। मेरे सगे सम्बन्धी, कुछ मित्र, कुछ परिचित और बहुत से लोग। क्यों इकट्ठा हुए थे यह लोग? और कोई भी मुझसे बात नहीं कर रहा था, ऐसा क्यों? हैरानी की बात यह थी कि किसी ने भी मेरा हाल तक नहीं पूछा। आज का दिन मेरे ‘जीवन’ का सबसे विचित्र दिन था। कुछ शोर भी सुनाई पड़ने लगा फिर, जैसे कोई यात्रा निकाली जा रही थी। सब लोग रो रहे थे या हँस रहे थे, समझना कठिन था। सबके सुर मिले-जुले से लगते थे। वहीं कोई मंत्रों का उच्चारण भी कर रहा था। मैं धरती पर लेटा आकाश को देख रहा था, उसी गुलाबी फूलों वाली चादर में लिपटा। दूर गगन में पंछी उड़ रहे थे, शायद वे मुझे बुला रहे थे। फिर पानी के छींटे पड़े, कुछ सिन्दूर उड़ा, मन्त्रों का उच्चारण तेज़ हुआ और 'समय' ठहर गया। अगले ही क्षण मैं पंख फैलाए पंछियों के साथ आकाश में उड़ने लगा। इससे पहले मैंने अपने आप को इतना हल्का महसूस नहीं किया था। सब कुछ जैसे पीछे छूट गया, लेकिन लोगों का शोर अब भी मौजूद था। फिर आग की लपटें उठीं, जलीं और सब-कुछ राख हो गया। 

तिनका-तिनका उसकी स्मृतियों को सँजोना, उसकी आत्मीयता के कारण रेशा-रेशा बिखर जाना, एक पूरे जीवन को उसकी स्मृतियों और गंध के साथ समझने की कोशिश करना और उसे एक अधूरे सपने को कई बार कई तरह से देखना इस कहानी को विशेष बनाता है। 

यह सब कहानियाँ मिलकर न केवल कैनेडा का, बल्कि पश्चिमी जीवन का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती हैं। इस संग्रह में स्मृतियों को साझा करने के साथ-साथ स्वयं को पाने और समझने की छटपटाहट भी है। इस संग्रह के साथ ही कैनेडा का गद्य लेखन अपने आप को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित केंद्रों के समकक्ष ले आता है। इस संग्रह ने पश्चिमी समाज की एक प्रामाणिक और जीवंत तस्वीर विश्वभर में प्रस्तुत की है। इस संग्रह के संस्मरण, लघु कथाएँ और निबंध इसे एक धार देते हैं। मैं पुनः इसके संपादक मंडल शैलजा सक्सेना, सुमन घई सह संपादक-आशा बर्मन, कृष्णा वर्मा, ग्राफिक्स के लिए पूनम चंद्रा ‘मनु’ और तकनीकी सहयोग देने वाले महानुभावों का अभिनंदन करता हूँ। इस संग्रह के प्रकाशन में केंद्रीय हिंदी संस्थान और उसकी निदेशक श्रीमती बीना शर्मा, प्रकाशन प्रमुख निरंजन कुमार, प्रकाशन सलाहकार अरुण कुमार जैमिनि और प्रिंटर श्री अरविंद चतुर्वेदी की भी सराहना करता हूँ। इस संग्रह के लिए मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। 

-अनिल जोशी
फ़ोन नं। 9899552099

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